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साधुसाध्वी
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हड्डी या कलेवर आदि देखनेमें आवे तो उनको दूर करा कर 'निसीहि ३ मत्थएण वंदामि, भगवन् ! सुद्धा वसहि' कहता हुआ उपाश्रयमें आवे।
बाद स्थापनाचार्य के आगे इरियावही पडिकमे, जो काजा परठने तथा वसति संशोधन करनेको गया | हो ? वह खमा० देकर कहे-'इच्छा० संदि० भग० ! वसति पवेउं ? ' गुरु कहे 'पवेयह' इच्छं इच्छामि खमा० । देकर कहे-भगवन् ! सुद्धावसहि' गुरु कहे 'तहत्ति' वाद खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय संदिसाउं!' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! सज्झाय करूं ?' इच्छं, कह कर १ नवकार तथा धमो । मंगलकी १७ गाथा और ऊपर १ नवकार कहे, खमा० देकर 'इच्छा० संदि० भग० ! उपयोग संदिसाउं?' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० ! उपयोग करूं?' इच्छं इच्छामि खमा० 'इच्छा० संदि० भग० उपयोग करण निमित्तं काउस्सग्ग करूं?' खडे होकर 'इच्छं उपयोग करण निमित्तं करेमि काउस्सग्गं अन्नथ०। कह कर एक नवकारका काउस्सग्ग करे, पार कर प्रगट नवकार गिणे ।
बाद गुरुके आगे आधा नमकर हाथ जोड कर शिष्य कहे-'इच्छा० संदिसह भगवन् ?' गुरु कहे-'लाभ'
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MI॥११॥
___JainEducation inte
2010_05
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