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________________ साधुसाध्वी ॥१८॥ Jain Education Interna पच्चक्खाण कयुं तिविहार" तथा बियासणेमें “बियासणुं पच्चक्खाण कयुं तिविहार " कहना । तिविहार उपवासका पच्चक्खाण पारनेका पाठ “सूरे उग्गए पच्चक्खाण कयुं तिविहार, पोरिसी - साढपोरिसी - पुरिम- अव मुट्ठिसहियं पञ्चक्खाण कर्तुं पाणाहार, पञ्चक्खाण फासियं० " इत्यादि पहले की तरह कहना । बाद में बडे छोटे सब साधुओंको आहार देकर रागद्वेष रहित मंडली के पांच (१) दोष टालकर सुर सुर अथवा चब चब शब्द नहीं करता हुआ, उतावल रहित, देरी नहीं लगाता हुआ, तथा नीचे नहीं विखेरता हुआ आहार पाणी करे. आहार पाणी कर चुकने पर पात्रे तीन चार वार पाणीसे धोकर पाणी पी लेवे. पात्रे दो लूहणोंसे लूस लेवे, लूहणा पाणी में धोकर सुका देवे, बाद पात्रे चौमासा हो ? तो पाट ऊपर रखे. और शेषाकाल हो ? तो शायद अकस्मात् विहारही करना पड़े ? वास्ते बांधकर गुच्छे चढाकर | रखे. यदि एकासणा हो ? तो उसी जगह तिविहार पञ्चक्खाण कर लेवे । (१) नाम वगैरह इनका स्वरूप जानना हो ? तो नम्बर ५ ' आहार- दोष-विचार' देखो। 2010_05 For Private & Personal Use Only विधि संग्रह: 11 26 11 www.jainelibrary.org
SR No.600039
Book TitleAvashyakiya Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhimuni, Buddhisagar
PublisherHindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size7 MB
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