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साधुसाध्वी
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इधर उधर घूमता हुआ खडा रहे वह 'वारुणी' दोष १८, नवकार आदि चितवता हुआ बंदरकी तरह होठ फरकावे वह 'प्रेक्षा' दोष १९ है, इन उगणीस दोषों में से कोइ भी दोष काउस्सग्ग में नहीं लगाना चाहिये । २- वांदणे देनेका विचार
आसन के पिछले भाग पर खडे रहकर आधे नमे हुए 'इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावाणिज्जाए निसीहिआए अणुजाणह मे मिउग्गहं' इतना कहकर 'निसीहि' कहते हुए आसन के अगले भागमें आकर | संडासे पूजता हुआ जीमणे पगतरफ ओघेकी दंडी रखकर खडे पगोंसे बैठे, बाद डावे गोडे ऊपर मुहपत्ति | रखकर ओघेकी दशियों के उपर गुरुके दोनों चरणोंकी कल्पना करे, बादमें हाथ जोड कर 'अहो' का 'अ' धीरे से बोलते हुए जोड़े हुए दोनों हाथ ओघेकी दशिओं पर लगाकर जोरसे 'हो' बोलते हुए दोनों हाथ अपने ललाट (निलाड) के लगावे, यह एक आवर्त हुआ, इसी प्रकार दूसरे और तीसरे आवर्त में भी 'काय' तथा 'काय' का 'का' धीरेसे बोलते हुए दोनों हाथ ओघेकी दशिओं पर लगाकर 'यं' तथा 'य' ऊंचे स्वरसे बोलते हुए अपने ललाट को लगावे, बाद हाथ जोड़े हुए गुरुके मुखपर नजर लगाकर 'खमणिजो भे किलामो
2010 05
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आवश्य कीय विचार
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