________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विचारपोथी
३४
सेवा -भक्ति
अहंकारभक्ति
हमारी मां कहा करतो, "देशे काले च पात्रे च' यह एक ढकोसला है; दयासे बर्ताव करना बस है।" मैं कहा करता था, “अपात्रको दान देने में दान लेनेवालेका भी अकल्याण है।" इसपर उसका जवाब निश्चित था-"पात्र-अपात्र ठहरानेवाले हम कौन ! जो गरजका मारा मांगने आये वह भगवान् ही होता है।"
बर्तावमें बन्धन हो, उससे मन मुक्त रहता है ।
३७ गोतामें हिमालयको स्थिरताको विभूति बतलाया है। जिसकी बुद्धि स्थिर है वह हिमालयमें ही है।
३८ जिन्होंने रत्नोंकी लाखों रुपये कीमत ठहराई, वे उनकी 'अमूल्यता' गुमा बैठे। सन्त सच्चे रत्न-पारखी हैं; क्योंकि उन्होंने रत्नोंकी 'अमूल्यता' जान ली।
उपनिषदें वचन है, 'आकाश-शरीरं ब्रह्म' । भक्त भगवानका नीलवर्ण मानते हैं। दोनोंका अर्थ एक ही है। भगवानके दर्शन बिना अांखें क्योंकर शान्त होंगी !
४० शरीर-नाश नाश ही नहीं है । प्रात्मनाश होता ही नहीं। नाश याने बुद्धि-नाश ।
For Private and Personal Use Only