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യയ്യയ്യയ്യയ്യയ്യയ്യയ്യയ്യയ്യയ്യയ്യയ
॥ॐ श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यो नमः॥ विधिप्रपा-आचारदिनकर-प्रवचनसारोद्धार-आवश्यकबृहबृत्ति तथा साधुविधिप्रकाश आदिसे संगृहीत
संविज्ञ साधु-साध्वी योग्य 'आवश्यकीय-विचार-संग्रह' सहित आवश्यकीय-विधि-संग्रह
संयोजकश्रीखरतरगच्छगगनांगणनभोमणि श्रीमन्मोहनमुनीश्वरांतेवासि श्रीमद्राजमुनिजी महाराजके शिष्यरत्न श्रीलब्धिमुनिजी महाराज तथा अनुयोगाचार्य पंन्यासप्रवर-श्रीमत्केशरमुनिजी गणिवरके सुशिष्य मुनिश्रीबुद्धिसागरजी महाराज.
मुद्रक और प्रकाशकभी हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय जैन प्रेस, कोटा (राजपूताना). वरिसंवत् २४६२.
अमूल्य भेट.
विक्रम संवत् १९९३. लन्डन्न्ान्ाहन्छन्
Eleळहन्नन्
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॥२॥
साधुसाध्वी प्रस्तावना
आवश्यइस संग्रहका संयोजन विक्रम संवत् १९८२ में हुआ था, परम पूज्य महोपाध्यायजी श्रीमत्क्षमाकल्याणजी गणि कृत 'साधुविधि-13
कीय विधि प्रकाश' की तमाम विधियां इस संग्रहमें संगृहीतहैं, केवल 'साधुविधिप्रकाश में वांदणे देनेका विचार, पाण्मासिक तपश्चिंतन-2
संग्रहः
प्रस्तावना * विचार आदि विशेष बातें विधिके साथही बतादी गइहै, हमने उन विशेष बातोंको टिप्पनीमें या 'विचारसंग्रह' रूप जुदे विभागमें 2 * रखदी हैं, जिससे आधुनिक जमानेके लोगोंको विधि जाननेमें सुभिता रहे । KI 'साधुविधिप्रकाश' में केवल रातदिन काम में आनेवाली विधियां ही हैं, अतः लोचविधि, सज्झाय निक्षेप तथा उत्क्षेप विधि
आदि बारहों मास काममें आनेवाली कितनीक आवश्यकीय विधियां परम शासन प्रभावक खरतरगच्छ गगनांगण नभोमणि आचार्यवर्य
बीजिनप्रभसूरिजी महाराज कृत 'विधिप्रपा' तथा श्रीमद्वर्द्धमानपरिजी महाराज कृत 'आचारदिनकर' के आधार पर एवं दृश्यमान है * प्रणालिका अनुसार संगृहीत की गई हैं,
सबके अंतमें बारह व्रत तथा सर्व तपस्या उचरानेकी और पारणेकी विधि जो रखी गई है वह साक्षररत्न परम पूज्य मुनिवर्य । श्रीमल्लन्धिमुनिजी महाराज ने संगृहीत करी है ।
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साधुसाध्वी
॥३॥
संग्रहः प्रस्तावना
इस संग्रहमें से 'साधु साध्वियोंकी अंतिम आराधना विधि तथा अंतक्रिया विधि' करीब ३ वर्ष पहले प्रकाशित होचुकी थी।
आवश्यऔर महोपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजी महाराज के उपदेश से 'हिंदी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय की तरफ से शेष बचे हुवे संपूर्ण
कीय विधि संग्रहको अब प्रकाशित किया है यह उनका प्रयास बहुत ही प्रशसनीय है अतः मैं उनको पुनः पुनः धन्यवाद देताहूं। __अंतमें मेरी मतिमन्दता या बुद्धि विपर्यासके कारण कुछ भी विधि विपरीत लिखा गया हो अथवा प्रेसकी गफलतसे कोइ भूल 8 रही हो उसके लिए विधिशास्त्रज्ञोंसे सुधारके पढनेकी प्रार्थना पूर्वक मैं मिथ्यादुष्कृत देता हुआ विरमता हूं।
इस ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका ग्रन्थ के अन्त में दी गई है वहां से पढलेना । वि० सं० १९९३, श्रावण शु० ३. पायधुनि, । लि० अनुयोगाचार्य पंन्यास प्रवर श्रीमत्केशरमुनिजी गणि शरण किंकर || श्रीमहावीर स्वामी का मंदिर-उपाश्रय, मुंबई.
मुनि-बुद्धिसागर. _कल्पसूत्र अल्प मूल्य २) दशवैकालिक मूल भावार्थ १) विपाकसूत्र मूल अर्थ और टीकार्थ सहित २) पर्वकथा संग्रह साधु-भावक आराधना सहित १) अंतगडदशा तथा अनुत्तरोववाइ भेट और ज्ञाताजी, उववाई, उपासकदशा आदि छपरहे हैं
मिलने का ठिकाना-जैन प्रेस, कोटा (राजपूतान)
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जैन
श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय जैन प्रेस कोटा का
॥४॥ १-पन्द्रह हजार रुपये सहायता फण्ड में इकट्ठे करके सरल और सुन्दर हिन्दी भाषा में सूत्रों को तथा विशेष उपयोगी ग्रन्थों 15 को प्रकाशित करवाकर हिन्दी भाषी साधु साध्वी ज्ञानभण्डार पुस्तकालय तथा श्री संघ को अल्प मूल्य में या बिल्कुल अमूल्य भेट 3
स्वरूप देने के लिये भगवान् की वाणी का प्रचार करना । | २-दो चार लाख की या मासिक अच्छी आमदनी की बड़ी योजना करके उसके द्वारा हिंदी अंग्रेजी आदि भाषाओं में || जैन सिद्धांतों के तस्य ज्ञान की तथा तमाम जैन उपदेशकों के सार गर्भित मर्मग्राही भाषणों की छोटी छोटी हज़ारों की संख्या में |
पुस्तकें प्रकाशित करवाकर भारत वर्ष के तमाम धर्मों की पब्लिक संस्थाओं में और विद्वान् समाज में उनका प्रचार करना जिससे ४ है जैनधर्म का प्रचार हो और लाखों जीवों को अभयदान मिले ।
३-प्रेस की बचत ज्ञान प्रचार, स्वधर्मियों को सहायता और जीवदया आदि परोपकार में खर्च होगा । इसलिये सर्व | संघ से प्रार्थना है कि-अपनी २ छपाई का काम यहां पर भेजने की कृपा करें।
श्री हिन्दी जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय.
जैन प्रेस, कोटा (राजपूताना)
5543-135937
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साधुसाध्वी
** अहन्नम * श्रीखरतरगच्छनभोमणि-परमगुरु-श्रीमोहनमुनीश्वर-श्रीजिनयशःसूरि-श्रीकेशरमुनिपदपंकजेभ्यो नमः । विधिप्रपा आचारदिनकर तथा साधुविधि प्रकाशसे संग्रहीत-संवेगपाक्षिक सुविहित
___ साधु साध्विओंके करने योग्यआवश्यकीय-विधि-संग्रहः
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१-राइय-पडिकमण विधिःस्थापनाचार्य अथवा गुरुके सामने खमासमण० देकर इरियावही (१) पडिकमे, एक लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पार कर प्रगट लोगस्स कहे, खमा० (२) देकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! कुसुमिण दुस्सुमिण ||
(१) जहां जहां इरियावही पडिक्कमने का होवे वहां वहां सर्वत्र लोगस्सका काउस्सग्ग तथा णमो अरिहंताणं कह कर पार कर प्रगट लोगस्स कहने तक समझना । (२) जहां जहां 'खमा के आगे बिंदी होवे ? वहां वहां पूरा खमासमणा समझना ।
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॥२॥
साधुसाध्वी ओहडावणियं - राइय पायच्छित विसोहणऽत्थं काउस्सग्ग करूं ?, इच्छं कुसुमिण दुस्सुमिण ओहडावणियं राइय पायच्छित्त विसोहणऽत्थं करेमि काउस्सग्गं' अन्नत्थ उस्ससिएणं० कह कर " सागरवर गंभीरा " तक चार | लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पार कर प्रगट लोगस्स कहे, खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भगवन् ! चैत्यवंदन करूं ? इच्छं' कह कर " जयउ सामिय जयउ सामिय" इत्यादि चैत्यवंदन कहे, और जं किंचि० नमु| त्थुणं० जावंति चेइयाइं० जावंत केवि साहू० नमोऽर्हत्० उवसग्गहरं० तथा जय वीयराय ० कहे. बाद खमा० 'इच्छा० | संदि० भग० ! सज्झाय संदिसाउं ?' इच्छं इच्छामि खमासमणो० 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय करूं ?, इच्छं ' | कह कर एक नवकार० धम्मो मंगलकी पांच गाथा और ऊपर एक नवकार कहे, बाद "अणुजाणह (१) इच्छकार सुहराइ ०" कहकर (२) चार खमा ० देवे, पहला खमा ० देकर कहे - आचार्य मिश्रं, दूसरा खमा०दे ० देकर कहे - उपाध्याय
(१) श्रीजिनपतिसूरिजी ने अपनी समाचारीमें लिखा है कि पडिक्कमणेमें तो केवल गुरुही " इच्छकार सुहराइ" कहे, अन्य साधु गुरुको वंदना करते हुए कहे। ( २ ) इतने तक कर लेने बाद यदि पडिकमणेकी बेला न हुई होवे तो अरिहंतादिका स्मरण करता हुआ धर्म ध्यानमें वर्ते, पढे हुए पाठको मनमें संभाले, जब वेला होजावे तब आगे लिखे मुजब चार खमा० देकर पडिक्कमणा ठावे । दो
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विधिसंग्रह:
॥२॥
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विधिसंग्रहः
साधुसाध्वी मिश्रं, तीसरा खमा० देकर कहे-वर्तमान गुरून् , चौथा खमा० देकर कहे-सर्व साधून् । बाद हाथ जोड कर मुख ॥३॥ आगे मुहपत्ति रख कर शिर नमा कर "सब्बस्स वि राइय०” (१) कहे, बाद डावा गोडा ऊँचा करके नमुत्थुणं
कहे, बाद चारित्राचारकी शुद्धिके लिये करेमि भंते ! इच्छामि ठामि काउस्सग्गं० तस्स उत्तरि० अन्नत्य उस्ससिएणं. कह कर एक लोगस्सका काउसग्ग करे, पार कर दर्शनाचारकी शुद्धिके वास्ते प्रगट लोगस्स० सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं० तथा अन्नत्थ उस्ससिएणं० कह कर फिर एक लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पार कर ज्ञानाचारकी शुद्धिके वास्ते पुक्खवरदीवऽड्ढे० सुअस्स भगवओ करोमि काउस्सग्गं० वंदणवत्तिआए० अन्नत्थ कह कर काउ० करे, उसमें “सयणासणऽन्नपाणे, चेइ जइ सिज्ज काय उच्चारे. समिइ भावणा गुत्ति, वितहायऽऽरणे
य अइयारो॥१॥” इस गाथाको अर्थ सहित १वार अथवा मूल ३वार विचारे या ८ नवकार गिणे पार कर सिद्धाणं KIबुद्धाणं० कह कर संडासे (२) पूंजते हुए बैठ कर तीसरे आवश्यककी मुहपत्ति पडिलेहे और दोवार वांदणे देवे (३)।
घडी रात बाकी रहे तब राइय पडिक्कमणेकी वेला होती है । (१) 'इच्छा० संदि० भग० राहयपडिक्कमणे ठाउं ? इच्छं' ऐसा कह कर डावे हाथसे मुखके आगे मुहपत्ति रखे और जीमणा हाथ ओधे ऊपर स्थापन कर "सवस्स वि" कहनेकी आजकल प्रवृत्ति है। (२) संडासे 4 पूंजनेका वृत्तांत जानने के लिये इसी पुस्तकके पीछे नंबर १० संडाशक प्रमार्जन विचार' देखो । (३) वांदणे देनेकी रीति जाननेके लिये
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॥
॥
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साधुसाध्वी
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॥४॥
बाद खडे होकर कहे-'इच्छा० संदि० भग०! राइयं आलोउं ? ' गुरु कहे-'आलोएह' बाद 'इच्छं' आलोएमि जो मे राइओ०तथा संथारा उद्दणकी० कह कर "सव्वस्स वि राइय दुचिंतिय दुब्भासिय दुच्चिट्ठिय इच्छाकारण संदिसह भग०!" इतने तक कहकर थोडासा ठहर जाय, जब कि 'पडिक्कमेह' ऐसा गुरु कह देवे, बाद शिष्य-"इच्छं
तस्स मिच्छामि दुक्कडं" कह कर बैठ कर जीमणा गोडा ऊँचा करके जोडे हुए दोनों हाथोंसे ओघा तथा मुहपत्ति मुखके , * आगे रख कर कहे 'भगवन् ! सूत्र कहूं !' गुरु कहे-'कड्ढेह'। बाद १-१अथवा३-३नवकार तथा करेमि भंते०! कह ।
कर "चत्तारि मंगलं' इत्यादि तीनों आलावे और "इच्छामि पडिक्कमिउंजो मे राइओ०" तथा "इच्छामि पडिक्कमिडं। इरियावहियाए०"कह कर पगामसिजाए०कहे, “तस्स धम्मस्स केवली पन्नत्तस्स” कहते हुए खडे होजाय "वंदामि || जिणे चउव्वीस्सं" तक संपूर्ण कह कर दो वांदणे देवे और गुरुको अब्भुट्टियो (१) खमावे, बाद दो वांदणे देकर श्रावक नम्बर २ 'वांदणे देनेका विचार' देखो । (१) स्खडा हुआ आधा नमकर “इच्छा० संदि० भग० । अब्भुढिओमि अभ्भितर राइयं खामेउ?" [SI इतना कहे बाद गुरु कहे 'खामेह' बादमें “इच्छं खाममि राइयं" ऐसे कहते हुए संडासे पूंजके गोडों ऊपर बैठकर जीमणी तरफ खोले में मोघा रखे और डावे हाथ से मुनके आगे मुहपत्ति लगा कर जीमणा हाथ गुरुके चरणोंके लगावे, बाद "जं किंचि अप्पतिय" यहां से लगा कर "मिच्छामि दुक्कडं" तक संपूर्ण पाठ कहे।
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॥४
॥
दुकड" तक सपणे सहपत्ति लगा कर जोसे कहते हुए संडास भूगा । अम्भुट्टिबोमि अभिमा
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विधि
साधुसाध्वी साथमें हो? तो"आयरिय उवज्झायः" कह कर करेमि भंते! इच्छामि ठामि०तस्स उत्तरि अन्नत्य उस्ससिएणं० ॥५॥ कह कर तप चिंतवणी काउस्सग्ग करे, काउस्सग्गमें छम्मासी ( १) तपका चितवन करे जो भगवान् श्रीमहावीर ||
स्वामी ने छद्मस्थ (२) अवस्था में कियाथा, यदि तप चिंतवन नहीं आता हो ? तो ६ लोगस्स गिणे, पार कर प्रगट लोगस्स कह कर छठे आवश्यककी मुहपत्ति पडिलेहे और दो वांदणे देकर डाबा गोडा ऊँचा करके "सद्भक्त्या , देवलोके” इत्यादि अथवा "सकल तीर्थ वंदुं कर जोड" इत्यादि तीर्थ नमस्कार कहे, बाद 'इच्छकारी भग०!
पसायकरी पञ्चक्खाण करावोजी' ऐसा कह कर मनमें धारा हुआ पञ्चख्खाण गुरु मुखसे करे, बाद, (३) 'इच्छामो || * अणुसहिँ नमो खमासमणाणं नमोऽर्हत्' (४) कह कर " परसमय तिमिर तरणिं" (५) की तीन गाथा कहे ।
और नमुत्थुणं० कह कर आगे लिखे मुजब चार थुइसे देववंदन करे
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(१) छम्मासी तप चितवन के लिये नंबर ३ 'छम्मासी तप चितवन विचार' देखो। (२) दीक्षा लिये बाद जब तक केवल शान नहीं | होवे तब तक छद्मस्थ अवस्था कहाती है । (३) पहले गुरु बोल जाय बाद सब जणे बोले। (४) साध्विओं को नमोऽईद किसी जगह नहीं कहना चाहिये । (५) इसकी एक गाथा पहले गुरु बोल देवे बाद सब जणे तीनों गाथा कहें।
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साधुसाध्वी
॥६॥
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खडे होकर अरिहंत चेइयाणं० अन्नत्थ उस्ससिएणं० कह कर १ नवकारका काउस्सग्ग करे, पार कर नमोऽर्हत्० कह कर पहली थुइ कहे, बाद लोगस्स० सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं० अन्नत्थ० कह कर १ नवकारका काउसग्ग करे, पार कर दूसरी थुइ कहे, बाद पुक्खर वर दीवऽड्ढे ० सुअस्स भगवओ करोमि काउस्सग्गं० वंदण वत्ति| आए० अन्नत्थ० कह कर १ नवकारका काउस्सग्ग करे, पार कर तीसरी थुइ कहे, बाद सिद्धाणं बुद्धाणं० वेयाव|च्चगराणं० अन्नत्थ० कहकर १ नवकार का काउस्सग्ग करे, पार कर नमोऽर्हत्० कह कर चौथी थुइ कहे, बाद बैठ कर नमुत्थुणं० कह कर पांच खमासमणे देवे - पहला खमा देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! बहुवेल संदिसाउं ?, इच्छं' दूसरा खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! बहुवेल करूं?, इच्छं' तीसरा खमा० देकर 'आचार्य मिश्र ' चौथा खमा० देकर 'उपाध्याय मिश्रं' पांचवां खमा० देकर 'सर्व साधून' इस तरहसे कहे ।
॥ इति राइय पडिकमण विधिः ॥
* करने लायक स्वाध्याय (सज्झाय ) ध्यान आदि कृत्य भी साधुओंको आचार्य (गुरु) की आज्ञासे करने कल्पते हैं, बिना आशा नहीं, इस वास्ते छोटे कृत्योंकी एक साथ ही आशा लेनेके लिये साधु लोग बहुबले करते हैं (पंचवस्तुक गाथा ५५८ पृ० ९१ )
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विधि -
संग्रह:
॥ ६ ॥
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रच
साधुसाध्वी
विधि
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बाद उत्तर दिशा या ईशान कोणके सामने मुख करके खमा० देकर कहे-'इच्छा संदि०भग० ! चैत्यवंदन | करूं ?, इच्छं' कह कर श्रीसीमंधर स्वामीका चैत्यवंदन कहे नमुत्थुणं० कहते हुए "ठाणं संपत्ताणं" की जगह
"ठाणं संपाविय कामस्स नमो जिणाणं० नमोऽहत्" कह कर श्रीसीमंधर स्वामी का स्तवन कहे, बाद जय . नवीयराय० अरिहंत चेइयाणं० अन्नत्थ० कह कर एक नवकारका काउस्सग्ग करे, पार कर नमोऽर्हत्० कह कर
सीमंधर स्वामीकी १ थुइ कहे । इतना करलेनेके बाद भी यदि पडिलेहणका वख्त न हुआ हो ? तो सिद्धा. चलजीका चैत्यवंदन कह कर "जं किंचिं नाम तित्थं० नमुत्थुणं० जावंति चेइयाइं० जावंत केवि साहू० नमो में हत्०" कह कर सिद्धाचलजीका स्तवन कहे, बाद जय वीयराय० अरिहंत चेइयाणं० अन्नत्थ० कह कर एक नवकारका काउस्सग्ग करे, पार कर नमोऽर्हत कह कर सिद्धाचलजीकी एक थुइ कहे। इन दोनों चैत्यवंदनोंके । करने का नियम नहीं है, यदि समय हो ? तो कर लेवे और समय न हो ? तो नहीं भी करें।
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साधुसाध्वी
॥ ८ ॥
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२ - प्रातः (१) पडिलेहण विधि:
स्थापनाचार्यजी खोल कर इरियावही पडिकमे, खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! पडिलेहण संदि साउं ? इच्छं' इच्छामि खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! पडिलेहण करूं? इच्छं' कहकर मुहपत्ति पडिलेहे, बाद मुखपर मुहपत्ति अथवा कपडेका पल्ला लागा कर ओघा खोले, पहले पाठा, पीछ दशियां २५-२५ बोल से पडिलेह कर १० बोल बोलते हुए दशियोंसे दंडीको पडिलेहे, बाद सूतकी निषद्या (निशीथिया ) तथा उनकी निषद्या ( ओघारिया ) २५-२५ बोलसे पडिलेहे उसके बाद डोरा चोवडा करके १० बोल बोलते हुए ओघेकी दशियोंसे पडिलेह कर कानमें रखे और खडे गोडोंसे बैठ कर ओघा बांद लेवे | बाद खमा० देकर
[१] सूर्य उदय होने के पहले झोली-पडले आदि गौचरीके उपकरणोंको छोड कर ओढने बिछाने के कपडे तथा दंडा आदि सब उपकरणोंकी पाडलेहण कर चुके. और काजा लेते समय सूर्य उदय होजाय. वैसे अवसर में पडिलेहण शुरू करना चाहिये, ऐसा 'प्रवचन सारोद्धार' टीका ( पत्र १६६ ) मे लिखा है। * हरएक उपकरण पडिलेहने में जहां २५ बोल लिखे होवे वहां "सूत्र अर्थ" से लगाके "काय दंड परिहरूँ" तक और जहां १० बोल लिखे होवे वहां पर " सूत्र अर्थ" से लेकर "सुधर्म आदरूं" तक, तथा जहां १३ बोल लिखे हो वहां पर “सूत्र अर्थ " से लेकर "कुधर्म परिहरूँ" तक, मुहपत्ति पडिलेहण के २५ बोलों में से सब जगह यथोचित समझलेना ।
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विधि
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॥ ८ ॥
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साधुसाध्वी | इच्छा० संदि० भग० ! (१) अंगपडिलेहण सदिसाउं?' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! अंग-2 विधि
पडिलेहण करूं?, इच्छं' कह कर मुहपत्ति पडिलेहे, बाद कंदोरा हो? तो खोल कर चोवडा करके १० बोलसे पडिलेह | कर कानमें रखे. और चोलपट्टा पडिलेह कर पहर कर कंदोरा बांध लेवे। बाद गुरु अथवा अन्य कोईभी साधु । खमा० देकर 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पडिलेहणा पडिलेहावोजी' कह कर गोडों ऊपर बैठ कर कंबली पडिलेहे और पूंज कर जमीन ऊपर रखे, उस पर आगे लिखे मुजब स्थापनाचार्यजीकी पडिलेहण करे
स्थापनाचार्यजी खोल कर उनके ऊपर ढांकनेकी मुहपत्ति पडिलेह कर जीमणे हाथमें रखे और डावे । हाथमें स्थापनाचार्यजी लेकर १३ बोलसे (२) पडिलेह कर कंबल पर रखे, बाद समेटी हुई नीचली दो । मुहपत्तियां तथा बिछाई हुई सूतकी और उनकी मुहपत्तियां (३) पडिलेहे, बाद नीचे ऊनी और ऊपर सूतु मुहपत्ति ।
बिछावे, उसमें समेटी हुई दो मुहपत्तियां रख कर ऊपर स्थापनाजी रखे, उनके ऊपर समेटी हुई तीसरी मुहपत्ति IS (१) अंग शब्दका अर्थ-शरीर पर रहे हुए चोलपट्टा कंदोरा समझना, पांगरणी आदि नहीं । (२) “शुद्ध स्वरूप धारक १ ज्ञान ||
गुप्ति ११ वचन गुप्ति १२ काय गुप्ति १३ आदरे " ये १३ बोल स्थापनाचार्य पडिलेहनेके हैं। (३) २५-२५-बोल से।
XARAK XAX
२ दर्शन ३ चारित्र ४ सहित, सद्दहणा शुद्धि ५प्ररूपणा शुद्धि ६ दर्शन शुद्धि ७ सहित पांच आचार पाले ८ पलावे ९ अनुमोदे १० मनो
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साधुसाध्वी ढांक कर सूतु तथा ऊनी मुहपत्तिसे बांध देवे और झोलीमें रख कर ठवणी ऊपर रख देवे, बादमें शेष रहे अन्य ॥१०॥ साधु खमा० देकर कहें 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पडिलेहणा पडिलेहवोजी'।
बाद सब साधु एक खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! मुहपत्ति पडिलेडं ?' इच्छं इच्छामि खमा० देके है * मुहपत्ति पडिलेहें, खमा० देकर 'इच्छा०संदि० भग! ओहिपडिलेहण संदिसाउं?' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा०
संदि० भग० ! ओहिपडिलेहण करूं ?, इच्छं' कह कर खडे पगोंसे बैठ कर गुरु तथा अपने बडे साधुओंकी शेष है, उपधि पडिलेह कर अपनी तमाम उपधि पडिलेहे, उनमें पहले कंबल बाद अनुक्रमसे चद्दर-पांगरणी-उत्तरपट्टा-| संथारिया-आसन आदि कपडे तथा पाट वगेरह २५-२५ बोलसे. दंडा तथा दंडासण १०-१० बोलसे पडिलेहे है। बाद एक साधु उपाश्रयमें काजा निकाल कर एक जगह इकट्ठा कर उसको जुदा जुदा करके अच्छी
तरह देख लेवे, यदि जूं वगेरह कोई जीव हो? तो लेकर एकांत किसी वस्त्रादिकमें रख देवे, बाद काजा सूपडी12 में लेकर एकांत भूमिमें "अणुजाणह जस्स गो" कह कर छटा छटा परठ कर “वोसिरे ३" कहे, बाद उपाश्रय
के आस पास सौ सौ (१००) हाथ भूमिमें वसति संशोधन करे, यानी भूमिको नजरसे देखे, यदि कोई |
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साधुसाध्वी
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हड्डी या कलेवर आदि देखनेमें आवे तो उनको दूर करा कर 'निसीहि ३ मत्थएण वंदामि, भगवन् ! सुद्धा वसहि' कहता हुआ उपाश्रयमें आवे।
बाद स्थापनाचार्य के आगे इरियावही पडिकमे, जो काजा परठने तथा वसति संशोधन करनेको गया | हो ? वह खमा० देकर कहे-'इच्छा० संदि० भग० ! वसति पवेउं ? ' गुरु कहे 'पवेयह' इच्छं इच्छामि खमा० । देकर कहे-भगवन् ! सुद्धावसहि' गुरु कहे 'तहत्ति' वाद खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय संदिसाउं!' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय करूं ?' इच्छं, कह कर १ नवकार तथा धमो । मंगलकी १७ गाथा और ऊपर १ नवकार कहे, खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! उपयोग संदिसाउं?' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! उपयोग करूं?' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० उपयोग करण निमित्तं काउस्सग्ग करूं?' खडे होकर 'इच्छं उपयोग करण निमित्तं करेमि काउस्सग्गं अन्नथ०। कह कर एक नवकारका काउस्सग्ग करे, पार कर प्रगट नवकार गिणे ।
बाद गुरुके आगे आधा नमकर हाथ जोड कर शिष्य कहे-'इच्छा० संदिसह भगवन् ?' गुरु कहे-'लाभ'
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साधुसाध्वी शिष्य कहे-'कहं लेसहं गुरु कहे-'जह गहियं पुत्व साहुहिं ' शिष्य कहे-'इच्छं आवस्सियाए' गुरु कहे-'जस्स ॥१२॥ य जोगो' शिष्य कहे-'सिजातर ? ' गुरु कहे-'अमुकका घर'। यानी जिसका घर सिज्जातर (१) किया हो ? है उसका नाम कहे, बादमें गुरुको अभ्युत्थान वंदना तथा आचार्यादि पदस्थको द्वादशावर्त वंदना करे
३-अभ्युत्थान गुरु वंदना विधिः। दो खमा० देकर "इच्छकार सुहराइ" कहे, खमा० देकर अब्भुट्टिया खमावे, फिर खमा० देकर इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पञ्चक्खाणनी आस' कह कर पञ्चक्खाण करे, बाद खमा० देकर 'इच्छा संदि० भग० ! बहुवेल संदिसाउं ?, इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! बहुवेल करूं ?, इच्छं कह कर फिर खमा० देवे। अपनेसे बडे साधुओंको इसी विधिसे वंदना करनी, केवल पच्चक्खाण तथा , पिछले तीन खमा० देकर दो आदेश मांगना. यह न करे, क्योंकि जो सबसे बडे (मोटे ) हो ? उनके पास
(१) सिजातर किसको कहते हैं ? और उसके घरसे कितनी देर बाद कितनी देर तक क्या क्या चीज न लेना ? इसकी हकीकत जाननेके वास्ते नम्बर ४ "सिज्जातर विचार" देखो।
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साधुसाध्वी हा पञ्चक्खाण आदि किया जाताहै।
५-चैत्यवंदन-विधिः॥१३॥
___ 'निसिही ३' कहते हुए मंदिरमें जातेही भगवान्को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देवे, इरियावही पडिक्कमके तीन खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! चैत्यवंदन करूं ?, इच्छं' कहकर चैत्यवंदन कहे, बाद जंकिंचि० नमुत्युणं० जावंति चेइयाइं० जावंत केवि साहू० नमोऽर्हत् कहकर स्तवन कहे, बादमें "आभवम-2 खंडा" तक जय वीयराय ! कहकर खडे होकर अरिहंत चेइयाणं० अन्नत्य० कहकर एक नवकारका काउ-11 स्सग्गकरे, पारकर नमोऽर्हत्० कहकर एक थुइ कहे, बाद खमा० देकर पञ्चक्खाण करना।
५-उग्घाडा-पेरिसी-विधि:छः घडी दिन चढे बाद गुरुके आगे "उग्घाडा पोरिसी” कहकर इरियावही पडिक्कमे, बाद खमा० देकर एक साधु कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! उग्घाडा पोरिसी' गुरु कहे- 'तहत्ति' फिर खमा० देकर । इच्छा० संदि० भग० ! पडिलेहण करूं ?, इच्छं' इस तरह आदेश मांगकर गुरु मुहपत्ति पडिलेहे बाद सब
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॥१४॥
साधुसाध्वी || जणे खमा० देकर ऊपर मुजब आदेश मांगकर २५ बोलसे मुहपत्ति पडिलेहें।
६-गौचरी-जानेकी तथा आलोचनेकी विधि:3 गौचरीका समय हो जाने पर कंबली बिछाके उस पर पात्रं आदि सब उपकरण छूटे छूटे रखे, बाद
झोली पडिलेह कर छेडों के गांठे लगावे, बाद १० बोलसे पूंजणी पडिलेहे, उससे पात्रे-तरपणी-चेतना-डाब-|| डिया आदि २५-२५ बोलसे पडिलेहे, और पडले-रजस्त्राण आदिभी सब उपकरण २५-२५ बोलसे तथा तरपणीका डोरा १३ बोल बोलते हुए पूंजणीसे पडिलेहे, (१) बाद झोली में पात्रे रखकर डाबे हाथमें झोली || लेकर ऊपर पडले ढांक देवे और तरपणीभी उसी हाथमें लेकर चद्दरके छेडेसे ढांक लेवे, बाद दंडा हाथमें | लेकर 'आवस्सही ३' कहते हुए उपाश्रयसे निकलकर गौचरी जावे।
दंडा भूमि ऊपर टिकाते हुए किसीके साथ बात चीत करते हुए या हँसते हुए रास्तेमें न चले, उतावल | ॥१४॥ (१) उपवासके दिनभी उग्घाडा पोरिसी भणानेके बाद इसी मजब पात्रे आदिकी पडिलेहणा जरूर करनी चाहिये।
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साधुसाध्वी रहित चलते हुए ४२ दोष (१) रहित गौचरी लेकर “निसिही ३ नमो खमासमणाणं " कहते हुए उपाश्रयमें गुरुके पास आकर यदि शक्ति हो ? तो गौचरी हाथमें ही रखे. और शक्ति न हो ? तो गौचरी ठिकाने रख कर आगे लिखे मुजब गौचरी आलोवे -
॥ १५ ॥
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मा० देकर इरियावही पडिक्कमे, जितने घरोंसे जिस प्रकार गौचरी ली हो ? वह सब काउस्सग्गमें याद | करे अथवा एक लोगस्स का काउस्लग्ग करे, पारकर प्रगट लोगस्स कहकर बोले- 'इच्छा० संदि० भग० ! भात पाणि आलोऊँ ?' गुरु कहे- 'आलोएह' बाद 'इच्छं' कहकर स्त्री या पुरुषके हाथसे. वाटकी या कुडछीसे | जिस तरह गौचरी ली हो ? वह सब हकीकत गुरुके आगे कह सुनावे, बाद " इच्छामि पडिक्कमिउं गोयरच| रियाए० " यह आलावा कहकर तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० कहकर काउस्सग्गमें
"अहो !! जिणेहिं असावज्जा, वित्ति साहूण देसिया | मुक्ख साहण हेउस्स, साहुदेहस्स धारणा १” (दश० ५ अ०, १उ०) यह गाथा चिंतवें, पार कर प्रगट लोगस्स कहे, बाद चौमासे में पाटको और शेषाकालमें भूमिको पूंज
(१) नम्बर पांच 'आधार - दोष - विचार' देखो।
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विधि
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।। १५ ।।
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साधुसाध्वी
॥ १६ ॥
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कर गौचरीके पात्रे रख कर ऊपर झोली या लुहणा ढांक देवे, बाद उपाश्रयमें काजा निकाल कर निर्जीव भूमि में परठ कर पच्चख्खाण पारे ।
७- पञ्चक्खाण-पारण-विधि:
स्थापना के सामने अथवा गुरु आदि अपने से बडेके सामने खमा० देकर इरियावही पडिक्कमे, बाद खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! चैत्यवंदन करूं ?, इच्छं' कहकर "जयउ सामिय" जंकिंचि० नमु स्थूणं० जावंति चेइयाई० जावंत केवि साहू ० नमोऽर्हत्० और उवसग्गहरं० कहकर “आभवमखडां ” तक जय वीयराय ! कहे, बाद खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय संदि साउं ?, इच्छं ' इच्छामि खमा ० 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय करूं ?, इच्छं' कहकर १ नवकार धम्मो मंगलकी १७ गाथा तथा ऊपर १ नवकार कहे, बाद खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! पच्चक्खाण पारवा मुहपत्ति पाडलेहुं ?, इच्छं' कहकर मुहपत्ति पडिलेहे, बाद खमा० देकर कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! पञ्चक्खाण पारावह' गुरु कहे- 'पुणो वि कायव्वो' बाद 'यथा शक्ति' कहकर फिर खमा० देकर कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! पच्चक्खाण पारूं ?"
