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________________ साधसाध्वी इरस ३, गंध ४ और स्पशॉको प्राप्त करके राग अथवा द्वेष न करे वो इद्रियोंको जीतनेवाला सर्व सावध | आवश्य योगसे निवृत्त हुआ अपरिग्रही (परिग्रह रहित) होताहै, यानि पांचों इंद्रियोंके विषयोंमें राग द्वेष करनेसे पंचम |कीय विचार महाव्रतकी विराधना होतीहै और इनमें राग द्वेष न करना ये ही पांचवें महाव्रतकी पांच भावनाहे ॥ संग्रहः १० संडाशक-प्रमार्जन-विचारपिछली (लारली) तरफ कमरसे नीचे जीमणा पग, दोनों पगोंके विचला भाग और डावा पग इन तीनोंको ओघेसे प्रमार्जन करना ३, इसी तरह आगली तरफभी कमरसे नीचे जीमणा पग दोनों पगोंके विचला भाग, तथा डाबा पग, इन तीनोंको ओघेसे प्रमार्जे ६, बाद नीचे बैठते हुए आगे पीछेकी भूमि तीनवार । ओघेसे प्रमा ९, बाद जीमणे हाथमें ली हुइ मुहपत्तिसे ललाटकी जीमणी बाजूसे लगाकर सारा ललाट, सीधा किया हुआ सारा डाबा हाथ तथा भेला करके पिछली तरफसे उसी डाबे हाथको कूणी तक प्रमार्जन करे १० बाद डावे हाथमें ली हुई मुहपत्तिसे ललाटकी डाबी बाजूसे लगाकर सारा ललाट, सीधा किया ॥१॥ हुआ सारा जीमणा हाथ तथा भेला करके पिछली तरफसे उसी जीमणे हाथको कूणीतक और लगतेही ओघेकी XXXXXXX XXXXXX Jain Education Intemal 0 10_05 For Private & Personal use only alw.jainelibrary.org
SR No.600039
Book TitleAvashyakiya Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhimuni, Buddhisagar
PublisherHindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size7 MB
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