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________________ साधुसाध्वी ॥ ६५ ॥ CXCXCYCOLORSC से कोइभी काम खुद करके अथवा दूसरेसे कराके गृहस्थको खुश करता हुआ गौचरी लेवे वह 'धात्रीपिंड आवश्यदोष १, एक दूसरेकी कही हुई बात एक दूसरेके पास जाकर परस्परमें कहने वाली दूती कहातीहै, ऐसे कीय विचार दूतीपणा करके जो गौचरी लेवे वह ' दूतीपिंड ' दोष २, शुभ अशुभ चेष्टा तथा ज्योतिष आदि आठ संग्रहः प्रकारके निमित्तसे भूत-भविष्यत्-वर्तमान कालमें होने वाले सुख-दुःख-लाभ-अलाभ-जीवित-मृत्यु आदि बताना वह निमित्त कहाता है, इस तरह करके जो गौचरी लेवे वह · निमित्तपिंड ' दोष ३, साधु 8 साध्वी गृहस्थके जाति-कुल-गण-(१) कला और व्यापार की प्रशंसा करते हुए मोगम पणेसे अपनेको उस है। गृहस्थके तुल्य जाति कुलादि वाला बताकर, अथवा ' मैं अमुक जाति या कुलका हूं' ऐसे साफ साफ है कहकर जो गौचरी लेवे वह ' आजीवपिंड ' दोष ४, ब्राह्मग आदिके भक्तोंके आगे उनके माने हुए है। गुरु ब्राह्मण आदिकी प्रशंसा करके और ' में भी उनका ही भक्त हूं' ऐसा बताकर जो गौचरी लेवे वह - वनीपक पिंड ' दोष ५, खुद अपने आप किसी रोगी को दवाई देकर, अथवा दूसरेसे दिलाकर अथवा । (१) “मलसारस्वतादिगणो लोक प्रतीतः" इति पिंडविशुद्धयवचूरिः । ॥६५॥ C Jain Education Internal 1010_05 For Private & Personal use only Filw.jainelibrary.org
SR No.600039
Book TitleAvashyakiya Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhimuni, Buddhisagar
PublisherHindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size7 MB
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