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॥ १६ ॥
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साधुसाध्वी म
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गुरु कहे-'आयारो न मोत्तव्यो' बाद 'तहत्ति' कहकर जीमणी मुहि ओघे ऊपर स्थापन कर १ नवकार गिणे. बाद आगे लिखे हुए पञ्चक्खाण पारनेके पाठ बोलकर १ नवकार गिणे ।
नमुक्कारसहि आदि पञ्चक्खाण पारनेका पाठउग्गए सूरे नमुक्कार सहियं पोरसि० साढ पोरस (सूरे उग्गए पुरिमऽनु-अव8) मुहि सहियं पञ्चक्खाणा कर्युचउव्विहार, आयंबिल एकासगुं, निवि एकासगुं, एकासगुं, बियासणुं पञ्चक्खाण कर्यु तिविहार, पञ्चक्खाण । फासियं, पालियं, सोहियं, तीरियं, किट्टियं, आराहियं, जं च न आराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥
इनमें नमुक्कार सहियंसे लगा कर साढपोरसी तकमें जो पच्चक्खाण किया हो ? वहां तकके सब नाम बोलने, आगे के नहीं और यदि पुरिमऽव या अवह हो ? तो "सूरे उग्गए-पुरिमऽ४" या "अवटुं” जो होवे ? सो बोलना, पहले के नहीं, यदि आयंबिल हो ? तो “ आयंबिल एकासणुं पच्चक्खाण कर्यु तिविहार" | तथा निवि हो ? तो “निवि एकासणुं पच्चक्खाण कर्यु तिविहार” कहना, इसी तरह एकासणेमें “एकास' ।
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साधुसाध्वी
॥१८॥
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पच्चक्खाण कयुं तिविहार" तथा बियासणेमें “बियासणुं पच्चक्खाण कयुं तिविहार " कहना । तिविहार उपवासका पच्चक्खाण पारनेका पाठ
“सूरे उग्गए पच्चक्खाण कयुं तिविहार, पोरिसी - साढपोरिसी - पुरिम- अव मुट्ठिसहियं पञ्चक्खाण कर्तुं पाणाहार, पञ्चक्खाण फासियं० " इत्यादि पहले की तरह कहना ।
बाद में बडे छोटे सब साधुओंको आहार देकर रागद्वेष रहित मंडली के पांच (१) दोष टालकर सुर सुर अथवा चब चब शब्द नहीं करता हुआ, उतावल रहित, देरी नहीं लगाता हुआ, तथा नीचे नहीं विखेरता हुआ आहार पाणी करे. आहार पाणी कर चुकने पर पात्रे तीन चार वार पाणीसे धोकर पाणी पी लेवे. पात्रे दो लूहणोंसे लूस लेवे, लूहणा पाणी में धोकर सुका देवे, बाद पात्रे चौमासा हो ? तो पाट ऊपर रखे. और शेषाकाल हो ? तो शायद अकस्मात् विहारही करना पड़े ? वास्ते बांधकर गुच्छे चढाकर | रखे. यदि एकासणा हो ? तो उसी जगह तिविहार पञ्चक्खाण कर लेवे ।
(१) नाम वगैरह इनका स्वरूप जानना हो ? तो नम्बर ५ ' आहार- दोष-विचार' देखो।
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साधुसाध्वी ___ बाद जिस जगह आहार पाणी किया हो ? उसी जगह बैठा हुआ स्थापनाजी के सामने इरियावही | ॥ १९॥ पडिक्कमे, खमा० देकर-इच्छा. संदि० भग! चैत्यवंदन करूं ?, इच्छं' कहकर “जयउ सामिय" संग्रहः
चैत्यवंदन कहे, बाद जं किंचि० नमुत्थुणं० जावंति चेइयाइं० जावंत केवि साहू० नमोऽर्हत्० उवसग्गहरं० तथा all" आभवम खंडा" तक जय वीयराय ! कहे। | अष्टमी चउदस आदि उपवास के दिन दुपहरको पांच शकस्तवसे देववंदन अवश्य करने चाहिये।
-स्थंडिल जाने की विधि:'आवस्सही ३' कहते हुए उपाश्रयसे निकलकर उतावल रहित बात चीत नहीं करते हुए आगे आगे भूमि देखते हुए गांमके बाहर जाकर पवित्र भूमिसे ईंटके टुकड़े आदि पूंज कर लेवे, या उपाश्रयसे ही वस्त्रखण्ड लेजावे बाद दूर जाते हुवे वनस्पति या अन्य (कीड़ी तथा उद्देही आदि) जीवजंतु रहित जगहमें | जाकर ऊंचे नीचे और तिरछे चारों तरफ देख लेवे कि-कोई मनुष्य वगैरह आता जाता तो नहीं है, ॥ १९॥ बाद “अणुजाणह जस्सुग्गहो” ऐसा कहकर ठल्ले बैठे, जिसके फल फूल आते हो ? उस वृक्ष (झाड़) के
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॥ २० ॥
साधुसाध्वी नीचे न बैठना, पूर्व तथा उत्तर दिशाके सामने और जिस तरफका पवन चलता हो ? उस तरफ, सूर्य और गांवके सामने पीठ नहीं करनी, बैठते समय दंडा डाबी साथलमें रखे, पाणी की तरपणी जीमणे हाथमें तथा ईंटके टुकड़े या वस्त्रखण्ड डाबे हाथमें रखे, जब कि शंका दूर होजाय ? तब दूर हटकर ईंटके टुकड़ों से या वस्त्रखंडसे शरीर लूस लेवे, बाद पाणीसे शुद्धि करके उठकर दूर आकर 'वोसिरे ३' कहे। बाद 'निस्सिही ३' कहते हुए उपाश्रयमें आकर इरियावही पडिक्कमे और तरपणी लूसकर रख देवे । ९ - संध्या - पडिलेहण - विधिः
पिछले प्रहरमें गुरुके आगे खमा० देकर कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! बहुपडिपुन्नापोरिसी' ? गुरु | कहे- 'तहत्ति' । बाद हमेश (रोज) वापरनेके उपकरण लेकर पासमें रखकर खमा पूर्वक इरियावही पडिक्कमे, खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! पडिलेहण करूं ?, इच्छं' इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! वसति प्रमार्ज् ?, इच्छं' कहकर मुहपत्ति पडिलेहे, फिर खमा ० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! पडिलेहण संदिसाउं ?, इच्छं' इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग ! अंग पडिलेहण करूं ?, इच्छं' कहकर
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साधुसाध्वी || मुहपत्ति पडिलेहे, बाद कंदोरा (१) तथा चोलपट्टा (२) पडिलेहकर काजा निकाले, काजा परठकर सो सौ ॥२१॥ (१००) हाथ तककी भूमिमें सवेरेकी तरहँ वसति संशोधन करे, जो कोई हड्डी या कलेवर हो ? उसको दूर 2 संग्रहः
हटवा कर 'निसिही ३ मत्थएण वंदामि भगवन् ! सुद्धावसही' कहते हुए उपाश्रयमें आकर गुरुके सामने । Tel®खमा० देकर इरियावही पडिक्कमे, खमा० देकर कहे-'इच्छा० संदि० भग० ! वसति पवेउं ?' गुरु|
कहे 'पवेयह' फिर इच्छं इच्छामि खमा० देकर कहे-'भगवन् ! सुद्धावसही' गुरु कहे-'तहत्ति' ४ बाद । स्थापनाचार्य के सामने खमा० देकर 'इच्छकारी भगवन् ! पसायकरी पडिलेहणा पडिलेहावोजी' कहकर
स्थापनाचार्य पडिलेहेa कंबली पडिलेहकर समेटके बिछादेवे, उसपर स्थापनाचार्यजी खोलकर जुदे रखे, बाद समेटी हुई तथा बिछाई हुई मुहपत्तियां जुदी जुदी करके पहले उनकी और पीछे सूतकी मुहपत्ति पडिलेहकर ।
(१) उपवासके दिन ओघा पडिलेहनेके बाद कंदोरा तथा चोलपट्टा पडिलेहे। (२) साध्वियां चौलप की जगह पहरने का साडला
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|पडिलेहे ॥ * इस निशानी से लगाकर इस निशानी तककी विधि जिसने काजा निकाल कर वसति संशोधन कियाहो? उसीको करना माचाहिये, अन्यको नहीं, सब उपकरण पडिलेहनेके बाद यदि काजा निकाले ? तो यह विधिभी पीछेसेही करे।
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साधुसाध्वी || उपरा उपरी बिछादेवे, बाद समेटी हुई नीचेवाली मुहपत्ति पडिलेहकर समेटके बिछाई हुई मुहपत्तिमें | ॥२२॥रखे बाद ऊपरवाली समेटी हुई मुहपत्ति पडिलेहे, उससे सवेरेकी तरह १३ बोलसे स्थापनाचार्य पडिलेहकर
पहलेकी समेटी हुई मुहपत्ति पर रखदेवे, ऊपरसे वह दूसरी मुहपत्तिभी समेटकर ढांक देवे, बाद सूत्र
तथा ऊनी दोनों मुहपत्तियोंसे स्थापनाचार्य बांधकर झोलीमें रखकर ठवणी ऊपर रख देवे । है। बाकी रहे सवजणे खमा० देकर 'इच्छकारी भगवन् ! पसायकरी पडिलेहणा पडिलेहावोजी' ऐसे कहें। | है। बाद सबजणे खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग०! मुहपत्ति पडिलेहुं ?, इच्छं' कहकर मुहपत्ति पडिलेहें, फिर खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग०! सज्झाय संदिसाऊं ?, इच्छं' इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि०भग०! सज्झाय करूं ?, इच्छं' कहकर १ नवकार धम्मो मंगलकी ५ गाथा और ऊपर १ नवकार गिणे, दो (१) वांदणे देकर मुट्ठिसहि पचक्खाण करे. खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! ओहिपडिलेहण संदिसाऊं ?, इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! ओहिपडिलेहण करूं ?, इच्छं' कहकर चद्दर कंवली आदि सब ॐ ॥ २२ ॥
(१) उपवास के दिन वांदणे नहीं देने ।
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साधुसाध्वी उपकरण सवेरेकी तरह पडिलेहे। बाद ओघा खोलकर पहले डोरा १० बोलसे पडिलेहे, बाद ऊनकी निषद्या | ॥ २३॥ (ओघारिया ) सूतकी निषद्या (निशिथिया) पाठा तथा ओघेकी दशियां अनुक्रमसे २५-२५ बोलसे पडि-2 संग्रहः
लेहे, बाद डंडी १० बोलसे पडिलेह कर ओघा पीछा बांध लेवे, बाद दंडे पडिलेह कर जिस जगह पर कपडे आदि की पडिलेहण करी हो ? उस जगहसे काजा निकालकर एकांतमें परठे, बाद इरियावही पडिकमकर : मुटि भीडकर १ नवकार गिणे अथवा आगे लिखा पाठ बोलकर मुट्टिसहि पञ्चम्खाण पारे-"मुट्टिसहि पञ्चखाण फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं आराहियं जं च न आराहियं तस्स मिच्छामि दुकडं " ॥
१०-देवसिय-पडिक्कमण-विधिःKaile संध्याको पडिक्कमणेका टाइम होनेपर मातरे जाना हो? तो जाकर इरियावही पडिकमे, बाद गुरुको अथवा :
सबसे बडेको वंदना करके पञ्चक्खाण करे, खमा० देकर कहे-इच्छा० संदि० भग० ! थंडिल पडिलेडं ?' गुरु ।
कहे-'पडिलेहेह' बाद 'इच्छं' कहकर "आगाढे आसन्ने० " इत्यादि पाठ बोलते हुए ओघेसे २४ मांडले ॥२३॥ IS करे. खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! गोचरी आदि पडिक्कमुं?, इच्छं' इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि०
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साधुसाध्वी भग० ! गोचरी आदि पडिक्कमणऽत्थं काउस्सग्ग करूं ?, इच्छं गोचरी आदि पडिकमणत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ० ' कहकर १ नवकारका काउस्लग्ग करे, पारकर प्रगट नवकार १ कहकर आगे लिखी गाथा बोलनी" कालो गोयरचरिया, थंडिल्ला वत्थ पत्त पडिलेहा । संभरउ सो साहू, जस्स वि जं किंचिऽणुवउत्तं । १ । ”
॥ २४ ॥
बाद अपने से बड़ों को सबको वंदना करके इरियावही पडिकमे, खमा० देकर कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! चैत्यवंदन करूं ?” गुरु कहे- ' करेह' सब जणे कहें- 'इच्छं' | बाद गुरु आज्ञासे कोई भी साधु या | श्रावक जय तिहुअणकी पहलेकी ५ गाथा और अंतकी २ गाथा कहे, पीछे गुरु “जय महायस ! " इत्यादि २ गाथा कहें, अथवा जय तिहुअणकी गाथायें तथा जय महायस ! ये दोनों गुरु ही कहें, बाद नमुत्थुणं कहकर | सवेरे (राइय पडिक्कमणेके अंतमें जैसे ४ थुइसे देववंदन करनेका कहा है उस ) की तरह ४ थुइसे देववंदन करे, | जिसमें गुरु काउस्सग्ग पारलेवे बाद जिस साधु या श्रावक ने आदेश लिया हो ? वह काउस्सग्ग पारकर पहले तथा छेल्ले नमोऽर्हत्० कहे, और बीचकी दो थुइयों में नमोऽर्हत्० न कहते हुए ४ थुइयां कहे, बाद दूसरे सब साधु - श्रावक काउस्सग्ग पारें । देववंदन कर चुके बाद बैठकर नमुत्थुणं कहकर ४ खमा०
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साधुसाध्वी ॥ २५॥
देवे-पहला खमा० देकर 'आचार्य मिश्रं' १ । दूसरा खमा० देकर उपाध्याय मिश्रं २ । तीसरा खमा० देकर वर्तमान गुरून्' ३ । चौथा खमा० देकर ‘सर्व साधून्' ४ । कहे। बाद मस्तक नमाकर दोनों हाथोंसे मुंहपत्ति मुख आगे लगाकर गोडों से बैठा हुआ “सव्वस्स वि देवसिय दुचिंतिय दुम्भासिय दुञ्चिट्ठिय मिच्छामि दुकडं" कहे। बाद खडे होकर चारित्राचारकी शुद्धिके लिये करेमि भंते ! इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे देवसिओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० कहकर काउस्सग्ग करे, उसमें "सयणासणऽन्नपाणे०" इस गाथाको अर्थ । सहित १ बार अथवा मूल ३ वार चिंतवे, पारकर प्रगट लोगस्स कहे, बैठकर तीसरे आवश्यककी मुंह-2 पत्ति पडिलेहकर २ वांदणे देवे, बादमें कहे-'इच्छा० संदि० भग० ! देवसियं आलोउं ?' गुरु कहे
आलोएह' वाद-"इच्छं आलोएमि जो मे देवसिओ०” तथा “ठाणे कमणे चंकमणे०" कहे, बाद गुरु "सव्वस्स वि०" बोलदेवे पीछे शिष्यभी “सव्वस्स वि०” इत्यादि बोलता हुआ "इच्छा० संदिसह" तक कहे, वाद गुरु कहे- “पडिक्कमह" शिष्य कहे “मिच्छामि दुक्कडं"। बाद जीमणा गोडा ऊंचा करके बैठकर ओघा तथा मुहपत्ति दोनों हाथोंसे पकडकर मुंहपत्ति मुखपर लगाकर शिष्य कहे 'भगवन् ! सूत्र कड्ढू ?'
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साधुसाध्वी गुरु कहे 'कड्ढेह' शिष्य 'इच्छं' कहकर १-१ अथवा ३-३ नवकार तथा करेम भंते० ! कहकर "चत्तारि॥२६॥ मंगलं" आदि तीन आलावे कहे, बाद "इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ०" तथा "इच्छामि पडिक्क
मिउं इरियावहियाए०" कहकर राइय पडिक्कमणेकी तरह पगामसिज्जाए कहे, तीन जगह देवसीका पाठ 2 उपयोग रख कर बोले और २ बार वांदणे देकर अभ्भुटिया खमाकर फिर २ वांदणा देवे।
यदिश्रावकभी साथ हो? तो "आयरिय उवज्झाए" कहे अन्यथा न कहे बाद चारित्राचारकी शुद्धि । * के लिये करेमि भंते० ! इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे देवसिओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० कहकर दो लोगस्स है * का काउस्सग्ग करे, पारकर दर्शनाचारकी शुद्धिके लिये प्रगट लोगस्स० सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं० अन्नत्य कहकर १ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारकर ज्ञानाचारकी शुद्धिके वास्ते पुख्खरवरदीवऽड्ढे० सुअस्स भगवओ , करेमि काउस्सग्गं०वंदणवत्तिआए०अन्नत्य कहकर फिर १ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारकर सिद्धाणं बुद्धाणं. कहकर 'सुयदेवयाए करेमि काउस्सग्गं' अन्नत्थ० कहकर १ नवकारका काउस'ग करे, गुरु पारकर नमोऽर्हत्० ॥२६॥ कहकर “सुवर्णशालिनी देयात्, द्वादशांगी जिनोद्भवा । श्रुतदेवी सदामह्य,-मशेषः श्रुतसम्पदम् ॥ १॥
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साधुसाध्वी
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यह अथवा “सुयदेवयाए भगवई०" यह थुइ कहे, बाकी सबजणे थुइ सुणकर काउस्सग्ग पारें, बाद 'खित्त देवयाए करेमि काउस्सग्गं' अन्नथ० कहकर १ नवकारका काउस्सग्ग करे, पारकर नमोऽर्हत्० कहकर - "यासां क्षेत्रगताः संति, साधवः श्रावकादयः । जिनाज्ञां साधयंतस्ता, रक्षंतु क्षेत्रदेवता ॥१॥ " यह थुइ अथवा "जीसेखित्ते साहु०" यह थुइ कहे, बाद सबजणे पारकर प्रगट १ नवकार कहें, बैठकर छट्टे आवश्ककी मुहपत्ति पडिलेहकर २ वांदणे देवे, गुरु 'इच्छामो अणुसट्ठि' कहकर गोडों से बैठकर अथवा डाबा गोडा ऊंचा करके | आसन उपर बैठकर नमोर्हत्० कहकर " नमोऽस्तु वर्द्धमानाय " (१) की एक गाथा कह देवे बाद सबजणे 'नमो खमासमणाणं नमोऽर्हत्०' कहकर " नमोऽस्तु वर्द्धमानाय" की ३ गाथा कहें। बाद गुरु खमा० देकर यदि स्तवन खुदही बोलें ? तो 'इच्छा० संदि० भग० स्तवन भणुं ?, कहें और यदि अन्य साधु या श्रावकको आदेश देवें ? तो 'इच्छा० संदि० भग० स्तवन सांभलं' कहें, बाद सब जणे खमा० देकर स्तवन बोलने
(१) " नमोऽस्तु वर्द्धमानाय " के बदले साध्वियां "संसार दावा" कहती है, उसकी मी १ गाथा पहले गुरुणी बोल देवे बाद दूसरी साध्वियां तीनों गाथा कहें।
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विधि -
संग्रह:
॥ २७ ॥
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साधुसाध्वी वाला तो-'इच्छा० सदि० भग० स्तवन भणुं ?' कहे और दूसरे सबजणे 'इच्छा० संदि० भगः स्तवन - ॥२८॥ साभलं ? ' कहें । यदि दूसरेको आदेश दिया हो ? तो गुरु 'भणेह सुणेह' कहें और यदि दूसरेको आदेश न है
दिया हो ? तो केवल 'सुणेह' ऐसाही कहें. बाद स्तवन बोलनेवाला नमोऽर्हत्० कहकर ११ गाथासे लगाकर एक || सो आठ गाथा तकका कोईभी भगवानका स्तवन (२) कहे, कितनेएक "वर कनक शंख विद्रुम" यह गाथा भी पीछेसे कहते हैं, बाद पहला खमा० देकर 'आचार्य मिश्रं' । दूसरा खमा० देकर 'उपाध्याय मिश्रं' तीसरा खमा० देकर 'सर्व साधून्' कहे ।
• विशेष-विधि:बाद चौथा खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! देवसिय पायच्छित्त विसोहणत्थं काउस्सग्ग करूं,? इच्छं देवसिय पायच्छित्त विसोहणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०' कहकर ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारकर
प्रगट लोगस्स कहे। बाद खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग०! 'खुद्दोवद्दव ओहडावणत्थं काउस्सग्ग करूं? इच्छं 3 (२) विहारके दिन तथा पख्खी चौमासी और संवच्छरीके पहले दिन स्तवनकी जगह “उल्लासिकम” स्तोत्र कहनेकी आज कल
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॥२८॥
प्रवृत्ति है।
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साधुसाध्वी
॥ २९ ॥
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खुद्दोवद्दव ओहडावणत्थं करेमि काउस्सग्गं' अन्नत्थ० कहकर ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारकर प्रगट लोगस्स कहे। फिर खमा० देकर सज्झायके २ आदेश बोले, बाद गुरु अथवा गुरुने जिसको आदेश दिया। हो ? वह साधु सज्झाय ( १ ) कहे। बाद खमा० देकर इच्छा० संदि० भगवन् चैत्यवंदन करूं ? इच्छं कहकर 'श्रीसेढी तटिनी तटे" यह चैत्यवंदन कहकर नमुत्थुणं० जावंति चेइयाई० जावंत केवि साहू ० नमोऽर्हत्० कहकर "उवसग्गहरं ० " अथवा पार्श्वनाथस्वामीका छोटा स्तवन कहे और जय वीयराय ! कहे, बाद “ सिरिथंभणयद्विय पास" इत्यादि २ गाथा कहकर बंदणवत्तिआए० अन्नत्थ० कहकर ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, | पारकर प्रगट लोगस्स कहे । खमा० देकर 'श्रीचतुरशीति गच्छ शृंगारहार जंगम जुगप्रधान भट्टारक दादाजी श्रीजिनदत्तसूरिजी चारित्र चूडामणि आराधना निमित्तं करोमि काउस्सग्गं, अन्नध०' कहकर १ लोगस्सका
(१) जिस दिन विहार करके दूसरी जगह में जाय ? उस दिन तथा पख्खी, चौमासी और संवच्छरीके पहिले दिनतो धम्मो मंगल की १७ गाथा कहे और परश्री, चौमासी तथा संवच्छरीके दिन ५ गाथा कहे, अन्य दिन खुशी आवे सो सज्झाय कहे ।
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विधि संग्रह:
॥ २९ ॥
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साधुसाध्वी काउसग्ग करे, पारकर प्रगट लोगस्स कहे फिर खमा ० देकर 'श्रीचतुरशीति गच्छ शृंगारहार जंगम जुगप्रधान ॥ ३० ॥|| भट्टारक दादाजी श्रीजिनकुशलसूरिजी चारित्र चूडामणि आराधना निमित्तं करोमि काउसग्गं' अन्नत्य कहकर
? लोगस्सका काउसग्ग करे, पारकर, प्रगट लोगस्स कहे।फिर खमा ० देकर 'अविधि आशातना हुई होय ते सवि . हुमने वचने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं' कहे॥
११-राइय-संथारा-पोरिसी-विधिःa एक साधु खमा० देकर कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! बहुपडिपुन्ना पोरिसी' गुरु कहे 'तहत्ति' । वाद सब जणे *
खमा ० देके इरियावही पमिकमे, खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग०! राइय संथारा मुहपत्ति पडिलहुं ? , इच्छं। कहकर मुहपत्ति पडिलेहें, बाद खमा० देकर 'इच्छा ० संदि० भग० ! राइय संथारा संदिसाउं?' 'इच्छं इच्छामि खमा०'इच्छा० संदि० भग! राइय संथारा ठाउं ? इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा०संदि० भग०! चैत्यवंदन करूं? | इच्छं' कहकर “ चउक्कसाय" तथा- "अहंतो भगवंत इंद्रमहिता" यह श्लोक बोलकर नमुत्थुणं ० जावंति चेइया-15॥३०॥ इ० जावंत केवि साहू० नमोऽहत् उवसग्गहरं० तथा जय वीयराय ! कहे, बाद "निसिही३ नमो खमासमणाणं
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साधुसाध्वी
॥३१॥
गोयमाइणं महामुणिणं " इस तरह कहकर ३ नवकार तथा ३ करेमि भंते ! कहे, बाद "अणुजाणह जिहिज्जा, अणुजाणह परमगुरु !” इत्यादि पोरिसीकी गाथा कहकर ३ नवकार गिणे॥
१२-पाक्षिकादि-प्रतिक्रमण-विधिःपक्खी, चौमासी और संवच्छरी तीनोंमें चैत्यवंदनके समय जय तिहुअणकी तीसों [३०] गाथा कहनी, और थुइयोंकी जगह "वेंद्रेकि” ये थुइयां कहनी, बाकी पगामसिज्जाए कहने तक सब देवसीय पमिकमणेका विधि करना, पगामसिजाए कह चुके बाद खमा०देकर 'देवसियं आलोइयं पडिकंतं इच्छा० संदि० भग० ! (२) पक्खी+ मुहपत्ति पडिलहुं ?, इच्छं' कहकर मुहपत्ति पडिलेहकर दो वांदणे देवे, बाद वृद्ध साधु कहे 'पुन्यवंतो || बवेसीने स्थानके पक्खी+ भणजो, छींक जयणा करजो, मधुर स्वरे पडिकमजो दूसरे सब जणे कहें 'तहत्ति' बाद दो वांदणे (२) देकर खड़े होकर इच्छा ० संदि० भग० ! संबुद्धा खामणणं अब्भुटिओमि अभितर पक्खिय
(१) जहां जहां+ऐसी चीकडिकी निशानी है वहां वहां सब जगह चौमासी हो? तो चौमासीका और संवच्छरी हो? तो संवच्छरी का नाम लेना। (२) दो बांदणे देते समय पक्खीमें - " पक्खो वइकतो-पक्खियं वहक्कम -पक्खियाए आसायणाए"। चौमासीमें - "चोमासी
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॥३१॥
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साधुसाध्वी
॥ ३२ ॥
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खामेउं ? इच्छं खामोम पक्खियं (१) "एगस्स पख्खस्स, पनरसण्हं दिवसाणं, पनरसण्हं राईणं, जं किंचि अप्पत्ति| यं" इत्यादि पहले गुरु खमा लेवे बाद शिष्यभी पख्खी चौमासी और संवच्छरीमें अनुक्रमसे गुरु आदि तीन पांच और सात साधुओंको इसी तरह खमावे, इसमें यह खयाल रखना कि - पक्खी चौमासी और संवच्छरी तीनोंमें अनुक्रमसे तीन पांच और सात साधुओंको खमाते हुए अंतमें कमसे कम दो साधु बाकी रखने
वइक्कता - चोमासियं वइक्कमं चोमासियाए आसायणाय " । संबच्छरीमें- “सवच्छरो वइकंतो-संवच्छरियं वइक्कमं- संवच्छरियाए आसा यणाए " । इस तरह तीनों जगह पर उपयोग रख कर पक्खी, चौमासी वा संवच्छरी जो होवे ? उसका नाम बोलना ।
(१) चौमासीमै - " चोमासियं खामेउं ? इच्छं खामेमि चोमालियं " कहकर यदि चार [४] महिनों का चौमासा होवे ? तो " चउ. हूं मासाणं, अट्टहं पक्खाणं वीसुत्तरसय [१२० ] राइंदियाणं " कहकर "जं किंचि मपत्तियं " आदि कहे, और यदि पांच [५] म| दोनोंका चौमासा हो ? तो " पंचण्डं मासाणं, दसवहं पख्खाणं, पन्नासुत्तरस्य [ १५० ] राइंदियाणं " कहकर " जं किंचि अपत्तियं" आदि कहे, संवच्छरीमे- “संवच्छरियं खामेउं ? इच्छं खामेमि संवच्छरियं " कहकर जिस वर्षमे १२ महिने हुए होवे ? उस वर्ष में "बारसण्डं मासाणं, चडवसण्डं पक्खाणं, तिन्निसय लट्ठि [ ३६० ] राइंदियाणं " कहकर " जं किंचि अपत्तियं " आदि कहे और जिस वर्ष में १३ महिने हुए हो ? उस वर्ष में " तेरसण्हं मासाणं, छब्बीसण्हं पख्खाणं, तिन्निसयनउई ( ३९०) राईदियाणं कहकर "जं किंचि अप्पात्तयं " कहे। पत्तेय ब्रामणेणं और समाप्त खामणेणंमें भी इसी मुजब समझना
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"
विधि
संग्रह:
।। ३२ ।।
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साधुसाध्वी । ___ बाद खडे होकर आसनके पिछले भागमें जाकर 'इच्छा०संदि० भग०! पक्खियं (१) आलोउं ? इच्छं। ॥३३॥ आलोएमि जो मे पक्खिओ०' इत्यादि : मिच्छामि दुक्कडं ' तक कहकर 'इच्छा० संदि० भग०! पक्खि (२) ३ सय
अतिचार आलोउं ? ' ऐसा कहकर अतिचार कहे, बाद श्रावकोंके अतिचार श्रावक कहें, बाद में गुरु कहें
___ एवं कारे साधुतणे धर्मे एकविध असंजम तेत्रीश आशातना प्रमादपद पर्यंत मूलगुण उत्तरगुण एकसो । चालीस अतिचार [ श्रावक (३) तणे धर्मे समकीत मूल बारे व्रत एकसो चौवीस अतिचार] मांहिं जे कोइ । अतिचार पक्ष (४) दिवस माहिं सूक्ष्म बादर जाणतां अजाणतां हुओ होय ते सवि हु मने वचनें कायाए । करी मिच्छामि (५) दुक्कडं ।"
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(१) चौमासी में 'चोमासियं आलोउं ? इच्छं आलोएमि जो मे चोमासिओ' इत्यादि कहे, और संवच्छरी में 'संवच्छरियं आलोउ ? ४ इच्छं आलोएमि जो मे संवच्छरिओं' इत्यादि कहे। (२) चौमासी में चौमासी का और संवच्छरी में संवच्छरी का नाम बोलना ।
(३) श्रावक साथमें होवे ? तो यह ब्राकिटमें का पाठ बोलना, अन्यथा नहीं। (४) चौमासी हो? तो "चौमासी दिवस माहि" और संवच्छरी हो? तो "संबच्छरी दिवस माहि" कहना । (५) साधु श्रावक सब जणे "मिच्छामि दुकडे" कहें।
॥३३॥
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साधुसाध्वी बाद गुरु “ सव्वस्स वि (१) पक्खिय" इत्यादि कह देवे पीछेसे शिष्य "सव्वस्स वि पक्खिय” इत्यादि विधि॥ ३४॥ बोलता हुआ "इच्छा० संदिसह" तक कहे, बाद गुरु 'चउत्थेण (२) पडिकमह' कह देवे पीछे शिष्य कहे
तस्स मिच्छामि दुक्कडं बाद दो वांदणे देवे और 'इच्छा० संदि० भग०! देवसियं आलोइयं पडिकंतं पत्तेय खामगणं अभ्भुडिओमि अम्भितर पक्खियं खामेउं ?, इच्छं खामेमि पख्खियं इत्यादि संबुद्धा खामणेणंकी तरह पहले
गुरु खमा लेवे बाद शिष्यभी अपनेसे बड़े सब साधुओंको इसी मुजब अभ्भुडिया खमावे, श्रावकोंके साथभी । 15 मुह जबानीसे क्षमत क्षामणे करे, दो वांदणे देकर ' इच्छा० संदि० भग०, देवसियं आलोइयं पडिकंतं .
