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________________ साधुसाध्वी ॥ १०२॥ * दिन में नहीं। ७-कोई रोता हो तो उसके रोनेका शब्द रातमें जहां तक सुननेमें आवे वहां तक असल्झाय, परन्तु - आवश्य कीय विचार - जो आचार्य हो अथवा जो विद्या सिद्ध या शिष्य समुदाय आदि महाऋद्धि वाला हो, जो प्रह घोर तपस्वी हो, जिसने अणसण किया हो, उसी गाम-नगर आदिमें जिसके गृहस्थपणेके सगे संबंधी है। अधिक हों, ऐसा कोई साधु यदि काल करजाय तो तीन दिन तक असल्झाय । ५-शारीरिक१- जलमें चलने वाले मच्छ आदि जलचर, जमीन ऊपर फिरने वाले गो-भैंस आदि थलचर, और आकाशमें उड़ने वाले कबूतर आदि खेचर, इन तीन प्रकार के तिर्यचों में से किसीभी पंचेंद्रीय चिर्तयके में मांस-चमडा-रुधिर (लोही) और हड्डी, इनमें से कोई थोडासाभी उपासरेके आसपास साठ (६०) हाथ ) तककी भूमिमें यदि पडे तो तीन पहोरका असज्झाय। २-उपासरेके आसपास साठ (६०) हाथ तकमें यदि गो-भैंस आदि कोई तिर्यच व्यावे तो है ॥१०२॥ Jain Education Inte 2010_05 For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.600039
Book TitleAvashyakiya Vidhi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabdhimuni, Buddhisagar
PublisherHindi Jainagam Prakashak Sumati Karyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size7 MB
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