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अन्तर प्रदेशमा उतरेली वृत्तिना उद्गार स्वाध्याय.
गझल. धरु नहि बाह्यमां प्रीति, तजु नहि आत्मनी रीति; भर्यो हुं आत्मना मुखे, पडु नहि मोहना दुःखे. ॥१॥ भूटु नहि भान पोतानु, रघु नहि तत्व तो छार्नु; थयुं मन स्थिर चिरशांति, टळी गइ दुःखनी भ्रान्ति. ॥२॥ अरूपी ब्रह्म में ध्यायु, अनुभव मुख दील आयु; जगत्ने केप कहेवाशे, अरूपी वाणी शुं पाशे. ॥३॥ समाइ हुँ रह्यो घटमां, पडु केम बाह्य खटपटमां; करु हुं बाह्यथी कृत्यो, करे छे कृत्य जेम भृत्यो. ॥४॥ विपाकी कर्म जे आवे, खरे छे तेह निजभावे; तटस्थ दृष्टिथी देखें, तटस्थ धर्मथी पे. विपाको भोगवी छूटु, मोहारि ध्यानथी कूटु निजानंदी खरो भोगी, प्रभुना ध्यानथी योगी. स्वतंत्र भावथी रहे, कोइने कांइ नहि कहेवू बदधन्धि मुख विश्रामी, प्रभुनी सत्यता पामी. ॥७॥
अथ कपटनी सझ्झाय.
श्री रे सिद्धाचळ भेटवा-ए राग. कपट कळा करनार,, कदी थाय न सार; कपट ते पापर्नु मूळ छे, महा दुःख थनारं. कपट० ॥ १ ॥ हाजीहा मुख बोलतो, राखे दिलमां काती कपट त्यां धर्म न संपजे, वज्र जेवी छे छाती. कपट० ॥२॥ कपटी जन मीडं बोलतो, वळी हळवे बोले;
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