पख्खियं (३) पडिक्कमावेह' गुरु कहे ' सम्म पडिक्कमह ' शिष्य कहे- 'इच्छं'। बादमें जिसने पक्खिसूत्र । बोलने का आदेश लिया हो? वह साधु करेमि भंते! तथा 'इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे पख्खिओ (४)' इत्यादि ।
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॥३४॥
(१) चौमासी में "चोमासिय" और संवच्छरी में “संवच्छरिय" कहना (२) चौमासी में “छट्टेण०" और संवच्छरी में "अट्टमेण" | साना (३) चौमासी में "चौमासियं पडिकमावेह" और संवच्छरी में "संवच्छरियं पडिक्कमावेह कहना । (४) चौमासी में "चोमा-|
सिओ" और संवच्छरी में "संवच्छरीओ" कहना ।
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साधुसाध्वी 2 कहे, बाद खमा० देकर 'इच्छा ० संदि ० भग • ! पख्खी (१) सूत्र संदिसाउं ? इच्छं इच्छामि खमा - विधि॥ ३५॥ इच्छा० संदि० भग० ! पख्खी सूत्र कड्ढुं ? इच्छं' कहकर ३ नवकार गिण कर पख्खी सूत्र कहे, जो सुनने A संग्रहः
वाले होवे ? वे तस्सउत्तरि०तथा अन्नत्थ० कहकर काउसग्गमें खड़े खड़े सुणे, यदि खडे रहने की शक्ति न हो ? तो बैठकर सुणे, पक्खी सूत्र बोल जाने के बाद “ सुयदेवया भगवइ ” यह गाथा बोलने के समय सब जणे . खड़े होकर काउसग्ग पारकर ३ नवकार गिणे, बादमें बैठकर ३ नवकार ३ करोमि भंते ! तथा “ चत्तारि I मंगलं० " आदि कह कर " इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे पख्खिओ " तथा " इच्छामि पडिकमि इरियावहियाए” कहकर पगामसिजाए (२) कहे। खमा ० देकर कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! मूलगुण उत्तर गुण अतिचार विशुद्धि निमित्तं काउस्सग्ग करूं?' गुरु कहे-'करेह' बाद 'इच्छं' कहकर करेमि भंते! इच्छामि ठामि |
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(१)चौमासी में “चौमासी सूत्र" और संवच्छरी में “संवच्छरी सूत्र" बोलना । (२) पहले और तीसरे आलावेके अंतमें"जो मे पख्खिओ, जो मे चोमासिओ, जो मे संवच्छरिओ०" इत्यादि तथा "तस्स धम्मस्स" कहकर खड़े हुए बाद "तस्स सव्वस्स पख्खियस्स, तस्स सव्वस्स चोमासियस्स, तस्स सव्वस्ससंवच्छरियस्स" इत्यादिमें पख्खी, चौमासी या संवच्छरी जो होवे ? उसका नाम बोलना।
॥३५॥
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॥ ३६ ॥
०
साधुसाध्वी है काउस्सग्गं जो मे पक्खिओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० कहकर १२ लोगस्सका (१) काउसग्ग करे, पारकर प्रगट लोगस्स कह कर पख्खी समाप्त मुहपत्ति पडिलेहे, दो वांदणे देवे, बाद 'इच्छा • संदि • भग ० समाप्त खामणेणं अभ्भुट्टिओम अभिभंतर पख्खियं खामेउं ? इच्छं खामेमि पख्खियं ' इत्यादि पहलेकी तरह गुरु खमा लेवे बाद शिष्यभी पक्खी, चौमासी और संवच्छरीमें अनुक्रम से गुरु आदि तीन पांच तथा सात साधुओंको खमावे | बाद ' इच्छा० संदि० भग० ! पख्खी समाप्त खामणा खामुं?' ऐसा पहले गुरु बोल जाय पीछे शिष्य भी इसी मुजब कहे, बाद गुरु कहे। | मुजब ४ खामणे खमावे.
खामेह ' शिष्य ' इच्छं ' कहकर आगे लिखे
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खमा० देकर गोडोंसे बैठा हुआ डाबे हाथसे मुहपत्ति मुखपर लगाकर जीमणा हाथ गुरुके सामने ओघेके उपर स्थापन कर “इच्छामि खमासमणो पियं च मे जं भे" इत्यादि पहला खामणा पूरा कहे, बाद गुरु कहें- “तुम्भेहिं समं” दूसरा खमा ० देकर "इच्छामि खमासमणो पुव्वि चेहयाई वंदित्ता” इत्यादि दूसरा (१) चौमासी में २० लोगस्स का और संवच्छरीमें ४० लोगस्स तथा ऊपर एक नवकारका काउसग्ग करना ।
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साक्षसाची खामणा कहे, बाद गुरु कहे- "अहमवि वंदामि चेइयाई "। तीसरा खमा ० देकर " इच्छामि खमासमणो ॥३७॥ अभ्भुडिओमि तुभ्भण्हं संतियं” इत्यादि तीसरा खामणा कहे, बाद गुरु कहे- “ आयरिय संतियं " । चौथा -
खमा० देकर "इच्छामि खमासमणो अहमवि पुव्वाई" इत्यादि चौथा खामणा कहे, बाद गुरु कहे "नित्थारग पारगा होह" बाद खड़े होकर कहे- 'इच्छकारी भगवन् ! पसाय करी पक्खी तप (१) प्रसाद करावोजी | गुरु कहे 'पुन्यवंतो ! पक्खीने (२) लेखे १ उपवास, २ आयंबिल, ३ निवी, ४ एकासणा, ८ बियासणा, वे हजार सज्झाय करी १ उपवासनी पयठ पूरजो' । जिन्होंने उपवास किया हो ? वे तो कहें-'पयडिओ अन्य सब जणे कहें - 'तहत्ति '। बाद गुरु कहे- 'पक्खियं (३) समत्तं, देवसियं भणिज्जाहि ' सब जणे कहें- 'इच्छामो अणुसहि।
(१)-चौमासी अथवा संवच्छरी हो? तो उनका नाम लेना । (२) चौमासी में - "चौमासी ने लेने २ उपवास, ४ आयंबिल, निवि, ८ एकासणे, १६ बियासणे चार हजार सज्झाय करी बे उपवासनी पयठ पूरजो" ऐसा कहे। संवच्छरी में-"संवच्छरी ने लेने ३२ उपवास, ६ आयंबिल, ९ निवी, १२ एकासणे, २४ बियासणे छ हजार सज्झाय करी तीन उपवासनी पयठ पूरजो ऐसा कहे । (३) चौमा-4॥३७॥ मासी में "चौमासियं समत्तं" और संवच्छरीमें "संवच्छरियं समत्तं" कहना ।
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साधुसाध्वी
॥ ३८ ॥
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आषाढ चौमास में खमा • देकर 'इच्छा • संदि • भग • ! पीठफलग संदिसाउं ? इच्छं इच्छामि खमा ०, इच्छा ० संदि ० भग ! पीठ फलग पडिग्गहुं ? इच्छं' ऐसा कहना, और कार्त्तिक चौमासीमें खमा ० देकर कहे 'इच्छा० संदि • भग ० ! पीठफलग विसर्जू ? ' गुरु कहे- ' विसर्जेह' बाद 'इच्छे' कहना, पक्खी तथा फागण चौमासी और संवच्छरीमें ये आदेश नहीं कहने ।
०
बाद दो बांदणे देकर अम्भुट्टिया खमाना आदि हमेशां की तरह देवसिय पडिकमणेका सब विधि करना, इतना विशेष है कि - सुयदेवी और क्षेत्रदेवी के काउसग्गके बीच में 'भवण देवयाए करोमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ'० कहकर नवकारका (१) काउसग्ग करे, गुरु पार कर नमोऽर्हत् • कहकर " ज्ञानादिगुण युतानां” यह थुई कहे, ऐसे 'प्रतिक्रमण हेतु गर्भ' आदिकमें कहा है। सुयदेवी की थुइ "कमलदल विपुलनयना, कमल मुखी कमलगर्भसमगौरी | कमले स्थिता भगवती, ददातु श्रुतदेवता सौख्यम् " १ | और क्षेत्र देवीकी थुइ
०
(१) - बिहार के दिन भी सुयदेवी और क्षेत्र देवीके बीच में भवण देवी का काउसग्ग करे, परंतु थुई " चतुवर्णाय संघाय, देवी भवनवासिनी । निहत्य दुरितान्येषा, करोतु सुखमक्षतम् १।” यह कहे ।
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साधुसाध्वी ||६||" यस्याः क्षेत्रं समाश्रित्य" यह कहना, " नमोऽस्तु वर्द्धमानाय " के तीनों श्लोक गुरु बोल जाये बाद सब जणे विधि
बोलें। स्तवन की जगह पर अजिसंता कहें।खुद्दोबद्दव० काउस्सग्ग करे वादे खमा० देकर इच्छा० संदि० भग०! असज्झाइय (१) अणाउत्त ओहडावणऽत्थं काउम्सग्गं करूं?, इच्छं असल्झाइय अणाउत्त ओहऽडावणऽत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्य० कहकर ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पार के प्रगट लोगस्स कहे, बाद सज्झाय करे, सज्झाय || में धम्मो मंगल की ५ गाथा कहें, पार्श्वनाथ स्वामी का चैत्यवंदन करते हुए स्तवन के बदले उवसग्गहरंही कहना ||
___ १३- छींकदोष निवारण विधिःपख्खी-चौमासी अथवा संवच्छरी मुहपत्ती पडिलेहणेसे लगाकर अंतमें ४ खामणे खामे वहांतक (१) संवच्छरीमें तो असनायका काउस्सग्ग करना ही नहीं “पख्खी तथा चौमासी में यदि असज्झाय न होवे ? तो असज्झाय का काउसग्ग करना चाहिये," ऐसा समाचारी शतकमें कहा है, इससे यह समझा जाता है कि आषाढ और कार्तिक चौमासी में तो हमेशा १६ पहोरका असज्झाय होता है वास्ते असज्झायका काउसग्ग नहीं करना और फागण चौमासीमें-चौमासीके दिनही लोकमें यदि होली सलगाइ जाय ? तो उस दिन काउस्सग्ग नहीं करना, परन्तु चौमासी के दूसरे दिन यदि होली सलगाइ जाय ? तो चौमाके दिन असज्झायका काउस्सग्ग जबर कर लेना. अन्य पख्खी के दिन यदि किसी तरहका असज्झाय न दोघे ? तो करना, अन्यथा नहीं करना ।
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मीर
साधुसाध्वी या एक मंडलीके साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाओंमें से यदि किसी को छींक होवे ? तो पडिकम्मणा पूरा होने के बादशी ॥४॥ आगे लिखे मुजब तीन काउस्सग्ग करने-खमा० देकर 'इच्छा ० संदि • भग • ! अपशकुन दुनिमित्तादि
ओहडावण निमित्तं काउस्सग्ग करूं ?, इच्छं अपशकुन दुनिमित्तादि ओहडावण निमित्तं करेमि काउस्सग्गं, | * अन्नत्थ०' कहकर १ नवकार का काउस्सग्ग करे, पारकर प्रगट १ नवकार कहे । दूसरा खमा० देकर फिर है,
इसी मुजब २ नवकार का काउस्सग्ग करके प्रगट २ नवकार कहे । तीसरा खमा० देकर ऊपर लिखे मुजब है ही ३ नवकारका काउस्सग्ग करके प्रगट ३ नवकार कहे।
इस प्रकार ये तीन काउसग्गतो पडिक्कमणा करने वाले सब जणे करें, और जिसको छींक हुई हो ? उसके वास्ते यह है कि-छींक यदि पक्खी में होवे ? तो १५ दिन तक, चौमासीमें होवे ? तो ४ महिने तक और संवच्छरी में होवे ? तो १ वर्ष तक अपनी शक्ति के अनुसार कुछ विशेष तपस्या भी करनी चाहिये ॥
१४- मार्जारी मंडली प्रवेश दोष निवारण विधिःपांचों पडिक्कमणोंमेंसे कोईभी पडिकमणा करते हुए स्थापनाचार्य और पडिककमणा करने वालों के
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साधुसाध्वी र बीचमेंसे यदि बिल्ली निकले ? तो उसी समय आगे लिखा हुआ विधि करना-
॥ ४१ ॥
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"जा सा काली कब्बडी, अख्खहि कक्कडियारी । मंडल माहे संचरी हय पडिहय मज्जारी ॥ १ ॥" यह संपूर्ण गाथा १ वार कहे और इसीका चौथा पद ३ वार कहे, बाद खमा० देकर ' इच्छा० संदि० भग० ! खुद्दोवद्दव ओहडावणत्थं काउस्सग्ग करूं ?, इच्छं, खुद्दोवद्दव ओहडावणत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ० कहकर ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारकर प्रगट लोगस्स कहकर शांति कहे । अथवा पडिकमणा पूरा होजाने के बाद छींकके विधिमें कहे अनुसार अपशकुनादि निमित्त तीन (३) काउस्लग्ग करे, बाद उपर लिखी गाथा तीन (३) वार पूरी कहे और डावे पैरसे जमीन को दबावे ॥ १५- द्वादशावर्त्त वंदना विधिः
गुरुके आगे आधा नमकर "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !, ( ( १ ) लाभ ), कह लेसहं ?, (जह गहियं पुव्व साहूहिं), आवस्सियाए, (जस्स य जोगो), सिज्जातर ?, (अमुक)" इतना कहे बाद खमा० देकर (१) ये ब्राकीट () में के शब्द तो गुरुके बोलनेके हैं और ब्राकीट से बाहर के शब्द शिष्य के बोलनेके हैं।
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विधि -
संग्रह:
॥ ४१ ॥
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॥ ४२ ॥
साधुसाध्वी राइमुहपत्ति पडिलेहे और दो वांदणे देवे, बाद 'इच्छा० संदि० भग० ! राइयं आलोउं ?' इच्छं आलोएमि जो मे राइओ० कहकर " सव्वस्स वि राइय" इत्यादि कहे, बाद दो वांदणे देकर दो खमासमण देवे और " इच्छकार सुहराइ " कहकर खमा ० देकर अभ्भुडिया खमाकर दो वांदणे देकर पञ्चखाण करे, बाद खमा० देकर 'इच्छा' संदि० भग० ! बहुवेल संदिसाउं ?' इच्छं इच्छामि खमा० ' इच्छा० संदि० भग० बहुवेल करूं ?' इच्छं, कहकर खमा ० देवे |
१६- पाक्षिकादि गुरुवंदना विधि:
जिन साधुओंने पक्खी, चौमासी अथवा संवच्छरी पडिकमणा गुरुसे जुदा किया हो ? वे साधु दूसरे दिन सवेरे गुरु के सामने इरियावही पडिक्कमकर खमा ० देकर राइ मुहपत्ति पडिलेहें, दो वांदणे देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! राइयं आलोउं ?' इच्छं आलोएमि जो मे राइओ० कहकर " सव्वस्स वि राइय" इत्यादि कहें। खमा० देकर पक्खी, चौमासी अथवा संवच्छरी मुहपत्ति पडिलेहकर दो वांदणे देकर 'संबुद्धाखामणेणं
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विधिसंग्रह:
॥ ४२ ॥
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साधुसाची अभ्भुट्टिया खमा, बाद 'इच्छा० संदि० भग० ! पक्खियं आलोउं ? ' इच्छं आलोएमि जो मे पक्खिओ है ।। ४३ ॥ कहकर "सव्वस्स वि पक्खिय” इत्यादि कहें। फिर दो वांदणे देकर 'इच्छा० संदि० भग० !' राइयं आलोइयं संग्रहः
पडिकतं पत्तेयखामणेणं अभ्भुडिओमि अभ्भितर पक्खियं खामेउ' ? इत्यादि जिसतरह पक्खी आदि पडि. कमणों में खमाते हैं उसी तरह पत्तेयखामणेणं अभ्भुट्टिया खमावे, दो वांदणे देकर 'इच्छा० संदि० भग० !|| राइयं आलोइयं पडिक्कतं पक्खियं पडिक्कमावेह' कहे, गुरु. कहे-'पडिक्कमेह' बाद 'इच्छं' कहकर करेमि भंते ! 8 तथा "इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे पक्खिओ०" कहे, बाद पक्खी, चौमासी अथवा संवच्छरी समाप्त मुहपत्ति ६ पडिलेहकर दो वांदणे देवें और समाप्त खामणेणं अभ्भुठिया खमावें, बाद खमा० देकर “पियं च मे जं भे" इत्यादि ४ खामणे खमावें, बाद 'इच्छकारी भगवन् ! पसायकरी पक्खी, चौमासी या संवच्छरी तप प्रसाद करावोजी' ऐसा कहें, बाद गुरु पक्खी, चौमासी, संवच्छरीके लेखे-१-२-३ उपवास' इत्यादि कहें।। राइ वांदणे देकर दो खमा० देवे और "इच्छकार सुहराइ” कहें, खमा० देकर राइ अम्भुट्टिया खमावें, वांदणे देकर पञ्चख्खाण करें, बाद दो खमा० देकर 'बहुवेल संदिसाउं? बहुवेलकरूं?' ऐसा कहें ॥
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साधुसाध्वी
॥४४॥
१७-सचित्त-अचित्त रज ओहडावण विधिःदेवसी पडिक्कमणा होजानेके बाद खमा० देकर 'इच्छा०संदि० भग० ! सचित्त अचित्त रज ओहडावणऽत्य संग्रहः काउस्सग्ग करूं ?, इच्छं सचित्त अचित्त रज ओहडावणऽत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ०' कहकर ४ लोगस्सा का काउस्सग्ग करके, पार कर प्रगट लोगस्स कहे । वर्ष भरमें एक बार चैत्र सुदी ग्यारस, वारस और है। तेरस अथवा बारस, तेरस और चौदस अथवा तेरस, चौदस और पूनमके दिन यह काउस्सग्ग करना चाहिये। कदाचित् ग्यारस और बारसके दिन भूल जावे ? तो भी तेरस, चौदस और पूनमके दिन तो जरूर ही करना है चाहिये, यदि तेरसके दिन भी भूलजाय ? तो दूसरे वर्षकी चैत्री पूनम तक जब रजोवृष्टि होवे तब सूत्र ) पढना, सज्झाय करना नहीं कल्पता, ऐसा आवश्यक बृहद्वृत्ति वगेरहमें लिखा है
१८-सज्झाय- निक्षेप-विधिःसाल भरमें दो वार चैत्र सुदी तथा आसोज सुदी पांचम के दिन दुपहर बाद इरियावही पडिक्कमके ॥४४॥ खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय निख्खिवणऽत्थं मुहपत्ति पडिलेहुं ?” इच्छं, कहकर मुहपत्ति है।
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साधुसाध्वी ॥४५॥
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पडिलेहे और वांदणे देवे, खमा० देकर कहे-'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय निख्खिQ? ' गुरु कहे 'निक्खिवह बाद 'इच्छं' कह कर खमा० देकर केह- 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय निख्खिवणऽत्यं काउसग्ग करूं? गुरु कहे- 'करेह' बाद 'इच्छं सज्झाय निख्खिवणऽयं करोमि काउस्सग्गं , अन्नत्थ०' कहकर १ नवकारका काउस्सग्ग करे, पारकर प्रगट नवकार १ कहे, फिर खमा० देकर अविधि आशातना खमावे ॥
१९-सज्झाय-उत्क्षेप-विधिः| कार्तिक वदी तथा वैशाख वदी एकम के बाद जिस दिन अश्विनी, भरणी, रोहिणी, आर्द्रा, पुष्य, अश्लेषा.. मघा, पूर्वा फाल्गुनी, हस्त, स्वाति, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा, श्रवण, शतभिषक्, उत्तरा भाद्रपद तथा रेवती || इनमें से कोई भी नक्षत्र होवे ?, और गुरुवार या सोमवार होवे ? उस दिन, अथवा मंगलवार और शनि-|| वार को छोड़ कर चाहे जिस वार के दिन कपडे धाकर उपासरेमें से काजा निकालकर परठे और वसति | संशोधन करे, जो कोई हाडका या कलेवर होवे ? उसको दूर हटवाकर उपासरेमें आकर सब जणे इरिया-2॥४५॥ वही पडिक्कमें, बादमें वसति संशोधन करने वाला खमा० देकर कहे 'इच्छा० संदि० भग०! वसति पवेउं ? ||
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साधुसाध्वी
॥ ४६ ॥
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गुरु कहे - ' पवेयह ' इच्छं इच्छामि खमा० देकर कहे- 'भगवन् ! सुद्धावसहि ' गुरु कहे - ' तहत्ति ' । | सब जणे खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! मुहपत्ति पडिलेहुं ? ' इच्छं, कहकर मुहपत्ति पडिलेहकर वांदणे देवे, फिर खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! छम्मासिय कप्प संदिसाउं ? ' इच्छं इच्छामि खमा० इच्छा० संदि ० भग० ! छम्मासिय कप्प पडिग्गहुं ? ' इच्छं इच्छामि खमा० ' इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय उखिखवणऽत्थं मुहपत्ति पडिलेहुँ ?, इच्छं' कह कर मुहपत्ति पडिलेह कर वांदणे देवे, खमा० देकर कहे
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इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय उख्खिनुं ?' गुरु कहे- ' उख्खिवह ' । ' इच्छं ' कहके फिर खमा० देकर कहे - ' इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय उख्खिवणऽत्थं काउसग्ग करूं ? ' गुरु कहे 'करेह ' | बाद 'इच्छं सज्झाय उक्खिवणऽत्थं करेमि काउसग्गं, अन्नत्थ० कहकर १ नवकार अथवा १ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, | पारकर प्रगट १ नवकार अथवा १ लोगस्स कहे, खमा० देकर ' इच्छा० संदि० भग० ! असज्झाइय अणाउत्त | ओहडावणऽत्थं काउसग्गकरूं ? ' इच्छं असज्झाइय अणाउत्त ओहडावणऽत्थं करोमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ० कहके * यदि काउस्सग्ग नवकार का करे तो पारके नवकार प्रगट कहे और लोगस्सका काउस्सग्ग करे तो पार के प्रगट लोगस्स कहे.
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विधि -
संग्रह:
॥ ४६ ॥
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आधुसावी || ४ लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पारके प्रगट लोगस्स कहे । फिर खमा० देकर इसी तरह 'खुद्दोवदव ओहडाव॥ १७॥ ||णऽत्थं' काउस्सग्ग ४ लोग्गस्स का करे, पारकर प्रगट लोगस्स कहे । फिर खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! || संग्रहः || सक्काइ वेयावच्चगर आराहणऽत्थं काउसग्ग करूं ?, इच्छं सकाइ वेयावञ्चगर आराहणऽत्थं करेमि काउस्सग्गं ।
अन्नत्थ०' कहकर ४ लोगस्सका काउसग्ग करे, पार कर प्रगट लोगस्स कहे, खमा • देकर इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय संदिसाउं' ? इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय करूं ?, इच्छं' कहकर गोडोंसे बैठकर १ नवकार तथा दशवैकालिक के " धम्मो मंगल" आदि तीन अध्ययन कहकर ऊपर एक नवकार गिणे, खमा० देके अविधि आशातना खमावे ।
२० लोच करने व कराने का विधिःगुरु के आगे इरियावही पडिकमकर खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! लोच मुहपत्ति पडिलेहुं ? 13 इच्छं, कहकर मुहपत्ति पडिलेहे और वांदणे देवे, खमा० देकर कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! लोच संदिसाउं?'2 II गुरु कहे- 'संदिसावेह ' 'इच्छं इच्छामि खमा०' देकर कहे- 'इच्छा ० संदि० भग० ! लोच कराउं?
