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साधुसाध्वी ॥ २५॥
देवे-पहला खमा० देकर 'आचार्य मिश्रं' १ । दूसरा खमा० देकर उपाध्याय मिश्रं २ । तीसरा खमा० देकर वर्तमान गुरून्' ३ । चौथा खमा० देकर ‘सर्व साधून्' ४ । कहे। बाद मस्तक नमाकर दोनों हाथोंसे मुंहपत्ति मुख आगे लगाकर गोडों से बैठा हुआ “सव्वस्स वि देवसिय दुचिंतिय दुम्भासिय दुञ्चिट्ठिय मिच्छामि दुकडं" कहे। बाद खडे होकर चारित्राचारकी शुद्धिके लिये करेमि भंते ! इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे देवसिओ० तस्स उत्तरि० अन्नत्थ० कहकर काउस्सग्ग करे, उसमें "सयणासणऽन्नपाणे०" इस गाथाको अर्थ । सहित १ बार अथवा मूल ३ वार चिंतवे, पारकर प्रगट लोगस्स कहे, बैठकर तीसरे आवश्यककी मुंह-2 पत्ति पडिलेहकर २ वांदणे देवे, बादमें कहे-'इच्छा० संदि० भग० ! देवसियं आलोउं ?' गुरु कहे
आलोएह' वाद-"इच्छं आलोएमि जो मे देवसिओ०” तथा “ठाणे कमणे चंकमणे०" कहे, बाद गुरु "सव्वस्स वि०" बोलदेवे पीछे शिष्यभी “सव्वस्स वि०” इत्यादि बोलता हुआ "इच्छा० संदिसह" तक कहे, वाद गुरु कहे- “पडिक्कमह" शिष्य कहे “मिच्छामि दुक्कडं"। बाद जीमणा गोडा ऊंचा करके बैठकर ओघा तथा मुहपत्ति दोनों हाथोंसे पकडकर मुंहपत्ति मुखपर लगाकर शिष्य कहे 'भगवन् ! सूत्र कड्ढू ?'
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201005
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