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साधुसाध्वी ॥४८॥
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पूज-प्रमार्ज करके लेवे अथवा रखे ३, समाधिमें वर्तता हुआ साधु अपने मन तथा वचनको संयमित रखे । आवश्यअर्थात् मनसे किसीका बुरा नहीं चिंतवे ४, वचनसे किसीको बुरा लगे वैसा न बोले, तत्त्वार्थ सूत्रमें एषणा है कीय विचार समितिको पांचवीं भावना कही है ५। दूसरे महाव्रतकी पांच भावना
___अहस्स सच्चे अणुवीय भासए, जे कोहलोहभयमेव वजए।
से दीहरायं समुपहिया सया, मुणी हु मोसं परिवजए सिया ॥ २ ॥ अर्थ-जो साधु हास्य रहित सत्य बोलने वाला हो अर्थात् किसीकी हांसी-मश्करी नहीं करता हो १, अच्छीतरह सोच विचारकर बोलने वाला हो २, और क्रोध ३ लोभ ४ तथा भय ५ को वर्जता है वो ही मुनि मोक्षको नज्दीक देखनेके स्वभाववाला होकर निश्चयसे मृषावादको सदा त्यागता है। तीसरे महाव्रतकी पांच भावना
सयमेव उ उग्गहजायणे घडे, मइमं निसम्मा सइ भिख्खु उग्गहं। अणुन्नविय भुंजीय पाणभोयणं, जाइत्ता साहम्मियाण उग्गहं ॥३॥
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