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साधुसाध्वी
॥ ४८ ॥
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| गुरु कहे- ' करावेह अणुन्नायं मए ' | बाद ' इच्छं ' कहकर खमा० देवे ।
लोच करने वाला कराने वाले से यदि छोटा हो ? तो लोच करने वाला कराने वाले के आगे खमा० देकर | कहे- 'इच्छा० संदि० भग० ! उच्चासण संदिसाउं ?, इच्छं इच्छामि खमा०, इच्छा० संदि० भग० ! उच्चासण ठाउं ?, इच्छं' कहकर खमा० देवे । लोच कराने वाला करने वाले से यदि छोटा होवे ? तो लोच कराने वाला | करने वाले के आगे खमा ० देकर कहे- 'इच्छकारी भगवन् लोयं करेह' । ' इच्छं ' कहके खमा ० देवे ।
जिस दिन बुध, गुरु, शुक्र, या सोमवार होवे ? तथा पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, चित्रा, श्रवण, धनिष्ठा, मृगशिरा, अश्विनि, हस्त, इनमें से कोई भी नक्षत्र होवे ? अथवा कृत्तिका, विशाखा, मघा और भरणी इन चार [४] नक्षत्रों को छोडकर चाहे जो नक्षत्र होवे ? उस दिन लोच कराना, योगिनी [ जोगिणी ] को पूंठ में अथवा दाबी बाजु रखकर लोच कराने बैठना । एकम और नवमी को पूर्वमें, तीज और इग्यारस को अग्नि कोणमें, पाँचम और तेरसको दक्षिणमें, चौथ और बारस को नैऋत्य कोणमें, छठ और चउदसको पश्चिममें, सातम और पूनमको वायव्य कोणमें, दूज और दशमीको उत्तर में, आठम और
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साधुसाध्वी ॥४९॥
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अमावसको ईशान कोणमें योगिनी रहती है । लोच करा चुके बाद लोच करने वाले के हाथ दबावे और विधिस्थापनाचार्य के आगे इरियावही पडिक्कमे, खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! चैत्यवंदन करूं ? || संग्रहः इच्छं, कहकर "जयउ सामिय" चैत्यवंदन तथा जंकिंचि० नमुत्थुणं० जावंति चेइयाइं० जावंत केवि साहू० नमोऽर्हत्० उवसग्ग हरं० तथा जय वीयराय०! कहकर गुरुके पास आकर मुहपत्ति पडिलेहकर दो वांदणे देवे और आगे लिखे मुजब सात खमासमणे देवे१-खमा० देकर कहे - ' इच्छा० संदि० भग० ! लोच पवेउं ?' गुरु कहे- 'पवेयह'। २- इच्छं इच्छामि खमा० देकर कहे- 'संदिसह किंभणामो ?' गुरु कहे- 'वंदित्ता पवेयह'।। ३- इच्छं इच्छामि खमा० देकर कहे- 'केसा मे पजुवासिया ' गुरु कहे ' दुक्करं कयं , इंगिणी सा
हिया' बाद 'इच्छामो अणुसहिँ ' कहे ।। ४- खमा० देकर कहे- ' तुह्माणं पवेइयं संदिसह साहणं पवेएमि ' गुरु कहे- 'पवेयह ' । ५- इच्छं इच्छामि खमा० देकर तीन नवकार गिणे ।
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॥५०॥
साधुसाध्वी ६-खमा० देकर कहे- 'तुम्हाणं पवेइयं, साहणं पवेइयं, संदिसह काउसग्गं करेमि ' गुरु कहे- 'करेह'।
७- इच्छं इच्छामि खमा० देकर ' केसेसु पन्जुवासिज्जमाणेसु सम्मं जन्न अहियासिअं कुइअं कक्कराइअं| संग्रहा छिअं, जंभाइअं तस्स ओहडावणिअं करेमि काउस्सग्गं' अन्नत्थ० कहकर " सागरवरगंभीरा " तक १ . लोगस्स का काउस्सग्ग करे, पारकर प्रगट लोगस्स कहे, बाद गुरु को तथा सबी बडे साधुओं को वंदना करे।
अपने हाथ से ही यदि लोच करे ? तो लोच कर चुके बाद इरियावही पडिक्कम कर "जयउ सामिय" । * चैत्यंवदन कहकर जंकिंचि० नमुत्थुणं० आदि कहते हुए जय वीयराय ०! तक कहे। बाद गुरु आदि सबी बडे है साधुओंको वंदना करे, बाकी मुहपत्ति पडिलेहण तथा सात खमासमणे देने आदि क्रिया न करे।
२२ पंचशक्रस्तव देव वंदन विधिःपहले दोनों गोडे भूमि उपर लगा कर बैठा हुआ योगमुद्रा (१) से नमुत्थुण (२) कहे; बाद इरियावही
(१)-दोनों खुणी पेटउपर लगाके अंगुलियों के बीच में अंगुलियां डालकर दोनों हाथ जोडना और पद्म (कमलफूल ) के आकार से हाथों को रखना उसका नाम योगमुद्रा है। (२)-चैत्यवंदन बृहद्भाष्य में लिखा है कि-"समा० देकर 'इच्छा संदि० भग० ! चैत्यवंदन करूं, इच्छं' कहकर चैत्यवंदन कहे बाद नमुत्थुणं कद्दे"।
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साधुसाध्वी
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- विधिपडिक्कमकर खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! चैत्यवंदन करूं ?, इच्छं' कहकर चैत्यवंदन कहे और
कहकर पत्यवदन कह और संग्रहः किंचि० तथा नमुत्युणं० अरिहंत चेइयाणं० आदि कहकर पडिक्कमणे की तरह चार थुइसे देववंदन करे, फिर नमुथुणं० तथा अरिहंत चेइयाणं० आदि कहकर चार थुइसे देववंदन करे, बाद नमुत्थुणं० जावंति चेइयाई (१) जावंत केविसाहू० नमोऽर्हत्० कहकर स्तवन कहे, बाद जय वीयराय० ! कहकर फिर नमुत्युणं कहकर खमा० . देकर अविधिआशातना खमावे ॥
२२ -मंडली-रचना-विधिःपूर्व या उत्तर दिशा के सामने मुख करके मंडलीबद्ध बैठकर पडिक्कमणा वगेरह करना चाहिये, मंडलीकी रचना श्रीवत्स के आकारकी होती है"आयरिया इह पुरओ, दोपच्छा तिन्नि तयणु दो तत्तो। तेहिं पि पुणो इक्को, नव गणमाणाइमा रयणा॥१॥
(१) "समा० देकर जांवत केविसाहू नमोऽहत् कहकर स्तवन कदे, बाद फिर नमुत्थुणं भादि जय वीयराय ! तक कहे" यहमी चैत्यवंदन वृहद्भाध्य में लिया है।
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साधुसाध्वी
___ अर्थ-इस मंडली रचनामें आगे आचार्य बैठे, उनके पीछे दो जणे, दो के पीछे तीन जणे, तीनके विधि॥५२॥ ॥ पीछे दो जणे और दोके पीछे एक जणा बैठे, यह मंडली रचना नव साधुओं के समुदायकी है। सूत्रकी || संग्रह
वाचना लेते समय १, सूत्रके अर्थकी वाचना लेते समय२, भोजन करते वखत ३, कालग्रहण लेने में ४, ६ आवश्यक (पडिक्कमणा) करते समय ५, सज्झाय पट्ठवते या करते वखत ६ , तथा संथारा पोरिसी भणानेके , समय ७, इस रीतिसे मंडली- रचना करनी चाहिये । ००४००
सूचना:- पर्यंत आराधना विधि, महापारिद्वावणिया विधि, अंतिम देववंदन विधि और श्रावक कर्तव्य इनका संग्रह "साधु साध्वी आराधना विधि तथा अंतक्रिया विधि " नामक प्रकरण अलग छपा है, उसको श्रीमती पुण्यश्रीजी स्मारक ग्रन्थमाला ठि:-इमली वाली जैन धर्मशाला-कुन्दीगर भैरो जी की गली मु:जयपुर से मंगवा लेना.
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॥५२
॥ इति साधु-साध्वी योग्य आवश्यकीय विधि संग्रहः समाप्तः ॥ Leacanamaramanexaaaaaaaaaaaaaaaaal
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साधुसाध्वी
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आवश्यकीय-विचार संग्रहः
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कीय विचार १-काउस्सग्ग-दोष-विचार
संग्रहः काउस्सग्ग के उगणीस (१९) दोष इस मुजब हैं-घोडेकी तरह आगे पीछे पैर रखकर खडा रहे| वह 'घोटक' दोष १, पवन (वायरे)से हिलती हुइ लता (वेलडी) की तरह शरीर हिलावे वह 'लता'18 दोष २, थंभेके या भीतके सहारे से (ओठा लेकर) खडा रहे वह 'स्तंभ कुड्य' दोष ३, उपर छत वगैरह 8 के मस्तक अडाकर खडा रहे वह 'माल' दोष ४, जैसे कपडे रहित शबरि (भीलडी) दोनों हाथों से अपने है, लज्जनीय अंगको ढांकती है वैसे गुह्य (नाभि से नीचेके ) स्थान पर हाथ रखकर खडा रहे वह 'शबरि दोष ५, कलवान स्त्री की तरह मस्तक को अत्यंत नीचा नमा कर खडा रहे वह वधु' दोष (१) ६. दोनों पैर चौडे रखकर या ता भेले करके खडा रहे वह 'निगड' दोष ७, नाभिसे उपर और गोडों से नीचा चोल
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१-पगों के अंगूठे का अगला भाग देखसके वैसे नाक उपर नजर लगाकर काउस्सग्ग में खड़ा रहे।
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साधुसाध्वी पट्टा पहर कर खडा रहे वह 'लंबोत्तर' दोष ८, स्तनोंको चौलपट्टेसे ढांक दे. यानि स्तनों से उपर चोल- आवश्य॥५४॥ पट्टा पहिरकर खडा रहे वह 'स्तन' दोष ९, गाडीकी ऊधीके मुताबिक पगकी दोनों एडियां मिलाकर कीय विचार
अँगूठे जुदे जुदे रखकर अथवा दोनों अँगूठे मिलाकर एडियां जुदि जुदि रखकर खडा रहे वह 'शकटोधि , संग्रहा का' दोष १०, साध्वीकी तरह दोनों खंधोंके उपर कपडा ओढकर खडा रहे वह 'संयति' दोष ११, . लगामकी तरह ओघा आगे रखकर खडा रहे अथवा लगाम सहित घोडेकी तरह शिर (मस्तक) ऊंचा , नीचा करे वह 'खलिन' दोष १२, कागडे की तरह आंख इधर उधर हिलावे वह 'वायस' दोष १३, जू आदिके भयसे कोठके फलकी तरह गोल आकारसे शरीर के कपडे लपेट कर जंघा आदिके बीच में दबाकर खडा. रहे वह 'कपित्थ' दोष १४, भूत लगे हुए मनुष्यकी तरह शिर घूमाता हुआ खडा रहे वह ' शीर्वोत्कंपित | दोष १५, दूसरे को किसी कामकी मना करनेके लिये मूंगेकी तरह 'हुं हुं' ऐसा शब्द करे वह 'मूक' दोष १६, ६ लोगस्स अथवा नवकारकी गिणतीके लिये अंगुलि अथवा भ्र (भोपण) हिलावे वह 'अंगुलिका-भ्रु' दोषी
ॐ ॥५४॥ ६१७, भट्ठी उपर पकते हुए शराब की तरह 'बुड बुड' शब्द करे अथवा शराब पीये हुए मनुष्यकी तरह है
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साधुसाध्वी
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इधर उधर घूमता हुआ खडा रहे वह 'वारुणी' दोष १८, नवकार आदि चितवता हुआ बंदरकी तरह होठ फरकावे वह 'प्रेक्षा' दोष १९ है, इन उगणीस दोषों में से कोइ भी दोष काउस्सग्ग में नहीं लगाना चाहिये । २- वांदणे देनेका विचार
आसन के पिछले भाग पर खडे रहकर आधे नमे हुए 'इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावाणिज्जाए निसीहिआए अणुजाणह मे मिउग्गहं' इतना कहकर 'निसीहि' कहते हुए आसन के अगले भागमें आकर | संडासे पूजता हुआ जीमणे पगतरफ ओघेकी दंडी रखकर खडे पगोंसे बैठे, बाद डावे गोडे ऊपर मुहपत्ति | रखकर ओघेकी दशियों के उपर गुरुके दोनों चरणोंकी कल्पना करे, बादमें हाथ जोड कर 'अहो' का 'अ' धीरे से बोलते हुए जोड़े हुए दोनों हाथ ओघेकी दशिओं पर लगाकर जोरसे 'हो' बोलते हुए दोनों हाथ अपने ललाट (निलाड) के लगावे, यह एक आवर्त हुआ, इसी प्रकार दूसरे और तीसरे आवर्त में भी 'काय' तथा 'काय' का 'का' धीरेसे बोलते हुए दोनों हाथ ओघेकी दशिओं पर लगाकर 'यं' तथा 'य' ऊंचे स्वरसे बोलते हुए अपने ललाट को लगावे, बाद हाथ जोड़े हुए गुरुके मुखपर नजर लगाकर 'खमणिजो भे किलामो
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आवश्य कीय विचार
संग्रह:
॥ ५५ ॥
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साधुसाध्वी
RECASSRO
अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो (१) वइकतो' इतने तक कहे, बाद 'जत्ता भे' का 'ज' धीरे स्वरसे आवश्यबोलते हुए दोनों हाथ ओघेकी दशिओं पर लगाकर अपने ललाट की तरफ हाथ लेजाते हुए बीचमें मध्यम कीय विचार
संग्रहः (नहीं धीरा और नहीं ऊंचा, ऐसे) स्वरसे 'ता' बोलकर 'भे' ऊंचे स्वरसे बोलते हुए दोनों हाथ ललाटके लगावे, यह चौथा आवर्त हुआ, इसी तरह पांच में और छठे आवर्त में भी 'जवणि' और 2 जं च भे' का 'ज' तथा 'ज' धीरे स्वरसे बोलते हुए ओघेकी दशिओंके हाथ लगाकर अपने ललाट की 21 तरफ हाथ लेजाते हुए बीचमें 'व' तथा 'च' मध्यम स्वरसे बोलकर 'णि' तथा 'भे' ऊंचे स्वरसे बोलते हैं। हुए दोनों हाथ अपने ललाटके लगावे, वाद 'खामेमि खमासमणो देवसियं (२) वइक्कम' कहकर खडा | होजावे और आसनके पिछली तरफ जाकर खडा हुआही 'अवस्सियाए पडिकमामि खमासमणाणं देवसि-II आए (३) आसायणाए' से लगाकर 'वोसिरामि' तक संपूर्ण सूत्र कहे । फिर दूसरी वार 'इच्छामि खमा
(१)-राइमें 'राइवरकता' पख्खीमें 'पक्खो वकतो''चौमासी में चोमासी वइकता' संवच्छरीमें 'संवच्छरो वखतो' कहे। (२)-राइमें- 'राइयं' पख्खी में 'पख्खियं' चौमासी में 'चोमासीयं' और संवच्छरीमें 'संवच्छेरीयं' कहना। (३)-राइमें 'राइयाए' पख्खीमें 'पख्खियाए' चौमासीमें 'चोमासियाए' और संवच्छरीमें 'संवच्छरियाए' कहना।
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साधुसाध्वी ।। ५७॥
संग्रहः
समणो वंदिउं जावणिजाए निसीहिआए अणुजाणह मे मिउग्गहं' तक कहते हुए आसन के आगेकी तरफ से आवश्यआकर 'निसीहि' बोलते हुए संडासे पूंज कर बैठके पहलेकी तरह ही सब विधि करते हुए संपूर्ण सूत्र कहे, कीय विचार परंतु खड़े होकर आसनके पिछली तरफन जावे, उसी जगह खडा रहे और आवस्सियाए 'यह पद न कहे। |
३-छम्मासी तप चिंतन-विचार| काउस्सग में रहा हुआ विचार करे कि जैसे भगवान् श्रीमहावीर स्वामीने छ महीने के उपवास किये थे वैसे हे जीव ! तूं भी क्या करसकता है ?, नहीं, यदि पूरे छ महीने के उपवास नहीं कर सकता है | तो क्या एक दिन कम छ महीने करसकता है ?, नहीं, इसी तरह २ दिन कम ३ दिन कम यावत् २९ दिन हा कम छ महीने कर सकता है ?, नहीं, यदि इतने दिनतक उपवास नहीं कर सकता है तो क्या पांच महीने है। करसकता है ?, नहीं, इसी तरह अपने जीवको पूछते जाना और जो न करसके उसका अपने आप मनही से मना है करते जाना, ऐसे एक एक दिन कमती करते हुए ४ महीने, ३ महीने, २ महीने, यावत् एक महीने तक विचार करलेना, बाद एक महीने में भी एक एक दिन कमती करते हुए १३ दिन कमती करदेना अर्थात्
tAICHIGGISIS SISAUCISTAX
॥५७॥
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RE
साधुसाध्वी * अपने आत्माको पूछे कि- १३ दिन कम एक महीना यानि १७ उपवास तू करसकता है ?, नहीं, यदि आवश्य॥५८॥
इतना भी नहीं कर सकता है तो क्या चौतीस भक्त (१६ उपवास) करसकता है ?, नहीं, इसी प्रकार बत्तीस ||कीय विचार भक्त (१५ उ०), तीस भक्त (१४ उ०), अट्ठाइस भक्त (१३ उ०), छव्वीस भक्त (१२ उ०), चौवीस संग्रह भक्त (११ उ०), बाईस भक्त (१० उ०), वीस भक्त (९ उ०), अट्ठारे, भक्त-अट्ठाही (८ उ०), सोले । भक्त (७ उ०), चौदह भक्त (६ उ०), बारे भक्त (५ उ०), दशम भक्त (४ उ०), अहम (३ उ०) है, छह (२ उ०), चउत्थ भक्त (१ उ०), आयंबिल-निवी-एकलठाणा-एकासणा-बियासणा-अवऽढ-पुरिमऽह है - साढपोरिसी-पोरिसी-नमुक्कारसहि करसकता है !, इसी तरह अपने जीवको पूछकर शक्ति मुजब जो है, पञ्चख्खाण करना हो वह मनमें धारकर काउस्सग्ग पारलेवे। | इस छम्मासी तपचिंतनके विचारमें यह खयाल रखना कि-जो पञ्चक्खाण अपने से न बन सके उसके लिये तो यह उत्तर विचारना कि-" यह पञ्चक्खाण मेरेसे नहीं बन सकता"। और जो पञ्चक्खाण । कर तो सकता है परन्तु उस दिन वह पञ्चक्खाण करने का भाव न हो तो ऐसा विचारना कि-" यह पञ्चक्खाण
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साधुसाध्वी
॥ ५९ ॥
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कर तो सकता हूं परन्तु आज भाव नहीं है" । और जो करने की इच्छा हो उसके वास्ते यह विचारना कि- "अमुक पच्चक्खाण करने की मेरी इच्छा है" ।
४- सिजातर - विचार -
I
साधु या साध्वी जिस मकान में उतरे उस मकानका स्वामी सिज्जातर कहाता है, घर घणीने यदि किसी दूसरेको भाडे देदिया हो अथवा किसी कारण से दूसरेके नामपर चढा दिया हो तो भाडे वालेका | अथवा जिसके नामपर चढाया हो उसका घर सिज्जातर करना चाहिये । रातमें संथारा पोरिसी भणाकर निद्रा (उँघ) लेने के बाद तथा राइ पडिकमणा करनेके बाद सिज्जातर होता है सो उस मकान को छोड़कर जिस वक्त विहार करे ? दूसरे दिन के उस वक्त तक चारों प्रकारका आहार ओघा - चद्दरादिक कपडे| पात्रे - कंबल आदि चीजें सिज्जातर के घरसे न लेनी, परन्तु राख कुंडी घास-पाट पाटले अथवा लेप करने की कोइ चीज चाहिये तो सिज्जातर के घर से भी ले सकते हैं ।
यदि एक मकानमें निद्रा लेवे और राइ पडिकमणा किसी दूसरे मकान में जाकर करे ? तो दोनों
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आवश्य
कीय विचार
संग्रह:
| ।। ५९ ।।
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साधुसाध्वी मकान वाले सिजातर होते हैं। एक समुदाय के ही साधु या साध्वी अधिकहों और मकान उतरनेका छोटाहो जिस ई आवश्य
से दो चार मकानों में जुदे जुदे ठहरे हों तो गुरु या गुरुणीने जिसमें निद्रा ली हो तथा राइ पडिक्कमणा किया है कीय विचार हो उसी मकानका मालिक सिजातर होता है अन्य नहीं होता । यदि कोइ भूलसे सिजातरके घरका आहार है।
संग्रहः पाणी आदि लाकर खावे पीवे अथवा वापरे तो उसको एक (१) उपवास की आलोयणा आवे ।
५-आहार-दोष-विचार| गृहस्थ के घर गोचरी लेते हुए ४२ बेतालीस दोष और उपासरे में आकर आहार करते हुए मंडली
के पांच दोष सब मिलकर ४७ दोष साधु साध्वियों को त्यागने चाहिये, वे इस मुजब हैं8 “सोलस उग्गम दोसा, सोलस उप्पायणाए दोसा य। दस एसणाए दोसा, गासेसण मिलिय सगयाला १" |
__ अर्थ- उद्गमनके १६ दोष जो कि आहार (रसोइ) बनाते हुए केवल गृहस्थोंसेही लगते हैं, उत्पासदन के १६ दोष. जो गौचरी जाते हुए साधु-साध्वियोंसे ही लगते हैं, ग्रहणषैणा नाम ग्रहण करते हैं। I (१) “सिज्जातरपिंडे मां० मयंतरे पु०" विधिप्रपा। “शय्यातर्रायपिंडस्य बादने धर्म (उप०) मादिशेत्” भाचार दिनकर पत्र २५२ ।
॥६
॥
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साधुसाध्वी
।। ६१॥
ROSAS!
( वहोरते ) हुए आहारके शुद्धताकी तलाशी करना उसके १० दोष, जो गृहस्थ तथा साधु. दोनोंसे है आवश्यलगतेहें, और ग्रासैषणा ( मंडली ) के ५ दोष, जो आहार-पाणी करते समय लगतेहैं, इस प्रकार सब मिलकर
कीय विचार की
संग्रहः ४७ दोष आहार संबंधी होतेहैं । इनमें से पहले उद्गम के १६ दोष बतातेहें॥ “आहाकम्मुद्देसिय, पूईकम्मे य मीसजाए य । ठवणा पाहुडियाए, पाओयर कीअ पामिच्चे ॥ २ ॥” | परिअदिए अभिहडु,-म्भिन्ने मालोहडे य अच्छिज्जे । अणिसिद्वंऽज्झोयए, सोलसपिंडुग्गमे दोसा ॥३॥"
अर्थः-- साधु या साध्वी के वास्ते सचित्त वस्तुको अचित्त करे, अथवा अचित्त वस्तुको साधुके हैं निमित्त रांधकर तय्यार करना वह 'आधाकर्म ' दोष १, गृहस्थने अपने वास्ते बनाए हुए आहारको साधु है। के वास्ते दही-गुड ( गोल-सकर ) आदिके मिलानसे अथवा फिरसे दूसरी वार छमका-वघार आदि है देकर स्वादिष्ट बनाना वह ' उद्देशिक ' दोष २, आधाकर्म आदि दोष रहित शुद्धमान आहारमें किंचित् । मात्रभी आधाकर्मी आहार मिलाकर वहरावे, अथवा शुद्धमान आहार भी आधाकर्मी आहारसे खरडी हुई।
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AERA
संग्रहा
साधुसाध्वी हैकुर्छि आदिसे वहरावे वह 'पूतिकर्म ' दोष ३, शुरुसे ही साधु और गृहस्थ दोनोंके वास्ते जो आहार आवश्य॥६२ ॥ बनावे वह 'मिश्रजात' दोष ४, साधुको वहराने की अभिलाषासे जो आहार अपने बरतनमेंसे थोडी या ॐकीय विचार
ज्यादा देरतक जुदा स्थापन करके रखे वह ' स्थापना ' दोष ५, अपने पुत्रादिकके विवाह आदिमें बने है हुए उत्तम आहारादिक साधुको बहरानेसे विशेष लाभ होनेकी अभिलाषासे विवाह आदि उत्सव आगे पीछे करे, अर्थात् गाममें जिस समय साधुका योग होवे उस समय विवाह आदि करे और उस विवाह के *आदि उत्सव संबंधी आहारादि साधुको बहरावे वह 'प्राभृतिका ' दोष ६, अंधेरे में रही हुई वस्तु दीवे ||
आदिसे शोधकर लाके बहरावे, अथवा अंधेरेमें साधु बहरते नहींहैं इससे प्रकाश होनेके वास्ते भीत तोडाकर बारी वगैरह करावे, अथवा अंधेरे में बनाया हुआ आहार साधुको बहरानेके वास्ते प्रकाशमें
लाकर रखे वह 'प्रादुष्करण ' दोष ७, साधुके वास्ते वेचाती लाकर बहरावे वह 'क्रीत' दोष ८, साधु | E के वास्ते उधारा लाकर बहरावे वह 'प्रामित्य ' दोष ९, अपनी वस्तु दूसरेको देकर बदलेमें दूसरेकी ॥६॥
वस्तु लाकर साधुको वहरावे वह · परावर्तित ' दोष १०, अपने घरसे अथवा अन्य गामसे साधुके सामने |
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साधुसाध्वी ॥ ६३॥
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लाकर बहरावे वह ' अभ्याहृत ' दोष ११, घृतादिकके कूडले आदिके मुखपर लगी हुई मट्टी वगैरह आवश्यउखेड कर बहरावे, अथवा जो हमेशां नहीं खोले जाते वैसे मजबूत बंध किये हुए कमाड खोलकर बहरावे कीय विचार वह 'उद्भिन्न' दोष १२, जिसके पगथिये न हों वैसी मेडी उपरसे उतार कर बहरावे, अथवा भूमिघरमें 8 संग्रह से निकाल कर और दोनों एडियां ऊंची करके अगूठों पर खडे रहकर अथवा पाटला वगैरह लगाकर जिस । मेंसे चीज उतारसके वैसे शिके उपरसे उतार कर अथवा बडी पेटी तथा कोठे आदिमेंसे बाहर निकाल कर और जहां पर नजर न पहुंचे तथा जहां रही हुई चीज भी बडी मुश्किलसे लेसके वैसे ऊंचे आले अथवा बारीमेंसे लेकर बहरावे वह 'मालापहृत' दोष १३, मालिककी इच्छा बिना दूसरा ( गाम आदिका स्वामी-घरका मालिक तथा चौर आदि ) कोई जबरदस्तिसे खोसकर वहरावे वह 'आच्छेदय ' दोष १४, जिसके बहुत मालिक हों अथवा एक मालिकने अपने बहुत नौकर-चाकरोंके वास्ते खेत आदिमें जो आहार भेजा हो अथवा जो हाथीके लिये बनाया हो वैसा आहार सब मालिकोंकी इच्छा बिना और ॥३॥ उनकी गेर हाजरीमें वैसेही सब नोकर चाकरोंकी तथा महावत और हाथ के मालिक राजा आदिकी ।
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साधुसाध्वी रजा बिना यदि कोई अकेला अथवा अन्य आदमी साधुको बहरावे तो वह 'अनिसृष्ट' दोष १५, अपने घर में आवश्य
निमित्त रसोई करना शुरु कर देनेके बाद गाममें साधुओंके आनेकी खबर मिलने पर अपने वास्ते रंधाते कीय विचार हुए अन्नमें साधुके निमित्तसे दूसरा अन्न मिला कर अधिक रसोई करे वह ' अध्यवपूरक ' दोष १६, संग्रह ये उद्गमके १६ दोष हैं, जो कि आहार बनाते हुए गृहस्थोंसे ही लगते हैं, इन से बचनेके वास्ते गौचरी | जाने वाले साधु-साध्विओंको चाहिये कि-वे आहार लेते समय पूरी सावधानी रखें, गृहस्थोंके इंगित, आकार तथा चेष्टा वगैरहसे जिस आहारमें किसीभी दोषकी संभावना हो वह आहार न लेवें ॥
अब केवल साधुसे लगने वाले उत्पादनाके १६ दोष बताते हैं:| "धाई दूइ निमित्ते, आजीव वणीवगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एए ॥४॥"
"पुग्विं पच्छा संथव, विज्जा मंते य चूण्ण जोगे य। उप्पायणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ॥५॥" ___ अर्थः- बालकको धवाने (धवराने ) वाली, स्नानादि कराने वाली, अलंकार (दागिना) पहराने है।
1 ॥४॥ वाली, रमाने वाली और उपाडने (तेडने) वाली ये पांच प्रकार की धात्री (धामाता) कहातीहैं, इनमें से
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साधुसाध्वी ॥ ६५ ॥
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से कोइभी काम खुद करके अथवा दूसरेसे कराके गृहस्थको खुश करता हुआ गौचरी लेवे वह 'धात्रीपिंड आवश्यदोष १, एक दूसरेकी कही हुई बात एक दूसरेके पास जाकर परस्परमें कहने वाली दूती कहातीहै, ऐसे कीय विचार दूतीपणा करके जो गौचरी लेवे वह ' दूतीपिंड ' दोष २, शुभ अशुभ चेष्टा तथा ज्योतिष आदि आठ
