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________________ साधुसाची ।। ८७॥ संग्रहः 4-4XNX- XXX-X-XXX-X-EX ९पंचमहाव्रत-भावना-विचार आवश्यप्राणातिपात आदि महाव्रतोंको स्थिर (मजबूत) करनेके लिये जो भावी जाय (अभ्यास करी जाय) वेकीय विचार भावना कहातीहैं, जैसे अभ्यास किये धिना विद्या विसर्जित होजातीहै यानि भूलजातेहैं, वैसे ही भावनाओंका | अभ्यास किये बिना अनेकतरहके दोष लगनेसे महाव्रत मलिन होजातेहैं, वास्ते भावनाओंका स्वरूप अच्छीतरह। जानकर उनका खूब अभ्यास करना चाहिये, वे भावना एक एक महावतकी ५-५ होनेसे पांचों महाव्रतोंकी । पञ्चीस होती हैं जो कि प्रवचनसारोद्धार गाथा ६३६ वीं से ६४० तक में आगे लिखे मुजब हैं। । पहले महावतकी पांच भावना इरियासमिए सया जए,उवेह भुंजेज व पाणभोयणं। आयाणनिक्खेवदुगुंछसंजए, समाहिए संजयए मणो वइ।१।। | अर्थ- ईर्यासमितिमें सदा यत्न रक्खे, यानि चलते हुए चार हाथ भूमि आगे आगे देखता चले १, आहार या पाणी देखके वापरे, यानि वहरते समय तथा खाने पीनेके समय आहार तथा पाणी देखके ॥८॥ वहरे और खाये पीये २, हरएक चीज लेते तथा रखते समय उस चीजको तथा जमीनको देखकर तथा XXBAEXAXARABARIYAR XX arar __Jain Education intena 2010.05 Oilww.jainelibrary.org For Private & Personal use only
SR No.600039
Book TitleAvashyakiya Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhimuni, Buddhisagar
PublisherHindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size7 MB
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