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साधुसाध्वी नंदीकट्ठावणियं काउसग्ग करूं' गुरु कहे 'करेह ' तब व्रतमाही 'इच्छं सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देस- आवश्य॥१९॥ विरइसामाइय आरोवणियं नंदीकहावणियं करेमि काउस्सगं अनत्यः' कह कर " सागरवरगंभीरा" तक कीय विचार
संग्रहा एक लोगस्सका काउस्सग्ग करके पारकर प्रगट लोगस्स कहे, पीछे खमा० देकर कहे 'इच्छा करेण तुम्हे अम्हा
सम्मत्तसामाइय सुयसामाइय देसविरइसामाइय आरोवणत्यं वासक्खेवं करेह, चेइयाई वंदावेह' तब गुरु है। * : वासखेवं करेमो, चेइयाई वंदावेमो' ऐसा कहकर व्रतग्राहीके सिरपर वासक्षेप करे, पीछे व्रतग्राहीको है।
अपनी डावी तरफ रखकर गुरु अठारह थुइसे देव वंदावे, यथा
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लेवे, जिसको केवल चौथा व्रत लेना हो वह 'चउत्थव्वय' ऐसा आदेश लेवे, किर्माको पांच अणुव्रत लेना हो तो 'पंचमणुव्वय' ऐसा आदेश लेना, अथवा 'देसविरइसामाझ्य' कहनेमें भी कुछ दोष नहीं है, क्योंकि देशविरतिमें सब व्रतोंका समावेश होजाताहै, जितने वत लेने हो उतने व्रतोंका दंडक पाठ उच्चराना । पंचमी आदि जो तपस्या लेना हो उसी तपस्याका आदेश लेना । यहांपर भावकों को श्रुत* सामायिक का आरोपण उपधान वहन विधि से और भुतारोपण श्रावक संबंधी सूत्रोंके मुखपाठ पढनेसे होता है, इसलिए शुतसामायिक
उच्चराने का दंडकपाठ नहीं है, केवल आदेश मांगनेका है।
॥११९॥
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