संग्रहः प्रकारके निमित्तसे भूत-भविष्यत्-वर्तमान कालमें होने वाले सुख-दुःख-लाभ-अलाभ-जीवित-मृत्यु आदि बताना वह निमित्त कहाता है, इस तरह करके जो गौचरी लेवे वह · निमित्तपिंड ' दोष ३, साधु 8 साध्वी गृहस्थके जाति-कुल-गण-(१) कला और व्यापार की प्रशंसा करते हुए मोगम पणेसे अपनेको उस है। गृहस्थके तुल्य जाति कुलादि वाला बताकर, अथवा ' मैं अमुक जाति या कुलका हूं' ऐसे साफ साफ है कहकर जो गौचरी लेवे वह ' आजीवपिंड ' दोष ४, ब्राह्मग आदिके भक्तोंके आगे उनके माने हुए है। गुरु ब्राह्मण आदिकी प्रशंसा करके और ' में भी उनका ही भक्त हूं' ऐसा बताकर जो गौचरी लेवे वह - वनीपक पिंड ' दोष ५, खुद अपने आप किसी रोगी को दवाई देकर, अथवा दूसरेसे दिलाकर अथवा ।
(१) “मलसारस्वतादिगणो लोक प्रतीतः" इति पिंडविशुद्धयवचूरिः ।
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साधुसाध्वी ॥६६॥
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दवाई या वैद्यक बताकर जो गौचरी लेवे वह 'चिकित्सा पिंड' दोष ६, आहार न मिलनेसे क्रोधमें आकर / आवश्यप्रयुक्त किये हुए मारण-उच्चाटन आदि विद्या चमत्कारको देखाकर अथवा साप देना आदिसे डरे हुए गृहस्थसे ||कीय विचार जो आहार लेवे वह 'क्रोधपिंड' दोष ७, दूसरे साधुओंके चढानेसे अथवा अपमान करनेसे या अपनी लब्धिकी है
संग्रहा प्रशंसा सुनकर अभिमानमें आया हुआ 'तुम देखो तो सही में अमुकके घरसे अमुक आहार अभी | लाकर तुमको देता हूं' इस तरह प्रतिज्ञा पूर्वक बोलता हुआ गृहस्थके घर जाकर अनेक तरहके चाटु वचनों है, से उस गृहस्थको अभिमानमें चढाकर, अथवा धमकाकर फैल फितूर करके, स्त्री आदि शेष परिवारवालों I की इच्छा विना घरके मालिकसे जो गौचरी लेवे वह — मानपिंड ' दोष ८, माया (कपट) से नवे नवे | वेष करके और नवी नवी भाषा बोलनेसे गृहस्थको खुश करके, अथवा विद्याके जोरसे जुदे जुदे रूप बना कर जो आहार लेवे वह 'मायापिंड ' दोष ९, अधिक लोभसे बहुत घरोंमें फिर फिरकर अच्छा स्वादिष्ट । आहार लावे अथवा गौचरी फिरते हुए किसीके घरपर अच्छा आहार मिलने पर बहुत ज्यादा लेलेवे . वह ' लोभ पिंड ' दोष १०, आहार लेनेके पहले देने वालेकी प्रशंसा करे वह 'पूर्वसंस्तव ' दोष और 3
॥६६॥
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साधुसाध्वी आहार लेनेके पीछे देने वालेकी प्रशंसा करे वह 'पश्चास्संस्तव ' दोष कहाता है, अथवा देने वालेकी । आवश्य
और अपनी अवस्था मुजब उसके साथ अपना संबंध घड़ लेवे, जैसे कि-देने वाले स्त्री या पुरुष की अवस्था ।कीय विचार अपनेसे अधिक होवे तो तुम्हारे जैसे मेरे माता या पिता थे, इसी तरह यदि समान अवस्था हो तो बहिन ||
संग्रहः या भाई का और यदि छोटी अवस्था हो तो पुत्री या पुत्र का संबंध कह बतावे वह 'पूर्वसंस्तव' दोष, और है इसी मुजब अपने से बड़े (मोटे) के साथ जो सासु या ससुरे आदिका संबंध कहे वह 'पश्चात्संस्तव
दोष कहाता है ११, गृहस्थ को विद्या (१) अथवा मंत्रसे (२) मंत्रित करदेवे बाद उसके पाससे गौचरी | IS लेवे अथवा विद्या तथा मंत्रके चमत्कार बताकर जो गौचरी लेवे वह अनुक्रमसे 'विद्यापिंड' दोष १२,
और ' मंत्रपिंड ' दोष कहाताहै १३, अदृश्य होना आदि जिससे होसके वैसा चूर्ण (अंजन-सुरमा): आदि अपने नेत्रोंमें आंज कर लोगोंको खुश करके, अथवा ऐसा चूर्ण बनानेकी रीति दूसरोंको बता ||
(१)--जिसकी अधिष्ठायिका देवी हो और जाप होम आदि क्रिया करनेसे सिद्ध होवे वह विद्या कहातीहै । (२)-जिसके अधिष्ठायक पुरुष रूपवाले देवता हो और जाप होम आदि क्रिया किये विना पाठ मात्रसे जो सिख होवे बह मंत्र कहाता है।
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॥६७॥
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साधुसावी , कर जो गौचरी लेवे वह — चूर्ण पिंड ' दोष १४, दो चार अथवा दश वीस चीजें भेली मिला कर सौभाग्य आवश्य॥६८॥ दौर्भाग्य आदि करने वाला पग आदिमें लगानेका लेप आदि बनाना उसको योग कहते हैं, ऐसी योगवाली कीय विचार चीजों का लेप पग आदिके करके जमीन की तरह पानी उपर चलना आदि चमत्कार बताकर अथवा 'अमुक है।
संग्रहः अमुक चीजें भेली करके पानी आदिके साथ खाने-पीने से अमुक नफा या नुकसान होता हैं ' इत्यादि बताके । गोचरी लेवे वह · योग पिंड' दोष १५, विद्या-मंत्र तथा औषधी आदिके बलसे गर्भधारण-गर्भपात अथवा गर्भस्तंभन करके नपुंसक को पुरुषादिक और पुरुष आदिक को नपुंसक आदि बनाके जो गौचरी लेवे वह - मूल कर्म पिंड ' दोष १६, ये १६ दोष उत्पादना के और पहले कहे हुए उद्गम के १६ दोष मिला कर | ३२ दोष गवेषण एषणा के नाम से कहाते हैं, 'गौचरीमें ही ये दोष टालने के हैं' ऐसा नहीं है, किन्तु 8 कपड़े पात्रे आदिमें भी टालने चाहिये।
अब साधु और गृहस्थ दोनोंसे लगने वाले ग्रहण एषणाके १० दोष बताते हैं:“संकिअमरुिखय निख्खित्त,-पिहिय साहरिय दायगुमीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय एसण दोसा दस हवंति ६"
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साधुसाध्वी|| अर्थ- गृहस्थके घरपर रसोइ आदि अधिक देखकर उस आहारमें आधाकर्म-उद्देशिक आदि किसी
आवश्यदोषकी शंका होने परभी पूछ ताछ करके शुद्धताका निश्चय किये विना वहरलेवे, इसीतरह उपासरेमें आये पादकीय विचा ॥६९॥
आहार करते समय दूसरे साधुके गौचरीमें आयाहुआ अपने समान आहार देखकर दिलमें आधाकर्म आदि । संग्रहः
दोषकी शंका होते हुएभी निश्चय किये बिना जो आहार खावे वह 'शंकित ' दोष १, जो बरतन अथवा दी आदि सूखी अथवा भीजीहुई मट्टीसे खरडे हुए हो तथा जिसमें सचित्त पाणीके छांटे लगे हो तथा जो
सचित्त पाणीसे भीजे हुए हो और जिसमें कापकूप किये हुए आंबे आदि वनस्पतिके छोटे छोटे टुकडे लगे हो |वैसे बरतन वा कुी या हाथोंसे गृहस्थ वहरावे और साधु लेवे वह 'मृक्षित' दोष कहाताहै, और वहरानेके || पहले हाथ तथा बरतन धोकर अथवा मांजकर वहरावे वह पूर्वकर्म ' दोष कहाताहै, इसीतरह वहरानेके । पीछे वहराने वाला अपने हाथ तथा जिससे वहराया हो वह बरतन धोवे या मांजे वह 'पश्चात्कर्म' दोष कहाताहै,
येभी दोनों दोष 'मृक्षित ' दोष ही गिणे जाते. २, जो आहार सचित्त मट्टी-पाणी-अग्नि तथा वनस्पतिके Kउपर पडा हो, अथवा आहारवाला बरतन ( कटोरदान आदि). उपर रही हुई सचित्त मट्टी आदि चीजोंपर ।
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साधुसाध्वी पडा हो, तथा जो पापड आदि पवनसे उडते हुए आकाशमें अधर रहे हो, अथवा जो आहार पवनसे भरीहुई है। आवश्य
मशक (दीवडी ) आदिके उपर पडा हो और जो आहार बैल (बलद ) आदि चलने फिरनेवाले जानवरोंकी | कीय विचार पीठपर लदा ( रखा ) हुआ हो वैसा आहार लेवे वह ' निक्षिप्त ' दोष ३, कटोरी (वाटकी) आदि जिससे |संग्रह वहरानेका विचार हो उसमें पहलेका जो कोई सचित्त-अचित्त या मिश्र अन्नादि जो पडा हो उसको दूसरे किसी सचित्तादिक भेला डालकर उसी बरतनसे गृहस्थ वहरावे और साधु लेवे वह 'संहृत' दोष ४, वहरानेवाला , स्त्री या पुरुष जो ६०-७० वर्षसे अधिक वृद्ध उमरका होजानेसे कमजोरीके कारण आहारका बरतन 8 आदि हाथमें अच्छीतरह पकड नहीं सकता हो और जिसके हाथमेंसे चीज पडजाती हो १, जो घरका मालिक,
न हो यानी अतिवृद्ध होजानेके कारण घरमें देने लेनेका जिसको अधिकार न हो २, जो नपुंसक हो ३, जिसका । है शरीर थर थर कांपता हो ४, जिसको बुखार (ताव ) चढा हो ५, जो अंधा हो ६, जो आठवर्षसे कम उमरका बालक हो ७, जो मदिरा-भांग-गांजा आदिके नशेमें बेभान हो ८, जो पागल हो ९, जिसको भूत वगैरह लगा। हो १०, जिसके हाथ अथवा पग कटे हुए हो ११, जिसके पगोंमें लकडीकी पावडियां पहरी हुई हो १२, जिसके |
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॥७०॥
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साधुसाध्वी से गलत्कुष्ट (झरता हुआ कोढ) हो १३, जिसके हाथपगोंमें बेडियां पहराई हुई हो १४, जो उखलमें धान्या-|| आवश्य।। ७१॥दिको मुशलसे कूटती हो १५, घट्टीसे गहुं आदि अथवा शिला उपर कोई सचित्त वस्तु पीसती हो अथवा दल-कीय विचार
ती हो १६, चणें आदि पूंजती (सेकती) हो १७, अरटिया कातती हो १८, चरखीसे रू पीलती हो १९, ६ हाथोंसे रू छूटा छूटा करती हो २०, रू पीजती हो २१, विलोवणा (जलका) करती हो २२, भोजन करती है
हो २३, जिसके आठ महीनेसे (१) अधिक दिनका गर्भ हो २४, जो आहार नहीं खानेवाले बिल्कुल छोटे बाल18कको उठाये हुए हो अथवा बच्चेको स्तनपान कराती (धवराती ) हो २५, जिसके हाथमें सचित्त लूण अथवा है
मट्टी-पाणी-अग्नि-पवनसे भरीहुई मशक (दीवडी)-वनस्पति तथा चलता फिरता जानवर हो अथवा फूलोंकी | माला वगेरह पहरे हुए हो २६, जो छ कायका विनाश करती हो २७, ऐसे ऐसे मनुष्योंसे जो आहार लेवे वह 'दायक ' दोष ६, देनेकी चीज थोडी होनेके कारण लज्जासे अथवा जुदी जुदी वहराने में देर लगेगी इस-||
RoRARARIA
(१)-आठ महिनेसे अधिक दिनके गर्भवालीभी साधुके निमित्त उठना बैठना या नीचा नमना आदि परिश्रम न करती हुई जैसे जिस जगह बैठीहो वैसे उसी जगह बैठी हुई यदि वहरावे तो वहरना कल्पताहै, अन्यथा नहीं।
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संग्रहा
साधुसाध्वी
वास्ते सव चीजें एक साथ वहरादूं इस उत्कंठासे अथवा इनको सचित्त भक्षणका दोष लगाउं ऐसी द्वेष बुद्धिसे । आवश्य ॥७२॥ अथवा विना खयालसे कल्पनीय और अकल्पनीय वस्तुओंको भेल सेल करके जो आहार गृहस्थ वहरावे और ऐसा ||कीय विचा
भेल सेलवाला आहार साधु लेवे वह 'उन्मिश्र' दोष ७, जो फल-रस आदि अचित्त न हुए हों अथवा जिसके अनेक के मालिक हो उनमें से एक दो के परिणाम वहरानेके हुए हों लेकिन सबके परिणाम वहरानेके नहीं होवे तोभी है। । उन सबके सामने वहरानेके परिणाम वाले वहरावे, अथवा जो दो चार साधु साथमें गोचरी गये हो उनके है.
सबके मनमें 'ये फलादिक अचित्त होगयेहें' ऐसा जचे विना जो फल-रस आदि लेवे वह अपरिणत' दोष ८, साधुके वास्ते दूध-दही-घी-शाक आदिमें हाथ तथा बरतन खरडे तथा शाक आदिका बरतन बिल्कुल खाली करके सब वस्तु साधुको बहरा देवे और साधु वहरलेवे वह 'लिप्त ' दोष , घी-दूध-दही आदिके छांटे डालते . हुए अथवा कोईभी आहार भूमि उर गिराते हुए वहरावे और साधु लेवे वह ' छर्दित ' दोष १०, इसतरह . ये दश दोष ग्रहणएषणाके होतेहैं, यानि साधुके वहरते हुए और गृहस्थके वहाराते हुए ये १० दोष लगते हैं। अब ग्रासैषणा ( मंडली ) के पांच दोष. जो कि आहार-पाणी करते समय लगतेहें. वे बतातेहे
॥७२॥
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SAG
आवश्य
संग्रहः
साधुसाध्वी / "संजोयणाऽपमाणे, इंगाले धूमाऽकारणे पढमा । वसहि बहिरंतरे वा, रसहेऊ दव्य संजोगा ॥१॥" MINS
अर्थः-उपासरेके बाहर, यानि गृहस्थके घरपर वहरते समय अथवा उपासरेमें आये वाद आहारपाणी करते सयम अच्छा स्वाद बनानेके वास्ते एक वस्तुमें दूसरी वस्तु मिलावे वह पहला 'संयोजना' दोष १, है।
जितना आहार करनेपर मन-वचन-कायासे आलस आदि प्रमाद रहित स्वाध्याय-ध्यान-तप-संजमादिक की है। & आराधना सुखसे हो सके उतना आहार साधु-साध्विओंको करना चाहिये, इससे अधिक आहार करे वह 'अप्रमाण है। दोष २, रागरूपी अग्नि चारित्ररूपी बावनाचंदनको बालकर अंगारे (कोयले) के समान करदेताहै, वास्ते
आहार-पाणी करते हुए अच्छे स्वादिष्ट आहारकी अथवा वैसा अच्छा आहार देनेवालेकी प्रशंसा करे वह 15 अंगार' दोष ३, जैसे अच्छा मकान से मैला होजाताहै वैसेही द्वेषरूप धूंसे चारित्ररूप सुंदर मकान है
मैला होजाताहै, वास्ते आहार-पाणी करते हुए खादरहित-लूखे-सूखे खराब आहार की अथवा वैसा आहार
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॥७३॥
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साधुसाध्वी
॥७४॥
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देनेवालेकी निंदा करे वह 'धूम्र' दोष ४, विना कारण (१) आहार-पाणी करे वह 'अकारण ' दोष ५, ये आवश्यमंडलीके पांच दोषहैं, इनको टालकर अच्छी क्रियामें वर्तनेवाले साधु-साध्विओंको आहार करना चाहिये। ।कीय विचार
संग्रहा ६-मुहपत्ति-पडिलेहण-विचारउत्कटिक आसन (खडे पगों) से बैठकर मुहपत्ति खुल्ली करके " सूत्र अर्थ साचो सद्दई १" ऐसा बोलता हुआ अपने सामनेका पसवाडा देखे १, बाद मुहपत्ति पलटके “सम्यक्त्वमोहनीय-मिथ्यात्वमोहनीय-12 मिश्रमोहनीय परिहरु ३-४” ऐसा बोलताहुआ दूसरा पसवाडा देखकर तीन पुरिम करे, यानि मुहपत्तिको तीन वरे || A (१)- भूख मिटाने के वास्ते १, आचार्य-उपाध्याय-बालक-वृद्ध-तपखी-बीमार आदिकी वेयावच्च (सेवा-भक्ति ) करनेके लिये २/ बाइरियासमितिकी शुद्धिके वास्ते ३, संजम पालनेके वास्ते ४, जीवितव्य (आयुष) की रक्षाके वास्ते ५, सूत्र तथा अर्थ चिंतनरूप धर्मध्या
नको स्थिर करनेके लिये ६, इन छः कारणोंसे साधु-साध्वी आहार-पाणी करें। इसी तरह आहार न करनेकेभी छः कारणहैं, वे इस मुजबहैंबुखार (ताव ) आदि कोईभी रोग होने पर १, देवता-मनुष्य तथा तिर्यंचोंके किये हुए उपसर्ग होने पर २, भूख सहन करनेके वास्ते ३/ विषय विकारको दबाकर ब्रह्मचर्य (शीलवत ) की रक्षाके लिये ४, वर्षा वरसती हो, धूंअर पडती हो, रस्तेमें देडके अलसिये आदि त्रस जीव || S अधिक उत्पन्न हुए हों तो उनकी विराधना न होने के वास्ते ५, आयुषका अंतिम समय नजीक मालूम होनेपर अनशन आदि करने के लिये ६
IM७४॥ आहार पाणी न करें।
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साधुसाध्वी
॥७५॥
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ऊंची नीची करके खंखेरे ३-४, फिर दूसरी वर पलटके "कामराग-स्नेहराग-दृष्टिराग परिहरु ३-७," ऐसा बोलता
आवश्यहुआ उस पसवाडेको देखकर तीन पुरिम करे ३-७, बाद मुहपत्ति दुप्पट करके दो अथवा तीन वधूटक की विचार करके (सल पाडके ) जीमणे हाथकी अंगुलियोंमें पकडकर “सुदेव-सुगुरु-सुधर्म आदरं ३-१०” बोलते । संग्रहः हुए दोनों जंघाओंके बीचमें लंबा किये हुए डावे हाथकी हथेली उपर तीन अक्खोडे (१) करके ३-१०४ " कुदेव-कुगुरु-कुधर्म परिहरु ३-१३ " कहते हुए तीन पक्खोडे (२) करे ३-१३, फिर " ज्ञान-दर्शन-3 चारित्र आदरं ३-१६” कहते हुए तीन अक्खोडे (३) करके " ज्ञानविराधना-दर्शनविराधना-चारित्रविरा-3 धना परिहाँ ३-१९ ” बोलते हुए तीन पक्खोडे करे, इसी तरह तीसरी वारभी “ मनोगुप्ति-वचनगुप्ति
(१)-हथेलीके मुहपत्तिका स्पर्श न होवे उस तरह ऊंची नीची खंडेरते हुए अंगुलियोंकी तरफसे पंजेकी तरफ मुहपत्ति लेजाना उस को 'अक्खोडे' कहतेहैं। (२)-हथेलीके मुहपत्तिका स्पर्श होवे वैसे पूंजते हुए पंजेकी तरफसे अंगुलियोंकी तरफ मुहपत्ति लेजाना, उसको पक्खोडे' कहते हैं। (३)-डाबे हाथकी अंगुलियों में जीमणे हाथकी तरफ पकडी हुई मुहपत्तिसे दोनों जंघाओंके बीच में लंबे किये हुए जीमणे हाथकी हथेली में "मानविराधना" आदि ९ बोल बोलते हुए ६ पक्खोडे और तीन अक्खोडे करने, ऐसा पांच पडिकमणेकी पुस्तकमें| तथा रत्नसागर आदिमें लिखाहै, परंतु प्रवचनसारोद्धारकी टीका तथा महोपाध्याय-श्रीमत्क्षमाकल्याणजी गणि रचित 'साधुविधिप्रकाश ॥ ७५॥ आदिमें नव अक्खोडे और नव पक्खोडे एकली डाबी हथेली परही करनेका लिखाहै इस वास्ते हमनेभी मुख्यपणेसे वह ही बात लिखीहै।
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पून
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SEARS
साधुसाध्वी कायगुप्ति आदरुं ३-२२" कहते हुए तीन अक्खोडे करके " मनोदंड-वचनदंड-कायदंड परिहरु ३-२५" आवश्य॥७६॥ है कहते हुए तीन पक्खोडे करे । इसतरह तीन वार तीन तीन (३-३) करनेपर नव तो अख्खोडे और नव | कीय विचार
पक्खोडे छ पुरिम तथा एक देखनेरूप दृष्टिपडिलेहण. इन सबको मिलाने पर २५ बोल सहित २५ पडिले- संग्रहः हण मुहपत्तिकी (१) होतीहैं । बाद पहले लिखे मुजबही वधूटक करके जीमणे हाथमें रखी हुई मुहपत्तिसे ।
(२) हास्य-रति-अरति परिहरु ३ " बोलते हुए डाबी भुजा (खंधेसे कुणीतक) के बीचमें-जीमणी बाजु तथा ६ डाबी बाजु प्रमार्जन करे, बाद " भय-शोक-दुगंछा परिहरु ३-६" कहते हुए उसी तरह डाबे हाथमें रखी हुइ मुहपत्तिसे जीमणी भुजाके बीचमें-डाबी बाजु और जीमणी बाजु प्रमार्जन करे । बाद मुहपत्तिके दोनों । छेडे दोनों हाथोंसे पकडकर “ कृष्णलेश्या-नीललेश्या-कापोतलेश्या परिहरु ३-९" कहते हुए ललाटके तथा “ऋद्धिगारव-रसगारव-सातागारख परिहरु ३-१२” बोलते हुए मुखके और " मायाशल्य-नियाणा
(१)-कपडोंकीभो येही पच्चीस (२५) पडिलेहण है, यानि मुहपत्तिकी तरहही पच्चीस ( २५ ) बोल बोलते हुए कपडेभी 2 सापडिलेहण चाहिये। (२)-प्रतिफणकी पुस्तकों में 'कृष्ण लेश्या' आदि बोल यद्यपि पहले लिखेहैं, परंतु साधुविधि प्रकाश-प्रवचनसारोद्धारकी टीका'-मुहपत्ति पडिलेहणकी सज्झाय तथा स्तवनादिमें 'हास्य' आदि बोल पहले होनेसे हमनेभी इसी तरह बिखेहैं।
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॥ ७७ ॥
साधुसाध्वी शल्य-मिच्छादंसण शल्य परिहरु ३-१५ " बोलते हुए हृदय (छाती) के बीच में जीमणी बाजु तथा डाबी बाजु प्रमार्जन करे, बाद जीमणे हाथमें मुहपत्ति लेकर “क्रोध-मान परिहरु २ -१७” बोलते हुए डाबे खंधे (१) | उपर तथा डाबी कक्षा (कांख) के नीचली तरफसे डाबी पीठ उपर प्रमार्जन करे, बाद डाबे हाथमें मुहपत्ति लेकर " माया - लोभ परिहरु २ - १९ " बोलते हुए जीमणे खंधे उपर तथा कक्षा (कांख ) के नीचली बाजुसे जीमणी पीठ उपर प्रमार्जन करे, बाद “पृथ्वीकाय - अप्पकाय - तेउकाय रक्षा करुं ३ - २२” बोलते हुए जीमणे हाथमें लिये हुए ओघेसे जीमणे पगके और " वाउकाय - वनस्पत्तिकाय - त्रसकाय रक्षाकरुं ३ - २५ ” बोलते हुए डावे पगके बीच में जीमणी तरफ तथा डाबी तरफ प्रमार्जन करे, इस तरह अंगकी २५ पडिलेहण होती हैं,
(१) — यद्यपि साधुविधिप्रकाश' तथा 'प्रवचनसारोद्वार' की टीकामें लिखा है कि जीमणेहाथमें रखी हुई मुहपत्ति से जीमणा संघा और डाबे हाथमें रखी हुई मुहपत्तिसे डाबा बंधा प्रमार्जन करे, बाद डाबे हाथमें रही हुई मुहपत्ति से जीमणी कांस्तके नीचेसे जीमणी पीठ प्रमार्जे, बाद जीमणे हाथमें रही हुई मुहपत्तिसे डाबी कांखके नीचेसे डाबी पीठ प्रमार्जे, परंतु पडिक्कमणे आदिकी पुस्तकों में (जैसे हमने बताया है ) ऐसेही लिखा है और वोलभी २-२ साथही है, इससे कुछ सुविधा (सद्दलाइ ) भीहै, इस वास्ते हमने यही क्रम रखा है ।
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आवश्य
कीय विचार
संग्रह:
॥ ७७ ॥
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संग्रहः
साधुसाध्वी के ये पुरुषोंके लियेहें, स्त्रियोंके तो दो हाथोंकी ३-३, मुखकी ३, और दो पगोंकी ३-३, मिलाकर १५ आवश्य॥ ७८॥ पडिलेहणे अंगकी होतीहैं।
कीय विचार ७–उपकरण विचार ( साधुके १४ उपकरण)१-पात्रे (पातरे)-जिस पात्रेके गोलाइकी परिधि तीन (३) वेंत और चार ( ४ ) अंगुल होवे वह । मध्यम पात्रा, जिसकी परिधि इससे कमती होवे वह जघन्य और जिसकी परिधि इससे अधिक होवे वह उत्कृष्ट | पात्रा कहाताहै, जो बराबर गोल होवे टेढामेढा न होवे एवं जिसमें छिद्र (फांडा) या गांठ अथवा खरदराश || न होवे वैसा पात्रा रखना चाहिये, क्योंकि ओघनियुक्ति आदि ग्रंथों में ऐसे अपलक्षण वाला पात्रा नुकसान है दायी कहाहै । २ पात्रबंधन (झोली )-पात्रोंके प्रमाणसे होतीहै, यानि पात्र छोटे या मोटे जो होवे उनको /// झोलीमें बांधके गांठ लगाने पर चार अंगुल छेडे बाकी रहें उतनी बडी करनी चाहिये । ३ पात्रस्थापन-वह कहाताहै जो विहारादिके समय झोलीमें बांधे बाद पात्रोंके नीचली तरफ ऊनी वस्त्रका टुकडा बांधा जाताहै, जिसके चारों खुणे डोरी लगी रहतीहै, यह लंबा चौडा ( समचोरस ) १६ अंगुल होताहै । ४ गुच्छा-वह ॥७८ ॥
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साधुसाध्वी
॥७२॥
कहाताहै जो १६ अंगुल समचोरस ऊनी कपडा होताहै, उसके बीचमें एक छिद्र (फांडा) होताहै जिससे वह ।
आवश्यझोलीके छेडोंमें डालकर पात्रोंपर बांधा जाताहै । ५ पात्रकेसरिका (पूंजणी)-यहभी १६ अंगुल लंबी हो- भकीय विचार तीहै । ६ पडले-जो गौचरीके समय पात्रोंकी झोली हाथमें लिये बाद उपरसे ढांके जाते हैं जिससे संपातिम संग्रहः (उडते हुए) जीव आदिकोंकी रक्षा होसके, क्योंकि पात्रोंकी (१) झोली खुली रखनेसे उडते हुए छोटे छोटे जीव अथवा पवनसे कंपते हुए वृक्षोंके पत्र (पांन )-पुष्प-फलादिक तथा सचित्त रज-पाणी वगेरह एवं आकाशमें फिरनेवाले पक्षियोंकी विष्टा (वीठ) अथवा पवनसे उडता हुआ धूलका समुदाय आदि पात्रोंमें | पडजाताहो उनकी रक्षाके वास्ते पडले रखे जातेहैं, इससे यह साफ मालूम हुआकि-गौचरी जाते समय हाथमें । लीहुई पात्रोंकी झोली उपर पडले जरूर ढांकने चाहिये, जिससे उपर कही चीजें पात्रोंमें पडकर आहार अकल्पनीय न होवे । पडलोंका कपडा यदि जाडा (गडवार ) होवे तो चौमासेमें पांच, सीयालेमें चार, उन्हालेमें 2 | (१)-" अस्थगिते पात्रके सम्पातिमाः सत्त्वाः पतन्ति, पवन प्रकम्पित पादपादेः पत्र-पुष्प-फलादीनि सचित्तरज-सलिलादयोव्योमवर्ति विहङ्गम पुरीष-वात्याहत-पांशुप्रकरादयश्च निपतन्ति, ततस्तत्संरक्षणार्थ पटलानि धियन्ते" प्रवचनसारोबार वृत्तिः पत्र १२० ॥
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साधुसाध्वी तीन रखने, यदि कुच्छ थोडासा बारीक व छिदरा कपडा होवेतो चौमासेमें छः सीयालमें पांच उन्हालेमें चार * आवश्य॥८॥ रखने, और यदि ज्यादा बारीक व छिदरा कपडा होवेतो चौमासेमें सात, सीयालेमें छः, उन्हालेमें पांच पडले काय विचार
संग्रहः रखने चाहिये, तीन तरहके बतानेका मतलब यहहै कि-सब पडलोंके पट मिलाने पर उतनी जाडाइ होनी | चाहिये कि जिनको आंखों पर लगानेसे सूर्यकी किरणेंभी देखनेमें न आवें । एक एक पडलेकी लंबाई अढाई अढाई हाथ और चौडाई ३६-३६ अंगुल यानी डेढ डेढ हाथ होनी चाहिये । ७ रजस्त्राण-पात्रके चारों तरफ विटोलने पर चारों तरफसे चार चार अंगुल पात्रके भीतर कपडा चलाजाय उतना बडा होना चाहिये, इससे // यह मालूम होताहै कि-पहले एक एक पात्रका रजस्त्राण जुदा होताथा, परंतु आज कलतो रजस्त्राणके वास्ते| एक कपडा रखाजाताहै, जिसका एक एक पट एक एक पात्रके बीचमें डाला जाताहै, वहभी लंबाई व चोडाइमें आखी जोडके सज जावे उतना बडा होना चाहिये, ये सात उपकरणतो पात्रों के हैं, इनके सिवाय शरीर । संबंधी सात उपकारण इस प्रकार:
८-९-१० तीन कल्प (ओढनके कपडे)-दो तो सूतु चद्दर और एक ऊनी कंबल अथवा दो कंबल
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साधुसाध्वी
॥८१॥
