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________________ SAG आवश्य संग्रहः साधुसाध्वी / "संजोयणाऽपमाणे, इंगाले धूमाऽकारणे पढमा । वसहि बहिरंतरे वा, रसहेऊ दव्य संजोगा ॥१॥" MINS अर्थः-उपासरेके बाहर, यानि गृहस्थके घरपर वहरते समय अथवा उपासरेमें आये वाद आहारपाणी करते सयम अच्छा स्वाद बनानेके वास्ते एक वस्तुमें दूसरी वस्तु मिलावे वह पहला 'संयोजना' दोष १, है। जितना आहार करनेपर मन-वचन-कायासे आलस आदि प्रमाद रहित स्वाध्याय-ध्यान-तप-संजमादिक की है। & आराधना सुखसे हो सके उतना आहार साधु-साध्विओंको करना चाहिये, इससे अधिक आहार करे वह 'अप्रमाण है। दोष २, रागरूपी अग्नि चारित्ररूपी बावनाचंदनको बालकर अंगारे (कोयले) के समान करदेताहै, वास्ते आहार-पाणी करते हुए अच्छे स्वादिष्ट आहारकी अथवा वैसा अच्छा आहार देनेवालेकी प्रशंसा करे वह 15 अंगार' दोष ३, जैसे अच्छा मकान से मैला होजाताहै वैसेही द्वेषरूप धूंसे चारित्ररूप सुंदर मकान है मैला होजाताहै, वास्ते आहार-पाणी करते हुए खादरहित-लूखे-सूखे खराब आहार की अथवा वैसा आहार ACAUCROGRROUS M ॥७३॥ Jain Education Intem ||2010-05 For Private & Personal use only I w.jainelibrary.org
SR No.600039
Book TitleAvashyakiya Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhimuni, Buddhisagar
PublisherHindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size7 MB
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