और एक चद्दर लंबाइमें साढेतीन हाथ और चौडाईमें अढाई हाथ होतीहै, ऐसे प्रवचनसोराद्धार तथा ओघ- आवश्यनियुक्ति और उनकी टीकामें लिखाहै, परंतु श्रीजिनपतिसूरिजीमहाराजने पंचलिंगीकी टीकामें लिखाहै कि-कीय विचार गीतार्थोंकी आचरणासे आजकल इतने प्रमाणके चद्दर कंबल आदि कल्प नहीं रखे जाते, क्योंकि ऐसे कल्पोंसे || संग्रहः शरीर बराबर न ढंकनेके कारण अच्छी तरह निर्वाह नहीं हो सकता (१), इस वास्ते संख्या(गिनती) में और लंबाई-चौडाईमें अधिक भी रख सकतेहैं । ११ रजोहरण (ओघा)-चोवीस अंगुलकी दंडी और आठ अं-12 गुलकी दसियां ( फलियां ) दोनों मिलकर बत्तीस अंगुलका लंबा ओघा होना चाहिये, यदि दंडी ज्यादा लंबी || हो तो दसियां कमती करना और यदि दंडी कमती लंबी होवे तो दसियां अधिक लंबी करनी चाहिये, लेकिन । दंडी और दसियां दोनों मिलकर ओघेकी लंबाई बत्तीस अंगुलसे ज्यादा न होनी चाहिये, इससे यह जानना कि-ट्रॅढिये लोग जो बहुत लंबा ओघा रखते हैं वह शास्त्र विरुद्धहै, ओघेकी दसियां गांठ विनाकी (२) रखना शास्त्रकारोंने कहाहे, वास्ते दसियोंके गांठ लगानाभी शास्त्र विरुद्धहै । १२ मुहपत्ति-एक वेंत और चार अंगुल
(१) देखो मुद्रित पंचलिंगी वृहद्वृत्ति । (२) "अमुसिरं-अग्गथिला दशिका निषद्या च यस्य तदपिरम्" ओघनियुक्तिवृत्तिपत्र २१०
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1८२॥
साधुसाध्वी यानि १६ अंगुल समचोरस होतीहै, अथवा नाकमें धूल न जानेके लिये काजा निकालते हुए और दुर्गंधके । आवश्य
है कारण नाकमें रोग पैदा न होनेके वास्ते कारणवश अधिक दुगंधिवाली जगहमें ठल्ले बैठते हुए नाक और मुख कीय विचार
पर मुहपत्ति बांधना चाहिये, इस वास्ते मुहपत्ति तिखुणी करके गरदनके पिछली तरफ दोनों छेडोंसे गांठ संग्रहः लगा सके उतनी लंबी-चौडी समचोरस करनी चाहिये। परन्तु ढूंढिये नाक खुला रखकर हमेशां बाँधी रखते हैं। (१) यह सर्वथा शास्त्र विरूद्ध है। १३ मात्रक नामका एक पात्रा होताहै जिसमें गृहस्थके पास आहारादिक 8 लेके झोलामें रहे हुए बड़े पात्रमें डाला जाताहै, अथवा गुरु या विमार साधुके वास्ते घृतादिक उत्तम चीज ६ लाई जाती है, एक साधुके आहारका समावेश हो सके उतना वडा यह मात्रक होताहै। ४१ चोलपट्टा-चार हाथ है। लंबा होताहै, वृद्धोंके लिये दो हाथका भी लंबा रखा जा सकताहै।
ये १४ औधिक उपकरण कहे जाते हैं, इनके सिवाय संथारिया-उत्तरपट्टा-दंडा वगेरह औपग्रहिक उपकरण कहाते हैं, संथारिया और उत्तरपट्टा लंबाइमें अढाइ हाथ और चौडाईमें एक हाथ चार अंगुल होता है,
१-इसका विशेष खुलासा आगमानुसार मुहपत्ति का निर्णय और जाहिर उद्घोषणा नं० १-२-३ में देखो।
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॥८२॥
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साधुसाध्वी हूँ दंडा अपने अपने खंधेतक पहुंचे जितना लंबा होना चाहिये ।
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( २ - साध्वी के २५ उपकरण )
साध्विओंके औधिक उपकरण पचीस होते हैं, उनमेंसे चोलपट्टा छोडके बाकी १३ उपकरणतो साधुओंके समानही साध्विओं को भी रखनेकेहैं, चउदहमा उपकरण कमढक नामका होता है, जो कि कांसेकी बडी कटोरी ( तासली) के आकार जैसा तुबेका होता है, और वह एक एक साध्वीके एक एक होता है, उसीमें साध्वीयां आहार -पाणी करती हैं । इनके सिवाय ग्यारह उपकरण इस मुजबहैं- १५ अवग्रहानंतक - गुह्यप्रदेशको ढांकनेका एक कपडा जो पोतमें गडवार और स्पर्शमें मुलायम हो, वह शीलवतकी रक्षा के वास्ते रखा जा ताहै, इसका आकार जहाज ( वाहण ) की तरह दोनों छेडोंपर सांकडा और बीचमें चौडा होता है, यह लंगो - |टकी तरह बांधा जाता है । १६ पट्टक - चार अंगुल अथवा कुच्छ अधिक चौडा और अपनी कमर के अनुसार लंबा कपडेका चीरा होता है, उसके एक छेडे पर नाकी और दूसरे छेडे पर बोर लगा रहता है, जिससे वह पन्द्रहवें | उपकरण अवग्रहानंतकके आगले तथा पिछले दोनों छेडे दबाकर कमरमें बांधा जाता है । १७ उरुकार्ध -
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साधुसाध्वी आधि साथलतक पहुंच सके उतना तो चौडा और चारों तरफसे आखी कमर ढंकजाय जितना लंबा कपडा आवश्य॥८४॥ होताहै, उसमें जहां जहां चाहिये वहां वहां कस लगाके दोनों साथलोंमें तथा साथलोंके बीचमें उसतरहसे कीय विचार बांधना कि जिससे अवग्रहानंतक तथा पट्टक दोनों दबजाय और पहरे हुए जांगियेकी तरह देखनेमें आवे |
संग्रहः १८ चलनिका-यहभी अ|रुकके जैसीही जांगिये की तरह होतीहै, और उसी मुजब साथल आदिमें वांधी । जातीहै, केवल चौडाइमें गोडोंतक पहुंचे जितनी होतीहै । १९ अंतर्निवसनी ( मोटे साल के भीतर पहरनेका छोटा साडला )-कमरसे लगाके आधि जंघा ( पिंडि ) तक पहूंचे उतनी लंबी होतीहै । २० बाह्यनिवसनी ( मोटा साडला )- कमरसे लगाके पगों तक पहुंचजाय उतनी लंबी होतीहै, और वह चारों तरफसे ।
कंदोरेकी तरह डोरीसे बंधी हुई होतीहै । २१ कंचुक (कंचुआ ) हृदय ढांकनेके वास्ते अढाई हाथ लंबा Kऔर एक हाथ चौडा अथवा अपने अपने शररिके अनुसार लंबा चौडा होताहै, और वह स्तनोंके उपरसे |
डावे जीमणे दोनों तरफ कसोंसे बांधा जाताहै। २२ उपकक्षिका-डेढ डेढ हाथ लंबा चोडा समचोरस होता है है, उसके दोनों तरफ नाकी और वोर लगाके जीमणी तरफके पेट तथा पीठ को ढांककर डावे खंधे उपर तथा डावे
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साधुसाध्वी
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पसवाडे बांधी जातीहै । २३ वैकक्षिका-यहभी डेढ हाथ समचोरस होतीहै, परंतु यह डावी तरफके पेट तथा / आवश्यपीठको ढांककर जीमणे खंधे उपर तथा जीमणे पसवाडे नाकी बोरसे बांधी जातीहै। २४ संघाटी (साडी-चद्दर) काय विचार
संग्रहः ओढनके लिये चार होतीहैं, उनमें लंबाईतो सबकी साढेतीन तीन हाथ अथवा चार चार हाथ होतीहै, और पंने का (चौडाइ)में एक दो हाथकी, दो तीन तीन हाथकी तथा एक चार हाथकी होतीहै, उनमें से दो हाथके पंने वाली तो उपासरेंमेभी हरवक्त ओढे रहना,क्योंकि उपासरेमें भी साध्वी खुल्ले सरीरसे कभी नहीं बैठ सकती, तीन हाथके पंने । वाली एकतो गौचरी जानेके समय और दूसरी ठल्ले जाते समय ओढनी चाहिये, जो चार हाथके पंनेवाली हो | वह मंदिर,व्यारव्यान, पूजा आदिमें जाते समय ओढनी चाहिये। २५ स्कंधकरणी-यह चार चार हाथ लंबी चौडी समचोरस होतीहै और चोवडी करके खंधे उपर रखी जातीहै, जिससे ओढेहुए चद्दर वगेरह कपडे पवनसे इधर ||| उधर न होने पावें, और यदि कोई साध्वी अधिक रूपवान होवे तो लोकोंमें उसकी कुछ कुरूपता दिखानेके । वास्ते कंचुआ बांधे बाद इसी स्कंधकरणीको गोलमटोल करके पीठमें खंधोंके नीचली तरफ दूसरे कपडे ॥५॥ चीरेसे बांधकर उपरसे उपकक्षिका तथा वैकक्षिका बांध दी जातीहै, जिससे कूबडीके समान आकार देखने में ।
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संग्रहः
साधुसाध्वी आवे । ये २५ औधिक उपकरण पहलेके जमानेमें साध्वियां रखतीथीं, लेकिन “साहूणऽग्गोयरओ, वुच्छिन्नो आवश्य
दूसमाणुभावाओ । अजाणं पणवीस, सावयधम्मो य वोच्छिन्नो ॥१॥" तीर्थोद्गार पयन्ने की इस गाथाके |कीय विचार के अनुसार वह प्रवृत्ति आजकल विच्छेद होगइहै । औपग्रहिक उपकरण साधुके जैसेही साध्विओंकेभी होते हैं।
८ स्थंडिल-पडिलेहण-विचारसाधु तथा रात्रिपौषधिक श्रावक संध्या समय पडिक्कमणेके पहले "आगाढे आसन्ने” इत्यादि पाठ बोलते है हुए और गोल चक्करकी तरह फिरातेहुए ओघेसे या चरवलेसे २४ मांडले करके २४ स्थंडिल पडिलेहतेहैं उनमें , 2. ठल्ले मातरे जानेकी भूमि धारी जाती है, अत्यंत अशक्तिवालेके वास्ते संथारेके दोनों तरफ कमसे कम १-१ हाथ है।
जमीन छोडकर नन्दीक, मध्यम और दूर तीन तीन मिलाकर छ मांडले करने, थोडी शक्तिवालेके वास्ते उपाश्रयके . दरवाजे की माहिली बाजु दोनों तरफ ३-३ मिलाकर छ मांडले करने, कुछ अधिक शक्तिवालेके वास्ते उपाश्रयके । दरवाजेसे बाहर दोनों तरफ ३-३ मिलाकर छ मांडले करने, और जिसकी शक्ति ठीकसर होवे उसके वास्ते सौ हाथ दूर जो जमीन देख रखी हो उसके सामने इसी तरह छ मांडले करने, इस तरह २४ मांडले होतेहैं।
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साधुसाची
।। ८७॥
संग्रहः
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९पंचमहाव्रत-भावना-विचार
आवश्यप्राणातिपात आदि महाव्रतोंको स्थिर (मजबूत) करनेके लिये जो भावी जाय (अभ्यास करी जाय) वेकीय विचार भावना कहातीहैं, जैसे अभ्यास किये धिना विद्या विसर्जित होजातीहै यानि भूलजातेहैं, वैसे ही भावनाओंका | अभ्यास किये बिना अनेकतरहके दोष लगनेसे महाव्रत मलिन होजातेहैं, वास्ते भावनाओंका स्वरूप अच्छीतरह। जानकर उनका खूब अभ्यास करना चाहिये, वे भावना एक एक महावतकी ५-५ होनेसे पांचों महाव्रतोंकी । पञ्चीस होती हैं जो कि प्रवचनसारोद्धार गाथा ६३६ वीं से ६४० तक में आगे लिखे मुजब हैं। । पहले महावतकी पांच भावना
इरियासमिए सया जए,उवेह भुंजेज व पाणभोयणं। आयाणनिक्खेवदुगुंछसंजए, समाहिए संजयए मणो वइ।१।। | अर्थ- ईर्यासमितिमें सदा यत्न रक्खे, यानि चलते हुए चार हाथ भूमि आगे आगे देखता चले १, आहार या पाणी देखके वापरे, यानि वहरते समय तथा खाने पीनेके समय आहार तथा पाणी देखके ॥८॥ वहरे और खाये पीये २, हरएक चीज लेते तथा रखते समय उस चीजको तथा जमीनको देखकर तथा
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साधुसाध्वी ॥४८॥
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पूज-प्रमार्ज करके लेवे अथवा रखे ३, समाधिमें वर्तता हुआ साधु अपने मन तथा वचनको संयमित रखे । आवश्यअर्थात् मनसे किसीका बुरा नहीं चिंतवे ४, वचनसे किसीको बुरा लगे वैसा न बोले, तत्त्वार्थ सूत्रमें एषणा है कीय विचार समितिको पांचवीं भावना कही है ५। दूसरे महाव्रतकी पांच भावना
___अहस्स सच्चे अणुवीय भासए, जे कोहलोहभयमेव वजए।
से दीहरायं समुपहिया सया, मुणी हु मोसं परिवजए सिया ॥ २ ॥ अर्थ-जो साधु हास्य रहित सत्य बोलने वाला हो अर्थात् किसीकी हांसी-मश्करी नहीं करता हो १, अच्छीतरह सोच विचारकर बोलने वाला हो २, और क्रोध ३ लोभ ४ तथा भय ५ को वर्जता है वो ही मुनि मोक्षको नज्दीक देखनेके स्वभाववाला होकर निश्चयसे मृषावादको सदा त्यागता है। तीसरे महाव्रतकी पांच भावना
सयमेव उ उग्गहजायणे घडे, मइमं निसम्मा सइ भिख्खु उग्गहं। अणुन्नविय भुंजीय पाणभोयणं, जाइत्ता साहम्मियाण उग्गहं ॥३॥
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साधुसाध्वी
आवश्य
।।८९॥
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अर्थ- साधु खुद अपने मुखसे घरधणीके पास उतरने योग्य मकान आदिकी याचना करे, दूसरे गृहस्थ आदिके मुखसे न करावे १, मतिमान-साधु रजा लेकर उतरे बाद उसी जगहमेंसे यदि तृणभी लेना है कीय विचार हो तो घरधणीकी आज्ञा सुनकर लेनेका उद्यम करे, विना आज्ञाके न लेवे २, साधु अवग्रह (मकान आदि) की संग्रहः याचना सदा स्पष्ट मर्यादासे करे, यानि एक वार घरधणी ने दिये हुए अवग्रहमें भी बीमारी आदिके कारण ठल्ले 2 माने जानेके लिये अथवा हाथ पग धोनेके लिये स्थानकी याचना घरधणीके पास फिरसे करे ३, आहार-पाणी करना हो अथवा कपडा तथा पात्रा आदि कोई भी उपकरण नयेसर वापरनेके वास्ते निकालना हो तो गुरु । अथवा जो बडे हों उनकी आज्ञा विना नहीं करना, यदि आज्ञा विना करे तो गुरुअदत्त दोष लगे ४ जिसमें उतरना हो उसमें पहलेसे उतरे हुए अपने समान आचार वाले साधुओंकी रजा लेकर उतरना और उस मकान माहिली हर एक चीजभी उनकी रजा लेकर बापरनी ५ । चौथे महाव्रतकी पांच भावना
आहारगुत्ते अविभूसियप्पा, इत्थी न निज्झाय न संथवेज्जा । बुद्धे मुणी खुड्डकहं न कुजा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं ॥ ४ ॥
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साधुसाध्वी ॥९॥
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अर्थ-आहार गुप्त हो, यानि सदाके प्रमाणसे अधिक अथवा चीकणा-मीठा आदि पुष्टिकारक आहार विना / आवश्यकारण न करे १, अविभूषित आत्मा हो, अर्थात् अपने शरीरकी स्नान-विलेपन आदिसे तथा कपडे आदि कीय विचार उपकरणोंकी धोने धानेसे विभूषा न करे २, स्त्रिओंको तथा उनके हाथ-पग-स्तन आदि अवयवोंको एकाग्र है।
संग्रहा दृष्टिसे न देखे ३, स्त्रिओंसे परिचय न करे, यानि स्त्रीके वापरे हुए आसन-पाट वगेरह दो घडिके पहले न वापरे ३, है। जिसमें स्त्रिओंका रहेवास हो अथवा स्त्रिओंकी तस्वीरें लगी हों तथा पशु अथवा नपुंसकोंका रहेवास हो उस / मकानमें साधुको न रहना ४, तत्त्वके जाणकार मुनि क्षुद्रकथा (स्त्री संबंधी कथा अथवा केवल स्त्रीओंकी, साध्वी केवल पुरुषोंकी पर्षदा-सभामें धर्मकथा-व्याख्यानादि)न करे ५, इन पांच भावनाओंसे भावित अंतः ।। करणवाला धर्मसेवनमें तत्पर मुनि अपने ब्रह्मचर्यको खूब पुष्ट करताहै । पांचमें महाव्रतकी पांच भावना
जे सद्दरूवरसगंधमागए, फासे य संपप्प मणुन्नपावए । ___ गेहिं पओसं न करेज पंडिए, से होइ दंते विरए अकिंचणे ॥५॥ अर्थ-जो पंडित (तत्त्वका जाण) साधु इष्ट अथवा अनिष्ट यानि भले अथवा बुरे शब्द १, रूप २,
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साधसाध्वी इरस ३, गंध ४ और स्पशॉको प्राप्त करके राग अथवा द्वेष न करे वो इद्रियोंको जीतनेवाला सर्व सावध | आवश्य
योगसे निवृत्त हुआ अपरिग्रही (परिग्रह रहित) होताहै, यानि पांचों इंद्रियोंके विषयोंमें राग द्वेष करनेसे पंचम |कीय विचार महाव्रतकी विराधना होतीहै और इनमें राग द्वेष न करना ये ही पांचवें महाव्रतकी पांच भावनाहे ॥
संग्रहः १० संडाशक-प्रमार्जन-विचारपिछली (लारली) तरफ कमरसे नीचे जीमणा पग, दोनों पगोंके विचला भाग और डावा पग इन तीनोंको ओघेसे प्रमार्जन करना ३, इसी तरह आगली तरफभी कमरसे नीचे जीमणा पग दोनों पगोंके विचला भाग, तथा डाबा पग, इन तीनोंको ओघेसे प्रमार्जे ६, बाद नीचे बैठते हुए आगे पीछेकी भूमि तीनवार । ओघेसे प्रमा ९, बाद जीमणे हाथमें ली हुइ मुहपत्तिसे ललाटकी जीमणी बाजूसे लगाकर सारा ललाट, सीधा किया हुआ सारा डाबा हाथ तथा भेला करके पिछली तरफसे उसी डाबे हाथको कूणी तक प्रमार्जन करे १० बाद डावे हाथमें ली हुई मुहपत्तिसे ललाटकी डाबी बाजूसे लगाकर सारा ललाट, सीधा किया ॥१॥ हुआ सारा जीमणा हाथ तथा भेला करके पिछली तरफसे उसी जीमणे हाथको कूणीतक और लगतेही ओघेकी
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॥९२॥
साधुसाध्वी दंडी प्रमार्जे ११, बाद जीमणे हाथमें मुहपत्ति लेकर साधु डाबे गोडेको तथा श्रावक चरवलेकी दशियां तीनवार प्रमार्जे १४, खडे होकर आसन के पिछली तरफ जाते हुए लारेकी भूमि तीन वेला प्रमार्जे १७, इस तरह सब जगह के मिलानेपर १७ वेला प्रमार्जन होता है, इसीका नाम संडाशक प्रमार्जन (संडासे पूंजना) है । वांदणे देते हुए पहले वांदणे में १७, और दूसरेमें १४ प्रमार्जना होती हैं, क्योंकि दूसरी वेला वांदणे देकर खडे हुए बाद आसनके पिछली तरफ नहीं जाते, किंतु उसी जगह खडे रहतेहैं, जिससे पिछली भूमि प्रमार्जनेके तीन संडाशक छूट जाते हैं, इसी प्रकार खमासमणा देना, अभ्भुट्टिया खमाना आदिमें भी चउदे ही संडाशक पूंजे जाते हैं ॥ १९ असज्झाय- विचार -
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असज्झायके मुख्यतया आत्मसमुत्थ (साधु साध्वियोंसही होने वाला) और परसमुत्थ (गृहस्थ आदिसे होने वाला) ये दो भेद हैं, १ आत्मसमुत्थ के भी दो भेद हैं- १ - साधुके या साध्वीके ठोकर वगैरह लगनेसे अथवा नासूर भगंदरादिकमेंसे रुधिर निकले तो उपासरेसे सो हाथ दूर जाकर पाणीसे धोकर पट्टाबांधे, बाद उसको और दूसरोंको सूत्र पढना पढाना कल्पता है, यदि वह पट्टा रूधिरसे भींजजाय तो उसी पट्टेके उपर राख
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साधुसाध्वी भुरका के दूसरा पट्टा बांधे, यदि दूसराभी भींजजाय तो उसी मुजब तीसरा पट्टा बांधे, बाद पढना कल्पता है, यदि तीसरा पट्टाभी भींजजाय तो दूसरे साधु साध्वी सा हाथके बाहर अन्य उपासरे आदिमें जाकर वांचें - पढें । २- जिस साध्वीको अटकाव आयाहो उनको तो तीन दिनतक कुच्छभी वांचना-पढना नहीं कल्पता, परंतु यदि एक पट्टा भींजजाय तो उस पट्टेके उपर राख भुरकाके दूसरा पट्टा बांधे, वहभी यदि भींजजाय तो | उसीतरह राख भुरकाके तीसरा पट्टा बांधे, इसी तरह करते हुए उपराउपरी सात पट्टे बांधे वहां तकतो अन्य साध्वियोंको उसी उपासरे में वांचना - पढना कल्पताहै, यदि सातमा पट्टाभी रुधिरसे भींजजाय तो सो हाथके बाहर अन्य उपासरे में जाकर पढ़ें, अटकावके तीन दिन बीत जाने के बादभी यदि रुधिर देखनेमें आने परभी | पट्टा बांधकर उसको खुदकोभी वांचना- पढना कल्पताहै, यदि पट्टा रुधिरसे भींजजाय तो पहले लिखे मुजब दूसरा- तीसरा पट्टा बांधते हुए उपराउपरी ७ सात पट्टे बांधकेभी पढना कल्पताहै, परन्तु सातमा पट्टा भींजे बाद जिसको अटकाव आयाथा उस साध्वीको पढना नहीं कल्पता और अन्य साध्वियों कोभी सो हाथ के बाहर दूसरे उपासरेमें जाकर पढना चाहिये ।
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आवश्य
कीय विचार
संग्रह:
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आवश्यकीय विचार संग्रह
साधुसाध्वी
२ पर समुत्थ असज्झायके मुख्य पांच भेद और उनके अवांतर भेद इस मुजब हैं॥९४ ॥
१-संजम-घातक१-धूंअर (१) (बूंद) पड़नी शुरु होवे वहांसे लगाकर जहांतक बंध न होवे वहांतक असज्झाय. २-सचित्तरज (२)-निरंतर पडे तो तीन दिनके बाद जहांतक बंध न होवे वहांतक असज्झाय.
३-भिन्नवर्षा-जिसकी धाराओंसे पाणीमें बुबुदे (परपोटे) ऊठने लगें वैसा जोरदार वर्षाद् निरंतर वर्षे तो तीन दिनके बाद, जिससे पाणीमें बुबुदे न ऊठे वैसा थोडा जोरदार वर्षाद् निरंतर वर्षे तो पांच दिनके बाद, और बिल्कुल झीणे झीणे फूसार जैसा वर्षाद् निरंतर वर्षे तो सात दिनके बाद जबतक बंध न
होवे तबतक असज्झाय। 31 (१)- अर पडनी शुरु होतेही सबजगह अप्कायके जीव फैलजातेहै. वास्ते उस समय अपना सारा शरीर कंबलीसे ढांककर लकिसी ऊंडी ओरड में साधुको बैठना चाहिये, मुखभी नहीं उघाडना, प्रतिक्रमण आदि क्रियाभी धूअर मिटे बाद करनी चाहिये, इसी
तरह सचित्तरज पडनी शुरु होवे वहांसे लगाकर तीन दिन बीतनेके बाद तथा तीनों प्रकारकी भिन्न वर्षा में अनुक्रमसे तीन, पांच और सात | |दिन के बाद जबतक म मिटे तबतक कुच्छभी क्रिया नहीं करनी । (२)-पवनके जोरसे उडीहुई जंगलकी झीणी झीणी धूल जो थोडीसी लालरंगकी देनने आवे वह सचित्तरज कहातीहै।
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साधुसाध्वी
आवश्यकीय विचार
संग्रहः
२-औत्पातिक१.-मांस अथवा रुधिरकी वर्षा होवे तो एक अहोरात्रि (दिनरात) का असज्झाय, २-अचित्तरज (१) केश, पाणीके करे आदि पत्थरकी वर्षा तथा रजोद्घात (२) होवे तो जबतक बंध न होवे तबतक असज्झाय ।
३-सादिव्य१-गंधर्वनगर (३) दिग्दाह (४) उल्कापात (५) कनकपात (६) यूपक (७) तथा यक्षो(१)-सपेद धुंके समान रंगकी रज पडे वह अचित्तरजोवृष्टि कहातीहै । (२)-दिशाओंमें चारों तरफ अंधेरा होजाय अथवा बडीभारी फोजके चलनेसे जैसे रज उडे वैसे आकाशमें चारों तरफसे रजपडे वह रजोद्घात कहाताहै।
(३)-चक्रवर्ती आदिके नगरको उत्पात सूचित करनेके लिये उनके नगर उपर संध्या समय आकाशमें देवकृत नगरकी रचना देखनेमें आवे वह गंधर्वनगर' कहाताहै। (४)-जसे कोई महानगर जलता हो वैसे किसी एक दिशामें आकाशके अंदर नीचे तो अंधेरा और उपर उजालेवाली अग्निकी ज्वालायें देखनेमें आवें वह 'दिग्दाह' कहाताहै। (५)-तारा तूटनेके समय यदि प्रकाश होवे और पीछे पीछे धोला लीसोटा बंधजाय अथवा केवल प्रकाशही होवे वह 'उल्कापात' कहाताहै । (६)-तूटते समय जिसका प्रकाश न होवे और धोला लीसोटाभी न बंधे किन्तु अग्निके अंगारेके समान जलता हुआ तारा तूटे वह 'कनकपात' कहाताहै। चौमासेमें सात, |सीयाले में पांच और उन्हालेमें तीन कनकपात होनेके बाद एक पहर असज्झाय । (७) शुक्ल पक्षमें एकम या दूज (जिसदिन चंद्र उदय होवे उस दिन) से तीन विनतक संध्याको सूर्य अस्त हुए बाद एक एक पहर तक 'यूपक' कहाताहै, यह असज्झाय केवल कालिक
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।। ९६ ।।
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हिप्स (१) होवे तो एक पहोर असज्झाय ।
२ - चौमासे विना शेषाकालमें यदि विजलि चमके अथवा वर्षा (२) होवे तो एक पहोर और गर्जारव होवे तो दो पहोर असज्झाय ।
३ - ग्रहण - चंद्रग्रहण होवे तो जघन्य ८ पहोर और उत्कृष्ट १२ पहोर और सूर्यग्रहण होवे तो जघन्य | १२ पहोर तथा उत्कृष्ट १६ पहोर असज्झाय । अब जघन्य तथा उत्कृष्टका विवरण आगे लिख बताते हैंचंद्रग्रहण - उदय होते हुएही चंद्रमाके ग्रहण लगे और कुच्छ देरके बाद छूटजाय अथवा रात्रिके
सूत्रों के लिये है और जगत में कुच्छभावी उत्पात सूचक किसी दिन उदय अथवा अस्त होनेके समय सूर्य बिंबके नीचे लाल अथवा काले | रंगका गाडीकी ऊधीके समान आकारका दंडा देखनेमें आवे तो वहभी 'यूपक' कहाताहै । ( १ ) - किसी एक दिशामें ठहर ठहरके बिजलीके समान प्रकाश होवे. अथवा बिजलीके समान प्रकाश करता हुआ अग्नि सहित पिशाचका रूप देखने में आवे वह 'यक्षोदिप्त ' अथवा 'यक्षादित' या 'यक्षदिप्त' कहता है ( २ ) - शेषाकाल में वर्षा होनेपर असज्झाय होने का संस्कृत या प्राकृत ग्रंथों में तो किसी में नहीं देखाजाता, परन्तु भाषाके असज्झाय विचारोंमें प्रायः सर्वत्र लिखा है. अतः यहांभी लिखदिया है । इसमें उत्तराध्ययन आदि कालिक सूत्रोंका असज्झाय होता है, परन्तु दशवैकालिक आदि उत्कालिक सूत्र पढने में कोई हर्ज नहीं, इसतरह पक्खी परिक्रमणा करे बादभी रात में प्रथम पहर तक कालिक सूत्रोंका असज्झाय होता है ।
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संग्रह:
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साधुसाध्वी
अंतमें यानि सवेर होनेके समयमें ग्रहण लगके ग्रहण सहितही चंद्रमा अस्त होवे तो जघन्य आठ
आवश्यपहोर असज्झाय।
कीय विचार भावी उत्पात सूचक ग्रहण युक्त चन्द्रमा उदय होकर सारी रात ग्रहण सहित रहे और सवेरे 1 संग्रहः ग्रहण सहित ही अस्त होजाय, अथवा 'आज पूनमको चन्द्रग्रहण होनेवालाहै ' ऐसी तो खबर होवे || परंतु किस समय होवेगा ? इसकी खबर नहीं होवे और बादलोंके कारण चन्द्रमा भी देखनेमें न आवे | इससे उस रातको सज्झाय नहीं करे, अस्तके समय बादले दूर हटनेसे अस्त होता हुआ चन्द्रमा ग्रहण । सहित देखनेमें आवे तो उस रातको शामिल गिनने पर ४ पहोर तो ग्रहणवाली रातके और दूसरे दिन तथा । रातके ८ पहोर ये दोनों मिलाकर १२ पहोरका उत्कृष्ट असज्झाय चन्द्र ग्रहणका है । आठ तथा १२ पहोर के बीचका मध्यम असज्झाय, अर्थात् - ग्रहण रहित उदय हुआ चंद्रमा यदि ग्रहण सहित अस्त होवे | तो जिस समय ग्रहण शुरु होवे उस समय से लगाके दूसरे दिन तथा रातकी समाप्ति तक असज्झाय, 3॥९७॥ यदि कुच्छ रात्रि जानेके बाद ग्रहण शुरु होवे और घडी दो घडी रहकर रातमें ही छूट जाय तो उस
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संग्रह
साधुसाध्वी रात्रि तक ही असल्झाय होवे, सूर्य उदयके बाद नहीं । ॥१८॥ सूर्य ग्रहण-सूर्य अस्त होनेके समय ग्रहण लगे और ग्रहण सहित सूर्य अस्त होजाय तो उसकीय विचार
रातके ४ पहोर तथा दूसरे दिन और रातके ८ पहोर ये दोनों मिलकर १२ पहोरका जघन्य असल्झाय। है ग्रहण युक्त सूर्य उदय होकर किसी भावी उत्पातके कारण आखा दिन ग्रहण सहित रहे और
संध्याको ग्रहण सहित ही अस्त होजाय, अथवा 'आज अमावसको सूर्य ग्रहण होनेवाला है ' इतना तो मालूम हो परन्तु 'अमुक टाइममें होवेगा' यह मालूम न होवे और आकाशमें बादलोंके कारण सूर्यभी देखने में न आवे जिससे यह मालूम पड सके कि ग्रहण है या नहीं, इससे दिन भर सज्झाय न करे, संध्या समय बादले दूर होजानेसे अस्त होता हुआ सूर्य ग्रहण सहित देखने में आवे तो अमावसके * दिन तथा रातके ८ पहोर और दूसरे दिन तथा रातके ८ पहोर ये दोनों मिलकर १६ पहोरका उत्कृष्ट है असज्झाय । कदाचित् कभी दुपहरको या तीसरे पहोरको ग्रहणकी शुरुआत होकर ग्रहण सहित ही यदि ॥९८ ॥ सूर्य अस्त होजाय तो जिस समय ग्रहण शुरु होवे वहांसे लगाकर दूसरे दिन तथा रातकी समाप्ति तक
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साधसाध्वी
मध्यम असल्झाय । यदि सूर्य उदयके बाद ( १ ) ग्रहण लगकर उसी दिन में छूटजाय तो उस दिन आवश्यरातका ही असज्झाय होताहै, दूसरे दिनका सूर्य उदय हुए बाद नहीं।
कीय विचार ४-निर्घात ( विजली का पडना) (२) तथा गुंजित (३) होवे तो १ अहोरात्रि असल्झाय। || संग्रह
५-सूर्यके उदय तथा अस्त होनेके पहले १-१ घडी और पीछे भी १-१ घडी मिलकर २-२ घडीकी और मध्याव (मध्यदिन-दुपहर) तथा आधी रातको २-२घडीकी ये चार संध्या (कालवेला) कहातीहें, इनमें भी अस० ।
६-आसोज तथा चैत्र सुदि पांचमके दुपहर बाद कार्तिक तथा वैशाख वदी एकम तक अस०
७-आषाढ तथा कार्तिक चौमासी पडिकमणा किये बाद श्रावण तथा मगसिर वदी एकम तक अस० पिछली दोनों असज्झायोंमें कार्तिक, मगसिर , वैशाख तथा श्रावण वदी एकम ये चारों महापडवा कहाती
८-फागण चौमासीमें होलि मंगलावे (सलगावे ) वहांसे लगाके जबतक धूलेटी (धूलसे रमना)
(१)-प्रहण सहित उदय होकर कुच्छ देरके बाद यदि छूटजाय तो उसदिन तथा रातकाही मसज्माय समझना चाहिये || " (२)बादले हो चाहेन होवे व्यंतर देवताने किये हुए गर्जारवकोभी 'निर्घात' कहतेहैं। (३)-गर्जारव होनेके पीरही जो गुंजता एमालूब जोरसे गुंजारव होवे यह गंजित' कहाताहै।
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साधुसाध्वी बंध न होवे तबतक असज्झाय (१)।
आवश्य४-व्युद्ग्रह
कीय विचार
संग्रहः १-राजाओंकी-दंडाधिकारी (कोटवाल आदि) ओं की-सेनापतिओंकी लडाई होती हो । अथवा उपासरेके आसपास सो सो हाथमें स्त्री-पुरुष या मल्ल लोक लडते हों, पर चक्रका भय हो यानि अन्य || राजाने अपनी फोजसे गाम या शहरको घेर लिया हो, चोर धाडेती आदिका अत्यन्त भय हो, म्लेच्छ लोकोंकार है उपद्रव (दंगा-फिसाद) हो तो ये सब जबतक बंध न होवें तबतक असज्झाय । बंध होनेके बाद भी है। एक अहोरात्रि (२) असज्झाय ।
(१)-इसीतरह किसी देश-गाम-नगर आदिमें अन्य भी किसी देवी देवताओं के पूजा निमित्त जो महोत्सव होते हो जिसमें जीव हिंसा अधिक होती हो तो उस देश-गाम आदिमें जितने दिन तक वह महोत्सव रहें उतने दिन तक असज्झाय मानना चाहिये ।
(२) जहां जहां अहोरात्रि लिखा है वहां वहां सर्वत्र यह समझना कि-जिस टाइम में असज्झाय हुआ हो दूसरे दिन उस टाइम तक सज्झाय छोडने की जरूरत नहीं, किंतु घडी रात रहते भी यदि असज्झाय हुआ हो तो भी सवेरे सूर्य उदय हुए बाद सज्झाय करना X॥१० ॥ कल्पताहै। जहां जहां पहारों की गिणती लिखी है वहां वहां उतने पूरे होने चाहिये ।
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साधुसाध्वी
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२-जा कालकर जाय तो जब तक दूसरे राजाका अभिषेक न होवे तब तक तथा दूसरे राजाका || आवश्यअभिषेक होजाने परभी जब तक लोकोंमें शोक रहे तब तक असज्झाय।
कीय विचार । ३- 'यहांका राजा अन्य देशमें काल करगया' ऐसे समाचार जिस दिन सुननेमें आवे उस संग्रहः दिन से १ अहोरात्रिका असल्झाय ।
४- जो गाम या शहरमें मुखिया हो अथवा जो राजका मुख्य अधिकारी हो । इनमें से किसी का मृत्यु होवे तो ८ पहोर असल्झाय । । ५- जो बहुत कुटुम्बवाला हो जो सिज्जातर ( जिसमें साधु उतरे उस मकान ) का स्वामी हो, इनमें से किसीकी मृत्यु होवे तथा उपासरेके आस पास सात (७) घर तकमें किसी प्रसिद्ध स्त्री या । पुरुषका मृत्यु होवे तो १ अहोरात्रिका असल्झाय ।
६- उपासरेके आस पास सो सो हाथमें अनाथ (लावारिश मनुष्यका मृतक मुरदा जब तक In १.१॥ पडा रहे तब तक असल्झाय, उठाये बाद नहीं ।
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साधुसाध्वी
॥ १०२॥ * दिन में नहीं।
७-कोई रोता हो तो उसके रोनेका शब्द रातमें जहां तक सुननेमें आवे वहां तक असल्झाय, परन्तु - आवश्य
कीय विचार - जो आचार्य हो अथवा जो विद्या सिद्ध या शिष्य समुदाय आदि महाऋद्धि वाला हो, जो प्रह घोर तपस्वी हो, जिसने अणसण किया हो, उसी गाम-नगर आदिमें जिसके गृहस्थपणेके सगे संबंधी है। अधिक हों, ऐसा कोई साधु यदि काल करजाय तो तीन दिन तक असल्झाय ।
५-शारीरिक१- जलमें चलने वाले मच्छ आदि जलचर, जमीन ऊपर फिरने वाले गो-भैंस आदि थलचर, और आकाशमें उड़ने वाले कबूतर आदि खेचर, इन तीन प्रकार के तिर्यचों में से किसीभी पंचेंद्रीय चिर्तयके में मांस-चमडा-रुधिर (लोही) और हड्डी, इनमें से कोई थोडासाभी उपासरेके आसपास साठ (६०) हाथ ) तककी भूमिमें यदि पडे तो तीन पहोरका असज्झाय।
२-उपासरेके आसपास साठ (६०) हाथ तकमें यदि गो-भैंस आदि कोई तिर्यच व्यावे तो है
॥१०२॥
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साधुसाध्वी 4 मैली पडनेके बाद ३ पहोर असल्झाय।
आवश्य३-व्यावे तो दूसरी जगह पर, लेकिन मैली उपासरेके नजीक ६० हाथ तकमें यदि पडे तथा कार
कीय विचार
संग्रहः इंडा फूटे तो ३ पहोर असज्झाय । उपासरे में अथवा उपासरके बाहर भी किसी कपडे आदिके ऊपर है। २ इंडा फूटे तो ६० हाथसे दूर जाकर कपडा धो डाले तो असज्झाय नहीं होता, परन्तु भूमि ऊपर यदि घटे
और उसका रस जमीन में उतर जाय तब तो चाहे जमीन ऊपरसे निकाल देवे तो भी तीन पहोरका | असल्झाय अवश्य होता है, क्योंकि जमीन खोद कर कुच्छ निकाली नहीं जाती। जिसमें मक्खीका पगडूब सके उतना भी इंडेके रसका अथवा रुधिरका बिंदु यदि जमीन ऊपर पडे तो असल्झाय होता है।
४-उपासरेके आसपास सो सो हाथ तकमें मनुष्यका मांस-चमडा (चामडी ) और रुधिर पडे तो मनुष्यके शरीरसे जुदे हुए बाद १ अहोरात्रि असज्झाय । मांस और चमडी तो तीन पहोरके पहले भी । यदि उठा देवे तो असज्झाय मिट जाताहै, परंतु पडे हुए रुधिरको उठा देवे तो भी १ अहोरात्रि असज्झाय ॥१०॥ होता है, घडि आधी घडी रात रहते भी जो रुधिर पडा हो उस को उसी वख्त उठवा देवे तो सवेरे सूर्य
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साधुसाध्वी
आवश्य
॥१०४॥
* उदयके बाद असल्झाय मिट जाता है। ५- उपासरेके आसपास सो सो हाथ तकमें किसी स्त्र के यदि लडका जन्मे तो ७ दिन और .कीय विचार
संग्रहः लडकी जन्मे तो ८ दिन असज्झाय ।
६- उपासरेके नजीक सो सो हाथ तकमें किसी स्त्रीके 'ऋतु धर्म ( अटकाव ) आया है ' ऐसा है है मालूम होवे तो ३ दिन असज्झाय, ३ दिनके बाद भी रोगादिकके कारण किसीके रुधिर बहता रहे तो । असज्झाय ओहडावणऽत्थं ' काउसम्ग करने पर सज्झाय करना कल्पताहै।
७- उपासरेके नजीक सो सो हाथ तकमें किसीके दांत या दाढ यदि पडजाय तो तलाश करके । दूर हटवा देना, यदि न मिले तो ' दंत ओहडावणऽत्थं ' काउसग्ग करने पर सज्झाय करना कल्पताहै ।
८-मनुष्यकी हड्डी शरीरसे जुदी हुए बाद १२ वर्ष तक जहां पडी रहे वहां सो सो हाथ तक में है असल्झाय होता है, वास्ते उपासरेके आसपास सो सो हाथ तकमें मनुष्यकी हड्डी यदि पडी हो तो उसको
IST१०४॥ उठवाये विना सज्झाय करना नहीं कल्पताहै ।
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साधुसाध्वी
॥१०५॥
संग्रहः
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९-मनुष्य या तिर्यंच, चाहे जिसकी हो, जो हड्डी श्मशानमें जलगई हो, अथवा किसी जगहसे 21
आवश्यपाणीमें बहकर आई हो उसका असज्झाय नहीं होता ।
कीय विचार १०-मनुष्यके शरीर संबंधी अवयव अथवा रुधिर सौ हाथके अन्दर और तिर्यचके शरीर संबंधी । अवयव अथवा रुधिर ६० हाथके अन्दरभी जिस जगह पडे हों उसके और उपासरेके बीचमें आमेसामे दोनों गाडियां एक साथ निकल सकें वैसा मोटा मार्ग पडता हो तो असज्झाय नहीं होता, किसीके पुत्र या पुत्रिका | जन्म होवे अथवा तिर्यंच व्यावे तो उममेंभी इसी तरह समझना । | ११-मनुष्यके चाहे तिर्यचके शरीरका अवयव अथवा रुधिर जिस जगह पडे वह जगह यदि वर्षादके पानीसे धोवा जाय अथवा अग्निसे जल जाय तो असम्झाय नहीं होता।
१२-कोई मांसाहारी जानवर खायेहुये मांसादिको वमन करके पीछा निकाल देवे तो उसका तथा रंधाये हुए मांसादिका असज्झाय नहीं होता।
१३-मांसादिक खाया हुआ कोई जानवर उपासरेके पासमें यदि खडा रहे तो उसके मुखपर या अन्य
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१०५॥
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साधुसाध्वी है किसी अवयव ऊपर यदि रुधिरादिक न लगा हो तब तो असज्झाय नहीं होता, परन्तु रुधिरादिक लगा हो तो जबतक खड़ा रहे तबतक असज्झाय ।
॥ १०६ ॥
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प्रकीर्णक- विचार -
१ - एक पहोर रातवीते वहां तक देवसी पडिकमणा करना कल्पता है, और आवश्यक चूर्णिके अभिप्रायसे उग्घाडा पोरिसीका वखत होवे वहांतक तथा व्यवहार सूत्रके अभिप्रायसे दो पहोर दिन चढे वहांतक राइ पडिकमणा करना कल्पता है ।
२–
- 'सिद्धाणं बुद्धाणं' में की " चत्तारि अट्ठ दस दोय वंदिया" यह गाथा बोलते हुए शरीरको इधर | उधर घुमाना नहीं ।
३ – पडिकमणा आदि हरएक क्रियामें जो कोईभी सूत्र बोलना वह इधर उधर चित्त रखके अस्त व्यस्त पणेसे नहीं बोलना, किंतु संपदा आदिका उपयोग रखकर शुद्ध उच्चारण पूर्वक बोलना । ४ -- सवेरे राइ पडिक्कमणेकी शुरुआत में "जय उसामि" का १, राइ पडिक्कमणेके अंत में " परसमय
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आवश्य
कीय विचार
संग्रह:
।। १०६ ।।
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संग्रहः
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साधुसाध्वी तिमिरतराणि" का २, मंदिरमें ३, पञ्चक्खाण पारनेका ४, सवेरको आहार करे बाद ५, देवसी पडिक्कमणकी आवश्य॥ १७ ॥शुरुआतका ६, संथारा पोरिसी भणाते समय ७, ये सात चैत्यवंदन साधु साध्विओंको हमेशां करने चाहिए। कीय विचार
५-सवेरे पडिलेहण करे बाद १, संध्या की पडिलेहणके बीचमें २, देवसी पडिक्कमणेके अंतमें अथवा ।। पञ्चक्खाण पारती वखत ३, राइ पडिक्कमणेकी शुरुआतमें ४, इस तरह दिनमें चारवार सज्झाय करने की है। | ६-जिन जिन क्रियाओंमें पालखी लगाके बैठनेका न होवे किंतु उभे पगोंसे बैठनेका होवे अथवा ।
खडे रहनेका होवे उन क्रियाओंमें आसनको ओघेसे एक तरफ हटा देना, परंतु उसके उपरही न रहना ।। ४ ७-लौकिक टीपणेके अनुसार श्रावण महीना बढजाय तो आषाढ चौमासीसे पचासमें दिन दूसरे ४ श्रावण सुदी चौथको संवच्छरी पडिक्कमणा करना, भादवेमें शास्त्र विरुद्ध अस्सी (८०) में दिन नहीं करना ।
८--यदि भादवे दो होवे तो आषाढ चौमासीसे पचासमें दिन पहले भादवे सुदी चौथको संवच्छरी 5 पडिक्कमणा करना परन्तु दूसरे भादवेमें अस्सी (८०) दिने नहीं करना ।
९--लौकिक टीपणेमें संवच्छरीकी चौथका यदि क्षय होवे तो आगम सम्मत पंचमीके दिन और "
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॥१०॥
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साधुसाध्वी । यदि पंचमीका क्षय होवे तो आचरणा सम्मत चौथ के दिन संवच्छरी पडिक्कमणा करना, परंतु आगम और / आवश्य
+कीय विचार ॥१०८॥ आचरणा दोनोंसे विरुद्ध होके तीजको कभी नहीं करना।
संग्रहः १०-लौकिक टीपणेमें यदि संवच्छरीकी चौथ दो होवे तो संपूर्ण ६० घडीकी पहली चौथके दिन है। संवच्छरी पडिक्कमणा करना, परंतु १-२ अथवा १०-२० पलकी अथवा घडी दो घडीकी अधूरी दूसरी चौथ के दिन नहीं करना, यदि पंचमी दो होवे तो आचरणा सम्मत चौथ के दिन संवच्छरी पडिकमणा करना, परंतु आचरणा विरुद्ध होके झूटी कल्पनासे चौथ मानकर पहली पंचमीको संवच्छरी पडिक्कमणा नहीं करना।
११-लौकिक टीपणेमें किसीभी महिनेकी पूनम या अमावस यदि दो होवे तो पक्खी तथा चौमासी पडिक्कमणा चउदसके दिन करना, पहली पूनम या अमावसके दिन नहीं करना। । १२-लौकिक टीपणेमें किसीभी महिनेकी पूनम या अमावसका क्षय होवे तो पक्खी और चौमासी । 2. पडिक्कमणा तथा पक्खी संबंधी अथवा चउदस संबंधी उपवास चउदसके दिनही करना, परंतु अपनी मनः
कल्पनासे, तेरसको चउदस और चउदसको पूनम या अमावस मानके तेरसके दिन नहीं करना, जो कोई
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संग्रहः
साधुसाध्वी चउदस-पूनम या चउदस-अमावसका छठ (बेला ) करता होवे वह तेरस और चउदसका बेला कर लेवे आवश्य
कीय विचार २०१बालेकिन पक्खी तथा चौमासी पडिक्कमणा तो चउदसकाही करे ।
१३-लौकिक टीपणेमें किसीभी महिनेकी चउदस यदि दो होवे तो चउदस या पक्खीका उपवास तथा पक्खी और चौमासी पडिकमणा सूर्य उदय युक्त संपूर्ण साठ (६०) घडीकी पहली चउदसके दिन करना, घडी आधी घडीकी दूसरी अधूरी चउदसके दिन नहीं करना, अलबत्ता लीलोतरीका त्याग, शीलवत का पालना आदि अगता तो पहली और दूसरी दोनों चउदसोंके दिन गृहस्थोंको पालना चाहिए, ज्यादा पालने में कोई नुक्सान नहींहै, लाभहीहे, कमती पालनेमें एक पर्वतिथिकी विराधनाके कारण जरूर अलाभ (नुक्सान) है। 3 १४-लौकिक टपिणेमें किसीभी महिनेकी चउदसका क्षय होवे तो बंधी (१४ वर्ष १४ महिने 3
आदिके प्रमाणसे उचरी हुइ) चउदसके व्रतका उपवास तो तेरस को कर लेना परंतु पक्खीका उपवास तथा । पक्खी और चौमासी पडिक्कमणा आगमसम्मत पूनम या अमावसके दिन करना, तेरसके दिन नहीं। ॥१९॥ | १५--लौकिक टीपणेमें किसीभी महिनेकी दूज ( बीज ), पंचमी तथा इग्यारस इनमेंसे कोईभी ।
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संग्रहा
साधुसाध्वी के पर्वतिथि यदि दो होवे तो उस पर्वतिथिका उपवास आदि व्रत-नियम पहली पर्व तिथिमें करना, अर्थात् आवश्य॥११०॥ उदय तथा अस्त दोनों सहित संपूर्ण साठ (६०) घडीकी पहली दूज, पहली पंचमी और पहली इग्यारस * कीय विचार
के दिन उपवास आदि व्रत-नियम करना, लीलोतरीका त्याग तथा शीलवतका पालना आदि अगता पहली हैं। और दूसरी दोनों पर्वतिथिओंमें गृहस्थोंको पालना चाहिए।
१६-लौकिक टीपणेमें किसीभी महिनेकी दूज, पंचमी तथा इग्यारस इनमेंसे चाहे जिस पर्वतिथि है, का क्षय होवे तो उस पर्वतिथिके उपवास आदि कृत्य पहली तिथिमें करना, अर्थात् दूजका क्षय होवे तो है हजके व्रत नियम एकमके दिन, पंचमीका क्षय होवे तो पंचमीके व्रत-नियम चौथके दिन और इग्यारसका है। क्षय होवे तो इग्यारसके व्रत-नियम दशमके दिन करने ।
१७-लौकिक टीपणेमें चाहे जिस महीनेके कृष्ण (वद-अंधेरिए) पक्षकी इग्यारस यदि दो होवे । तो दशमका एकासणा दशमके दिनही करना, परन्तु अपनी मनः कल्पनासे दो दशम मानके दूसरी दशम जो कि 8/॥ ११० ॥ ज्योतिषके हिसाबसे उदय तथा अस्त दोनों सहित संपूर्ण साठ (६० ) घडीकी पहली इग्यारसहै उस
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साधुसाध्वी के दिन नहीं करना । इसी तरह यदि इग्यारसका क्षय होवे तोभी दशमका एकासणा तो दशमकेही दिन करना, आवश्य॥ १११ ॥ परंतु ज्योतिषके हिसाबसे सूर्य उदय युक्त दशम तिथीको अपनी मनः कल्पनासे इग्यारस मानकर उसके ।
कीय विचार
सग्रह पहले नवमी जो कि वास्तवमें ज्योतिषके गणितानुसार सूर्य उदय युक्त नवमीहीहै, उस दिन दशमका एकासणा नहीं करना।
१८--रातमें जिसके कच्चा पाणी पीना होवे उस श्रावकको देवसिय पडिकमणेमें दिवसचरिम । दुविहार का पञ्चख्खाण करना चाहिए, तिविहारका नहीं करना, क्योंकि तिविहारका पञ्चख्खाण करे बाद ।। सचित्त (कच्चा ) पाणी पीना नहीं कल्पता। . अगर कोई ऐसा कहे कि-अशन (अन्नादि), खादिम ( मेवा तथा फलादिक ) और स्वादिम (पान| सोपारी-इलायची आदि ) इन तीन प्रकारके आहारकाही तो तिविहारमें त्याग होताहै ? तो फिर कच्चा पाणी पीनेमें क्या हर्ज है ? तो जबाबमें मालूम होवे कि-जैसे तिविहार उपवासमें दिनभरके लिए तीन । ॥११॥ प्रकारके आहारका त्याग होताहै तथा तिविहार एकासणे-वियासणे आदि में एक वार अथवा दो वार खा लेने
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साधुसाध्वी के बाद दिनभरके वास्ते तीन प्रकारके आहारका ही त्याग होता है परंतु कच्चा पाणी सचित होने से नहीं पीया जाता वैसेही दिवसचरिम तिविहारमें भी तिविहार उपवास आदिके समानही तीन प्रकारके आहार का त्याग होता है वास्ते दिवसचरिम तिविहारका पच्चख्खाण करे बाद रातमें सचित्त ( कच्चा ) पाणी पीना नहीं कल्पता ।
॥ ११२ ॥
सूतक - विचार
१ -- पुत्र जन्म होनेसे दस दिन सूतक, पुत्री दिनमें जन्मे तो ११ दिन और रात्रिमें जन्मे तो १२ दिन सूतक
२ -- प्रसववाली स्त्रीको एक मासका सूतक, वहांतक मंदिरमें न जावे, ४० दिनतक देवपूजा न करे. तथा साधुको वहोरावे नहीं ।
३ - - परदेशसे मृत्युकी सुणावणी आनेपर एकदिन सूतक । जन्म होतेही मृत्यु होनेपर एकदिन सूतक । यह मृत्यु दिनसे ही एक दिनका सूतकहै ऐसा नहीं मानना किन्तु जन्म सूतक के ११-१२ दिनके
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आवश्य
कीय विचार संग्रह:
॥ ११२ ॥
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साधुसाध्वी
॥११३॥
उपर मरण सूतक १ दिन अधिक मानना, यदि ऐसा न माना जाय तो सात या आठ महिनेके गर्भ आवश्यगिरनेका सूतक तो ७-८ दिन मानना और गर्भस्थिति पूरी होके जन्मे हुए बच्चे के मरणका सूतक एक दिनका कीय विचार ही मानना कैसे संभव हो सके ?, कदापि नहीं, इसलिए जन्म सूतकके उपरांत १ दिन मरण सूतकका संग्रह अधिक मानना ही योग्य मालूम होताहै, इससे पांच छ महीनेका बालक हो या ज्यादा कम चाहे जितनी अवस्थाका हो, अपने घरके मनुष्यका मरण जिस घरमें हुआ हो उस घरमें १२ दिनका सूतक अवश्य ।। मानना चाहिए। ॥ ४-अपनी निश्रामें रहे हुए दासी आदिके पुत्रादिका जन्म या मरण तथा परदेशी साधर्मी जाति । भाईका मरण अपने घरमें होवे तो तीन दिन सूतक ।
५-गाय भैस आदि पशु घरमें व्यावे तो एक दिन सूतक, बाहर व्यावे तो कुछ नहीं। ६--पशुका मरण होने पर कलेवर घरसे बाहर लेजाय वहां तक सूतक, बाद में नहीं। ७-स्त्रीके गर्भ जितने मासका गिरे उतने दिन सूतक ।
॥११३॥
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साधुसाध्वी
८-जन्म सूतक या मरण सूतकके घरवाले मनुष्य जो कि उसी जन्म मरणवाले घरमें रहते हैं आवश्य॥ ११४ ॥ हो. वे १२ दिन देव पूजा न करें, लेकिन चाहे एक गोत्रके या सगे भाई वा पिताही होवे परन्तु जुदे कीय विचार
संग्रहः रहते हो, सूतकवाले घरमें जाना आना न हो, उनको किसी तरहका सूतक नहीं, वास्ते उनको जिन पूजा आदि करनेमें हरकत नहीं और उनके घरसे साधुओंको आहारादि वहोरनेमें भी हरकत नहीं।
९-जो मृतकके घरका मूल कांधीया हो परन्तु जुदे घरमें रहता हो वह १० दिन देवपूजा न करे ।
१०–अन्य घरके जो मृतकको अडे हो ? वे तीन दिन (२४ प्रहर) देव पूजा तथा प्रतिक्रमण न है। * करें, यानि स्वयं प्रतिक्रमण भणावे नहीं, जो सदाका अखंड नियम होवे तो समता भाव रखके संवरपणेमें रहे, है अथवा अन्य भणाता हो वह सुणे, परन्तु स्वमुखसे नवकारका भी उच्चारण न करे, स्थापना, नवकरवाली पुस्तक आदिके हाथ न लगावे ।
. ११-जो स्वयं (खुद) मृतकको अडा न हो परन्तु मृतकको अडनेवाले अन्य मनुष्योंको स्नान करे । पहिले अडा हो वह १६ प्रहर तथा एक स्नान करे बाद जो अडा हो वह ८ प्रहर देवपूजा प्रतिक्रमणादि न करे।
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॥११५॥
संग्रहा
१२-जो किसीको भी न अडा हो वह दो वार स्नानसे शुद्ध होसकताहै।
आवश्य
कीय विचार १३-व्याये पीछे १५ दिन बाद भेसका दूध, १२ दिन बाद गायका दूध, ८ दिन बाद बकरीका / दूध पीना कल्पताहै, पहले नहीं। | १४-जन्म तथा मरणके सूतकवाले घरमें १२ दिनतक साधु आहार पाणी नहीं वहोरे और उस घरका जल तथा अग्नि भी देवपूजा में वापरना नहीं।
१५-नीशीथ सूत्रके सोलमे उद्देशेके भाष्यमें जन्म मरणके सूतकवाला घर दुगंछनीय (चमारादिके । घर जैसा घृणाजनक) होनेसे आहार पाणी लेने आदिके लिये निषिद्ध बतायाहै, देखो यह रहा वह पाठ-४ । “दुविहा दुगंछिया खलु, इत्तरिआ हुंति आवकहिया य। एएसिं नाणत्त, वुच्छामि आणुपुठवीए ॥१॥ सूअगमयगकुलाई, इत्तरिया जे हवंति निज्जूदा । जे जत्थ जुंगिआ खलु, ते इंति आवकहिआओ ॥२॥ तेसु अण्णवत्थाई, वसही विपरिणामो तहेव कुच्छाय । तेसिपि होह कुच्छा, सव्वे एयारिसा मन्ने ॥३॥ इति भाष्यं, अत्रचूर्णिव्याख्या-सूचग० गाहा, ('इत्तरिआ') कालावहिए जे ठप्पा कया ते निज्जूढा, भक्तपानग्रहणादौ निषिदाः१. आवकहिगा-जे कुला जत्थ विसए जात्यादि जुंगिआ-दुगंछिआ अभोज्या इत्यर्थः "
।।११५॥
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साधुसाध्वी ॥११६॥
जो कितनेक शास्त्रोत्तीर्ण वादी चैत्यवासी यतियोंकी परंपरा वाले सकलागमरहस्यवेदित्वाभिमानीलोग है, आवश्यजन्म मरणके सूतकको लौकिक कहके नहीं मानते हैं और ऐसे सूतक वालेको भी जिनपूजा आदि करनेका उपदेश है कीय विचार देते हैं यह बिल्कुल शास्त्र विरुद्ध है, यदि लौकिक होने के कारण जन्म मरणके सूतकवालेका घर जिनपूजा आदि . संग्रह के लिए त्याज्य न माना जाय तो ड्रम चमारादिकके घर भी त्याज्य नहीं मानने पड़ेंगे, क्योंकि लौकिकपणा दोनोंमें समान है, फरक इतना ही है कि-जन्मादिकके सूतक वाला घर इत्वरिक (अमुक टाइमतक), त्याज्य है और ड्रम चमारादिकके घर यावत्कथिक ( सर्वदा ) त्याज्य हैं, देखो आगे लिखे शास्त्र पाठ
“लोइओ दुविहो-इत्तरिओ आवकहिओ अ, इत्तरिओ सूअगादिसु दसाइदिवसपरिवजणं, आवकहिओ जहा-नट्टवरुडछिपगचम्मारडुंबा य, लोउ(त्तरइ)त्तरिओ सेज्जादाणअभिगमसड्ढादि, आवकहिओ रायपिंडो इति" निशीथचूर्णि "प्रतिष्टकुलं द्विविधं-इत्वरं १ यावत्काथिकं च २, इत्वरं सूतकयुक्तं, यावत्कथिकमभोज्यं, एतन्न विशेत्, शाशनलघुत्वप्रसंगात् ” दशवकालिक टीका हरिभद्रसूरिजी कृत।
१६--ऋतुवंती स्त्री चार दिनतक भांडादिकको अडे नहीं तथा जिनदर्शन मुनिवंदन प्रतिक्रमणादि ॥११६॥ करे नहीं, पांच दिन देवपूजा नहीं करे।
-KHAN-KARMAYA-ARAXNX.
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साधुसाध्वी
आवश्य१७-किसीके रोगादि कारणसे तीन दिन बाद भी रक्त (खून ) बहता दीखे तो उसका विशेष |
कीय विचार दोष नहीं, शुद्धविवेकसे पवित्र होके पांच दिन बाद स्थापना व पुस्तकादिको अडे, साधुको वहोरावे, जिन ग्रह दर्शन तथा अग्र पूजा करे, परन्तु अंग पूजा न करे, जिनके ऋतुधर्मका टाइम नियमित न हो, याने आगे पीछे ( मोडा-वेगा) बिना टाइमसे ऋतुधर्म आता हो उनको तो तीर्थादि हर किसी जगह रही हुई चमत्कारी ) || मूलनायक जिनप्रतिमाकी अंगपूजा नहीं करनी, जिससे प्रभु आशातनाको नहीं सहने वाले अधिष्ठायक /
देवका तथा उस देव संबंधी चमस्कारका लोप न हो और जिन प्रतिमाकी महिमा नष्ट होने के कारण शासनो-32 हान्नतिको नाशकरनेके दोषकी भागीदार वह स्त्री न होने पावे ।
। १८-ऋतुवंती स्त्रीको ऋतुदिनमें तपस्या करनी कल्पतीहै और उनकी करी तपस्या सफलहै परन्तु Pऋतुदिनमें जिनपूजा प्रतिक्रमणादि कोई भी क्रिया करनी नहीं कल्पती ।
॥११७॥
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साधुसाध्वी
॥११८॥
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बारहवत तथा सर्व तपस्या उच्चारण विधिः
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कीय विचार प्रथम नंदीकी स्थापना करनी, जो विस्तारसे नंदी करनी हो तो मुद्रित लघुदीक्षा विधिमें लिखित | संग्रहः नंदी विधिकी तरह दश दिक्पालोंका आहानादि करना, और सामान्य पणे करना हो तो स्थापनाचार्य के 2 आगे बाजोट ऊपर पांच साथिये करके ऊपर एक अथवा पांच श्रीफल रखे, ज्ञान पूजा करे, पीछे बारह-21 व्रतग्राही वा तपस्याग्राही अंनलीमें चांवल, श्रीफल रोकड नाणुं लेकर स्थापनाचार्यके सामने चारों दिशामें 2 एक एक नवकार गिणता हुआ तीन प्रदक्षिणा देकर चांवल श्रीफलादि स्थापनाचार्यके सामने रखे, बाद खमासमण देकर इरियावही पडिक्कमे, पीछे खमा० देकर (१) मुहपत्ति पडिलेहके दो वांदणे देवे और खमा० देकर कहे 'इच्छा कारेण तुम्हे अम्हं (२) सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय आरोवणियं /
(१) यहां पर मुहपत्ति पडिलेहण, बांदणे तथा नंदी करढावणी काउस्सग्ग विधिप्रपा नहीं है। (३) समकित विना बारह व्रत नहीं उबरेजाते वास्ते समकित सहित बारह व्रत उचरने हो तो यह आदेश बोले, केवल समकित ना हो तो आदेश लेते समय 'मम्मत्तसामाइय सुयसामाइय' कहे, जिसने समकित पहले लिया हो वह केवल देशविरतिका मादेश
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साधुसाध्वी नंदीकट्ठावणियं काउसग्ग करूं' गुरु कहे 'करेह ' तब व्रतमाही 'इच्छं सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देस- आवश्य॥१९॥ विरइसामाइय आरोवणियं नंदीकहावणियं करेमि काउस्सगं अनत्यः' कह कर " सागरवरगंभीरा" तक कीय विचार
संग्रहा एक लोगस्सका काउस्सग्ग करके पारकर प्रगट लोगस्स कहे, पीछे खमा० देकर कहे 'इच्छा करेण तुम्हे अम्हा
सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय आरोवणत्यं वासक्खेवं करेह, चेइयाई वंदावेह' तब गुरु है। * : वासखेवं करेमो, चेइयाई वंदावेमो' ऐसा कहकर व्रतग्राहीके सिरपर वासक्षेप करे, पीछे व्रतग्राहीको है।
अपनी डावी तरफ रखकर गुरु अठारह थुइसे देव वंदावे, यथा
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लेवे, जिसको केवल चौथा व्रत लेना हो वह 'चउत्थव्वय' ऐसा आदेश लेवे, किर्माको पांच अणुव्रत लेना हो तो 'पंचमणुव्वय' ऐसा आदेश लेना, अथवा 'देसविरइसामाझ्य' कहनेमें भी कुछ दोष नहीं है, क्योंकि देशविरतिमें सब व्रतोंका समावेश होजाताहै, जितने वत लेने हो उतने व्रतोंका दंडक पाठ उच्चराना । पंचमी आदि जो तपस्या लेना हो उसी तपस्याका आदेश लेना । यहांपर भावकों को श्रुत* सामायिक का आरोपण उपधान वहन विधि से और भुतारोपण श्रावक संबंधी सूत्रोंके मुखपाठ पढनेसे होता है, इसलिए शुतसामायिक
उच्चराने का दंडकपाठ नहीं है, केवल आदेश मांगनेका है।
॥११९॥
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देववंदन विधिः॥१२०॥ __तीन खमासमण देकर 'इच्छा कारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूँ' 'इच्छं'-आदिमं पृथवीनाथ-कीय विचार मादिमं निष्परिग्रहं । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभ स्वामिनं स्तुमः ॥ १ ॥ सुवर्णवर्णं गजराजगामिनं, प्रलंब
संग्रहा बाहुं सुविशाललोचनं । नरामरैन्द्रेः स्तुतपादपंकजं, नमामि भक्त्या ऋषभं जिनोत्तमं ॥ २॥ अहंतो भगवंत
इंद्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिता, आचार्या जिनशोसनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः । श्रीसिद्धांतसुपाSठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वतु वो मंगलं ॥३॥, जं किंचि० नमुत्थुणं०
इत्यादि बालके आगे लिखी चार थुइसे देववंदन करे, थुइ यथा-यदंधिनमनादेव, देहिनः संति सुस्थिताः। तस्मै नमोस्तु वीराय, सर्वविघ्न विघातिने ॥ १॥ सुरपतिनत चरणयुगान्, नाभेय जिनादिजिनपतीन्नौमि । यद्वचनपालनपरा, जलांजलिं ददतु दुखेभ्यः ॥ २॥ वदंति वंदारुगणाग्रतो जिनाः, सदर्थतो यद्रचयंति CI सूत्रतः । गणाधिपास्तीर्थसमर्थनक्षणे, तदंगिनामस्तु मतं तु मुक्तये ॥ ३॥ शक्रः सुरासुरवरैः सह देवताभिः, सर्वज्ञशासनसुखाय समुद्यताभिः। श्रीवर्धमानजिनदत्तमतप्रवृत्तान् , भव्यान् जनानवतु नित्यममंगलेभ्यः॥४॥
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॥१२०॥
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॥ १२१ ॥
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उसके बाद नमुत्थणं० कहकर खडा होके आगे लिखे मुजब आदेश बोलता हुआ एक एक नवकारका काउसग्ग करके नमोऽर्हत्० कथन पूर्वक एक एक थुइ कहे, अंतिम काउस्सग्गमें चार लोगस्स और एक दकीय विचार नवकारका चितवन करे, आदेश आदि बोलनेका क्रम इस मुजब है - श्रीशांतिनाथ देवाधिदेव आराधनार्थं संग्रह: | करेमि काउस्सग्गं, वंदणवत्तियाए० अन्नत्थ०, थुइ - रोगशोकादिभिर्दोष-रजिताय जितारये । नमः श्रीशांतये तस्मै, विहितानंतशांतये ॥५॥ श्रीशांतिदेवता आराधनार्थ करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, , थुइ-श्रीशांतिजिनभक्ताय, भव्याय सुखसंपदं । श्रीशांतिदेवता देया - दशांतिमपनीय मे ॥ ६ ॥ श्रुतदेवता आराधनार्थं - करेमि काउरसग्गं अन्नत्थ०, थुइ - सुवर्णशालिनी देयात्, द्वादशांगी जिनोद्भवा । श्रुतदेवी सदामा मशेषश्रुतसंपदं ॥ ७ ॥ भवनदेवता आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ-चतुर्वर्णाय संघाय, देवी भवनवासिनी । निहत्य | दुरितान्येषा, करोतु सुखमक्षतं ॥ ८ ॥ क्षेत्रदेवता आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ-यासां क्षेत्रगताः संति, साधवः श्रावकादयः । जिनाज्ञां साधयंतस्ता, रक्षंतु क्षेत्रदेवताः ॥ ९ ॥ अंबिकादेवी आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ - अंबा नहतडिंचा मे, शुद्ध बुद्ध सुतान्विता । सिते सिंहे स्थिता गौरी, वितनोतु समी
॥ १२१ ॥
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साधुसाध्वी ५ हितं ॥१०॥ पद्मावती देवता आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ - धराधिपतिपत्नी या, देवी पद्मावती ॥ १२२ ॥ ७ सदा । क्षुद्रोपद्रवतः सा मां पातु फुल्लत्फणावलिः ॥ ११ ॥ चक्रेश्वरी देवी आराधनार्थं करेमि काउस्सगं अन्नत्थ०, थुइ-चंचच्चक्रकराचारु – प्रवालदलसन्निभा । चिरं चक्रेश्वरी देवी, नंदतादवताच्च मां ॥१२॥ अनुप्तादेवी आराधनार्थं करोमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ-खड्गखेटक कोदंड, बाणपाणिस्तडिद्युतिः । तुरंगगमनाऽच्छ्रुप्ता, कल्याणानि करोतु मे ॥ १३ ॥ कुबेरादेवी आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ - मथुरापुरिसुपार्श्व, श्रीपार्श्वस्तूपरक्षिका । श्रीकुबेरा नरारूढा, सुतांकाऽवतु वो भयात् ॥ १४ ॥ ब्रह्मशांति यक्ष आरधनार्थं करोमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ - ब्रह्मशांतिः स मां पाय - दपायाद्वीरसेवकः । श्रीमत्सत्यपुरे सत्या, येन कीर्त्तिः कृता निजा ॥ १५ ॥ गोत्र देवता आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ - या गोत्रं पालयत्येवं, सकलापायतः सदा । श्रीगोत्रदेवता रक्षां सा करोतु नतांगिनां ॥ १६ ॥ शक्रादि समस्त वैयावृत्यकर देवता आराधनार्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०, थुइ - श्रीशक्रप्रमुखा यक्षा, जिनशासन संश्रिताः । देवदेव्यस्तदन्येऽपि, संघं रक्षत्वपायतः १७ | सिद्धायिका शासनदेवता आराधनार्थ करेमि का उस्सग्गं अन्नत्थ०, ४ लोगस्स और १ नवकार का काउस्सग्ग, थुई
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कीय विचार संग्रह:
॥ १२२ ॥
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॥ १२३
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साधुसाध्वी श्रीमद्विमानमारूढा, यक्ष मातंग संगता । सा मां सिद्धायिका पातु, चक्रचापेषुधारिणी ।१८ाबाद प्रगट लोगस्स है आवश्य
और तीन नवकार कहकर बैठके नमुथुणं०, जावंति चेइयाइं०, जावंत केवि०, नमोऽर्हत्०, परमेष्टिनमस्कार,कीय विचार सारं नवपदात्मकं । आत्मरक्षाकरं बज-पंजराभं स्मराम्यहं ॥१॥ ॐनमो अरिहंताणं, शिरस्क शिरसिस्थितं ।
संग्रहः ॐनमो सव्वसिद्धाणं, मुखे मुखपटांबरं ॥२॥ ॐनमो आयरियाणं, अंगरक्षाऽतिशायिनी।ॐनमो उवज्झायाणं,
आयुध हस्तयोईडें ॥३॥ ॐनमो सव्वसाहणं, मोचके पादयोः शुभे। एसो पंचनमुक्कारो, शिलावज्रमयी तले । ६॥४॥ सव्वपावप्पणासणो, वो वज्रमयो बहिः । मंगलाणं च सव्वेसि, खादिरांगारखातिका ॥५॥ स्वाहांतं च । पदं ज्ञेयं, पढमं हवइ मंगलं । वोपरि वामयं, पिधानं देहरक्षणे ॥६॥ महाप्रभावा रक्षेयं, क्षुद्रोपद्रवनाशिनी, परमेष्ठि पदोद्भूता, कथिता पूर्वसूरिभिः ॥७॥ यश्चैवं कुरुते रक्षा, परमेष्टिपदैः सदा, तस्य न स्याद्भयं व्याधिराधिश्चापि कदाचन ॥९॥ पीछे जयवीयरायः सब जणे कहें ॥ इति देववंदनं विधिः ॥ .
उसके बाद व्रतग्राही खमासमणा देकर मुहपत्ति पडिलेहके दो वांदणा देवे और खमासमणा देकर In बोले 'इच्छाकारेण तुम्हे अम्हं सम्मत्तसामाइय सुयसमाइय देसविरइसामाइय आरोवणत्थं काउसग्गं करावेह'
रूबर
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साधुसाध्वी गुरु कहे 'करावेमो' इच्छं खमासमणा देकर सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय आरोवणत्थं करेमि आवश्य॥१२४॥ काउसग्गं अन्नत्थ०' कहकर " सागरवरगंभीरा" तक एक लोगस्सका काउसग्ग करके प्रगट लोगस्स कहे, कीय विचार
बाद खमा० देकर व्रतग्राही कहे 'इच्छाकोरण तुम्हे अम्हं सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय (१) देसविरइसामाइय है। संग्रह सुत्तं उच्चरावेह ' गुरु कहे ' उच्चरावेमो' व्रतग्राही 'इच्छं' कहकर एक एक व्रतके आलावेकी शुरुमें तीन है। तीन नवकार गिणकर थोडासा नमाहुआ जैसे गुरु पाठ उच्चरावे वैसे गुरुके साथ खुदभी मनमें पाठ कहता हुआ समकितसामायिक देसावेरतिसामायिकका दंडक क्रमसे तीन तीन वार उच्चरे गुरुभी समकित आदि एक एक व्रतके आलावा तीन तीन वार उच्चराये, बाद व्रतग्राही के मस्तक पर वासक्षेप डाले । समकित-18 दंडकपाठ यथा
___ अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि, सम्मत्तं उवसंपजामि, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओणं मिच्छत्तकारणाई पच्चक्खामि, सम्मत्तकारणाइं उवसंपन्जामि, नो मे कप्पइ अजप्प- * ॥ १२४ ॥
(१) यद्यपि युतसामायिकका आलावा जुदा नहीं है तो भी पाठ भंग न होनेके लियेथुतसामायिकका भी नाम बोलना विधिप्रपामें कहा है।
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साधुसाध्वी
भिइ अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थिय देवयाणि वा अन्नउत्थिय परिग्गहियाणि वा अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा है आवश्यनमंसित्तए वा पुट्विं अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं । कीय विचार वा अणुप्पदाउं वा, खित्तओणं इहेव वा अन्नत्थ वा, कालओणं जावजीवाए, भावओणं जाव गहेणं न गहि- संग्रह जामि, जाव छलेणं न छलिज्जामि, जाव सन्निवाएणं नाभिभविज्जामि, जाव अन्नेण वा केणवि परिणामवसेणं । एसो परिणामो मे न परिवडइ ताव मे एवं सम्मदंसणं, अन्नत्थ रायाभियोगेणं, बलाभियोगेणं, गणाभियोगेणं, देवाभियोगेणं, गुरुनिग्गहेणं, वित्तिकंतारेणं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-181 वत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ १॥ । स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रतका दंडक-अहन्नं भंते! तुम्हाणं समीवे थूलगं पाणाइवायं संकप्पओ निरवराहं पच्चक्खामि, जावजीवाए दुविहं, तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं, न करोमि, न कारवेमि, तस्स भंते ! । पडिकमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥ २ ॥
स्थूल मृषावाद विरमण व्रतका दंडक-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे थूलगं मूसावायं जीहाच्छेयाइहेउयं ।
१२५ ॥
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साधुसाध्वी कन्नालियं गोवालियं भोमालियं थापणमोसं कूडसक्खीयं पंचविहं पञ्चक्खामि दक्खिन्नाइअविसए अहागाहिय- आवश्य॥ १२६॥ भंगएणं, दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओणं मुसाबायं, खित्तओणं इत्थ वा अन्नत्थ वा, कालओणं २ कीय विचार जावजीवाए, भावओणं जाव गहेणं न गहिज्जामि, छलेणं न छलिजामि, अंन्नेण केणवि रोगातकण वा जाव
संग्रहा एसो परिणामो मे न पडिवडइ, ताव मे एयं अभिग्गहं, दुविहं तिविहेणं अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं । महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ ३ ॥ | स्थूल अदत्तादान विरमण व्रतका दंडक-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे थूलगं अदिन्नादाणं खत्तखणणाइयं । चोरंकारकरं रायनिग्गहकारयं सचित्ताचित्तवत्थुविसयं पञ्चक्खामि, दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओणं । अदिन्नादाणं, खित्तओणं इत्थ वा अण्णत्थ वा, कालआणं जावज्जीवाए, भावओणं जाव गहेणं न गाहिज्जामि, छलेणं न छलिज्जामि अन्नण केणवि रोगातंकण वा जाव एसो परिणामो मे न परिवडइ, ताव मे एयं अभिग्गह, विहं तिविहेणं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ ४ ॥8॥ १२६॥
स्थूल मैथुन विरमण व्रतका दंडक-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे ओरालिय वेओव्विय भेयभिन्नं थूलगं 3
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साधुसाध्वी ॥१७॥
संग्रहः
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मेहुणं पञ्चक्खामि अहागहियभंगएणं, तत्थ दुविहं तिविहेणं दिव्वं तिरिच्छं एगविहं तिविहेणं, माणुस्सयं ।
आवश्यएगविहं एगविहेणं पञ्चक्खामि, दव्वओ खित्तओं कालओ भावओ, दव्वओ णं मेहुणं, खित्तओ णं इत्थ वा कीय विचार अन्नत्थ वा, कालओ गंजावजीवाए, भावओणं जाव गहेणं न गहिज्जामि, छलेणं न छलिज्जामि, अन्नण केणवि रोगातंकेणं जाव एसो परिणामो मे न परिवडइ ताव मे एयं अभिग्गह, अन्नस्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरा-13 गारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ ५॥
स्थूल परिग्रह विरमण व्रतका दंडक-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे परिग्गहं पडुच्च अपरिमियपरिग्गह। पञ्चक्खामि, धणधन्नाइ नवविह वत्थुविसयं इच्छापरिमाणं उवसंपज्जामि, अहागहिय भंगएणंदव्वओ खितओ कालओ भावओ, दब्बओणं नवविहं परिग्गरं, खित्तओणं इत्थ वा अन्नत्थ वा, कालओ णंजावज्जीवाए, भावओणं जाव गहेणं न गहिज्जामि, छलेणं न छलिज्जामि, अन्नण केणवि रोगातकेण जाव एसो परिणामो मे न परिवडा ताव मे एवं अभिग्गहं दुविहं तिविहेणं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥६॥
॥१२७॥
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साधुसाध्वी र दिक्परिमाण व्रतका दंडक-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे दिसिपरिमाणं पडिवज्जामि, दव्वओ खित्तओ आवश्य॥१२८॥ कालओ भावओ, दव्वओ णं दिसिपरिमाणं, खित्तओ णं धारणापरिमाणं, कालओ णं जावजीवाए, भावओ कीय विचार
संग्रहः कोण जाव गहेणंन गहिज्जामि, छलेणं न छलिज्जामि, अन्नेण केणवि रोगातंकेण जाव एसो परिणामो मे न परिवडइ. ताव मे एयं अभिग्गहं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥७॥
भोगोपभोग व्रतका दंडक-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे भोगोवभोगवए भोयणाओ अनंतकायबहुबीय ॥ राइभोयणाइं परिहरामि, कम्मओ णं पन्नरस कम्मादाणाइं इंगालकम्माइयाइं बहुसावजाइं खरकम्माई एयाभियोगं परिहरामि, दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओ णं भोगोवभोगवयं, खित्तओ णं इत्थ वा : अन्नत्थ वा, कालओ णं जावजीवाए, भावओ णं जाव गहेणं न गहिज्जामि, छलेणं न छलिज्जामि, अन्नेण केणवि रोगातकेण जाव एसो परिणामो मे न परिवडइ, ताव मे एयं अभिग्गह, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं है। महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ ८॥
अनर्थदंड विरमण व्रतका दंडक-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे अणत्थदंडं पञ्चाखामि, अवज्झाणं पावो
॥ १२८॥
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साधुसा + वेदसं हिंसोवकरणदाणं पमायाचरियरूवं चउव्विहं अणत्थदंडं जहासत्तिए परिहरामि, दव्वओ खित्तओ कालओ ॥ १२९ ॥ ३ भावओ, दव्वओ णं अणत्थदंडं, खित्तओ णं इत्थ वा अन्नत्थ वा, कालओ णं जावज्जीवाए, भावओ णं जाव गणं न गहिज्जामि, छलेणं न छलिज्जामि, अन्नेण केणवि रोगातंकेण जाव एसो परिणामो मे न परिवडइ ताव मे एयं अभिग्गहं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ ९ ॥ सामायिक देशावकाशिक पौषधोपवास अतिथिसंविभाग व्रतका दंडक - अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे | सामाइयं देसावगासियं पोसहोववासं अतिहिसंविभागवयं च जहासत्तीए पडिवज्जामि, इच्छेयं सम्मत्तमूलं पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ दव्वओ णं सम्मत्तमूलं बारसविहं सावगधम्मं, खित्तओ णं इत्थ वा अन्नत्थ वा, कालओ णं जावज्जीवाए भावओ णं जाव गहेणं न गहिजामि, छलेणं न छलिज्जामि, अन्नण केणवि रोगातंकेण जाव एसो परिणामो मे न परिवडइ ताव मे एयं अभिग्गहं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसि - 2 ॥ १२९ ॥ रामि ॥ अरिहंतादि ६ शाख, राजाभियोग आदि ६ आगारबंदी और अनाभोगादि चार आगारसहित इन
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साधुसाध्वी ब्रतों का में पालन करूंगा ॥ १०।११।१२।१३॥ ॥ १३०॥ सर्व तपस्याका दंडकपाठ-अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे अमुगतवं ® उवसंपजित्ताणं विहरामि, तंजहा ,कीय विचार
संग्रहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, दव्वओ णं अमुगतवं , खित्तओ णं इत्थ वा अन्नत्थ वा, कालओणं जाव है।
परिमाणं, भावओ णं जाव गहेणं न गहिज्जामि, छलेणंन छलिजामि, सन्निवाएणं नाभिभविजामि, अन्नण है, है केणवि रोगातंकेइ परिणामवसेणं जाव एसो मे परिणामो न परिवडइ ताव मे एस तवो, अन्नत्थ रायाभिओगेणं है, है गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकंतारएणं, अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं है, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ॥ १४ ॥
सात थोभा वंदना-इसतरह व्रतारोपण किये बाद व्रतग्राही खमासमण देकर मुहपत्ति पडिलेहे और दो वांदणा देकर खमासमण देके कहे 'इच्छाकारेण तुम्हे अम्हं सम्मत्तसामाइयं सुयसामाइयं देसविरइसामाइयं । आरोवह' तब गुरु कहे 'आरोवेमो' ॥१॥ व्रतग्राही 'इच्छं' खमासमण देकर कहे 'संदिसह किं भणामो?' गुरु कहे | ॥ १३ ॥
*** यहां पर जो तप ग्रहण करना हो उसका नाम बोलना
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साधुसाच्ची
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वंदित्ता पवेयह' ॥२॥व्रतग्राही 'इच्छं' खमासमण देकर कहे 'इच्छाकारेण तुम्भेहिं अम्हं सम्मत्तसामाइयं सुयसामाइयं देसविरइसामाइयं आरोवियं ? ' गुरु कहे 'आरोधियं आरोवियं आरोवियं खमासमणाणं हत्थेणं सुत्तेणं । कीय विचार अत्येणं तदुभएणं सम्मं धारणीयं चिरं पालणीयं गुरुगुणेहि वड्ढहि नित्थारपारगो होह' इस प्रकार कहते हुए है। संग्रहः तयाहीके शिरपर वासक्षेप डालें, तब व्रतग्राही 'इच्छामो अणुसहि' ऐसा कहे ॥ ३ ॥ फिर खमासमण देके कहे ' तुम्हाणं पवेइयं संदिसह साहणं पवेएमि ? ' गुरु कहे ' पवेयह ' ॥ ४ ॥ पीछे व्रतग्राही इच्छं। खमासमण देके नवकार गुणताहुआ नंदी ( स्थापनाचार्य ) को तीन प्रदक्षिणा देवे, तीनों प्रदक्षिणा में गुरु तथा संघ ' गुरुगुणेहिं वड्ढहि नित्थारगपारगो होह' कहते हुए व्रतग्राहीके शिरपर तीनवार वासक्षेप डालें ॥ ५॥ पीछे व्रतग्राही खमासण देके कहे 'तुम्हाणं पवेइयं साहणं पवेइयं संदिसह काउस्सग्गं करेमि ? , गुरु कहे 'करेह' ॥ ६ ॥ व्रतग्राही इच्छं खमासण देकर सम्मनसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय आरोवणत्यं करोमि काउस्सग्गं अन्नत्थ०' कहके एक लोगस्सका "सागरवरगंभीरा" तक काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्स कहे ॥७॥ इति सात थोभा वंदना । कोईभी तपस्या उचरे तबभी इसी तरह सात थोभा
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साधुसाध्वी वंदन देना, सिर्फ जहां जहां व्रतोंका का नामहै वहां वहां सर्वत्र जो तपस्या उचरी हो उसका नाम लेना है। आवश्य॥ १३२ ॥ इतनी ही विषेशताहै।
कीयविचार | पीछे खमासण देके 'इच्छा करेण तुम्हे अम्हं समत्तसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय थिरीकरणत्या
संग्रहः काउसग्गं करोमि?, इच्छं सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय थिरीकरणत्थं करेमि काउस्सग्गं, अन्नत्थ०' कहके पहले की तरह एक लोगस्सका काउस्सग्ग करके प्रगट लोगस्स कहे, पीछे शक्ति अनुसार पञ्च
खाण करे, समय होवे तो खमासमण देके 'इच्छा०तुम्हे अम्हं धम्मोवएसं देह' कहके उपदेश सुणे, फिर *खमासमण देके कहे 'विधि करतां अविधि आशातना हुइ होय ते सवि हुं मन वचन कायाए करी मिच्छामि । दुक्कडं' ॥ इति बारहव्रत तथा सर्व तपस्या उच्चारण विधि समाप्त ॥
तपस्या पारण विधिः-तपस्या पूर्ण हुए बाद ज्ञानपूजादि करके इरियावही पडिक्कमे बाद खमासमण देके मुहपत्ति पडिलेहे, दो वांदणा देकर खमासमण देके कहे 'इच्छाकारण तुम्हे अम्हं अमुगतवं पारावेह ॥ १३२ ॥ गुरु कहे ' पारावेमो' पीछे तप पारनेवाला इच्छं खमासमण देके कहे ' इच्छाकारेण तुम्हे अम्हं अमुगा ।
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साधुसाध्वी तव निक्खवणत्यं वा पारावणत्थं काउस्सग्गं करावेह' गुरु कहे 'करावेमो' पीछे 'इच्छं अमुगतव निक्खेवणत्यं । आवश्य॥१३॥ वा पारावणत्थं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्य०' कहके एक नवकारका काउस्सग्ग करे, पारके प्रगट नवकार कहे। कीय विधि
संग्रहः पीछे खमा० देके कहे 'इच्छा० तुम्हे अम्हं अमुगतव निवखेवणत्थं वा पारावणत्यं चेइयाइं वंदावेह' गुरु 'वंदावेमो' कहके चार थुइसे देववंदन करावे, फिर खमासमणा देके कहे 'इच्छा० तुम्हे अम्हं अमुगतव निक्खेवणत्यं । वा पारावणत्थं वासक्खेवं करेह' गुरु कहे 'करेमो' बाद नमुत्थुणं कहके 'अमुग तप करतां अविधि आशातना हुई। होय ते सवि हु मन वचन कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं' देवे, गुरु 'नित्थारगपारगो होह' कहके वासक्षेप करे, . पीछे खमासमण देके पञ्चक्खाण करे, बाद खमासमण देके 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अमुग तव आलोयणा निमित्तं काउस्सग्गं करेमि ? , इच्छं अमुग तव आलोयणा निमित्तं करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ० | कहके चार लोगस्सका काउस्सग्ग करे, पार के प्रगट लोगस्स कहे ॥ इति सर्व तपस्या पारण विधि समाप्त । ४
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॥१३३॥
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साधुसाध्वी
॥१३४॥
HX-XXX-XXX
सूचना-पृष्ट २६ पंक्ति ५ की टिप्पणी जोकि टाइपके अनवकाशसे वहां देनी रह गई थी सो यहां दी जाती है।
आवश्य" दाऊण वंदणं तो, पणगाइसु जईसु खामए तिनि । किइकम्मं करि आयरि-यमाइ गाहातिगं पढइ सट्टो ॥ १॥"
कीय विधि
टिप्पणी
योगशास्त्र टीका चतुर्थ प्रकाश । अर्थः- बंदिन या पगामसिजाए कहे बाद बांदणे देके पांच आदि साधुओंमें तीनको अभ्भुडिया खमावे, फिर बांदणे देके | "सहो" नाम श्रावक "आयरिय" आदि तीन गाथा पढे ( बोले )।
योगशास्त्र छपानेवालोंने उपरोक्त गाथामें से "सद्रो" शब्द निकाल दिया है परन्तु खुद श्री हीरविजयसूरिजी लिखते है कि-हमने योगशास्त्र टीका की जूनी छ प्रतिये देखी हैं उनमें सबमें यह गाथा "सद्रो" शब्द युक्त ही है, देखो वह पाठ यह है-“योगशास्त्रवृत्तिजीर्ण-10 पुस्तकषट्कं विलोकितं, तत्र सर्वत्रापि " काऊण वंदणं तो" इति गाथायाः पाठः 'सट्टो' इति पदेनैव संयुक्तो दृश्यते" हीरप्रश्न तृतीय प्रकाश १४५ मा प्रश्न ।
SAARALANIM.04.2014 BLEEMIDL4418222131314141414BALLUMIN14.4813114 MAA14A14SALAD
॥ इति संविज्ञ साधु-साध्वी आवश्यकीय विधि संग्रहः समाप्तः ॥
FRAMAMAAL AHARAPE
॥३१४॥
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साधुसाध्वी
अनुक्रमणिका
॥१३५॥
:414--X-R.XCEX
आवश्यकीय विधि अनुक्रम
+५
विधियोंके नाम पत्रांक | विधियोंके नाम पत्रांक | विधियोंके नाम पत्रांक १-राइय-पडिक्कमण-विधिः .. १ ८-स्थंडिल जानेकी विधिः .. १९ १५-द्वादशावर्त वंदना विधिः .. ४१ २-प्रातः पडिलेहण विधिः ... ८ ९-संध्या पडिलेहण विधिः ...२० | १६-पाक्षिकादि गुरु वंदना विधिः ४२ ३-अभ्युत्थान गुरु-वंदना विधिः १२ | १०-देवसिय-पडिक्कमण-विधिः "२३ १७-सचित्त-अचित्तरज ४-चैत्यवंदन विधिः .. १३ ११-राइयसंथारा पोरिसी-विधिः३० ओहडावण विधिः .." ५-उग्घाडा-पोरिसी-विधिः .. १३ १२-पाक्षिकादि प्रतिक्रमणविधिः ३१ १८-सज्झाय-निक्षेप-विधिः .. ४४ ६-गौचरी जानेकी तथा
१३-छींक दोष निवारण विधिः "३९ १९-सज्झाय-उत्क्षेप-विधिः .. ४५ आलोचनेकी विधिः ... १४ १४-मार्जारी मंडली प्रवेश दोष २०-लोच करने व कराने की विधिः ४७ ७-पच्चक्खाण-पारण-विधिः ... १६ | निवारण विधिः ४० | २१-पंचशक्रस्तव-देववंदन विधिः ५०
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________________ CAT साधुसाध्वी आवश्यकीय विधि // 136 // अनुक्रम २२-मंडली रचना विधिः " 51 / ५-आहार-दोष विचार .. 60 | १०-संडाशक-प्रमार्जन-विचार . 91 |६-मुहपत्ति-पडिलेहण-विचार " 74 | ११-असज्झाय-विचार आवश्यकीय विचार संग्रहः ७-उपकरण विचार ( साधु के १२-प्रकीर्णक-विचार 106 १-काउसग्ग-दोष विचार .. 14 उपकरण) "" 78 | १३-सूतक विचार ... 112 २-वांदणे देनेका विचार .. (साध्वी के 25 उपकरण) 83 | १४-बारह व्रत तथा सर्व तपस्या ३-छम्मासी तप चिंतन विचार. ५७/८-स्थंडिल-पडिलेहण-विचार ... 86 | उच्चारण विधिः ... 118 ४-सिजातर-विचार " 59 / ९-पंचमहाव्रत-भावना-विचार " 87 | १५-सर्व तपस्या पारण विधिः...१३२ सूचनाः-पर्यंत आराधना विधि, महापारिहावणिया विधि, अंतिम देव-बंदन विधि और श्रावक कर्त्तव्य इन चार विधियों गावत पृष्ठ 52 की सूचना देख लेना। // 13 // Jain Education Intel For Private & Personal use only oll