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विचारपोथी
२११ हमें सन्तोंके चरित्रका नहीं, किन्तु चारित्र्यका अनुकरण करना चाहिए।
२१२
काव्यके हेतु :
हरिका यश गाना। जीवनका अर्थ करना। कर्तव्यकी दिशा दिखाना । चित्तका मैल धोना।
२१३
जो वाणी सत्यको संभालती है, उस वाणीको सत्य संभालता
२१४ उपपत्ति, प्रतीति और प्रीति ; अथवा सुनना, देखना और खाना।
. ... २१५ सन्तोंने मोक्षको भी तुच्छ माना, उसमें दो हेतु हैं :
(१) मोक्षकी विकृत कल्पना पलटकर उसे उजालना और (२) साधनाका गौरव करना।
पुराणकारोंने काल्पनिक देवता खड़े करके उनकी स्तुति की। काल्पनिक राक्षसोंका निर्माण करके उनकी निन्दा की। इस प्रकार मनुष्यका नाम-उल्लेख किये बिना 'न म्हणे कोणासी उत्तम वाईट' अर्थात् 'किसीको भी भला-बुरा मत कहो' यह सूत्र संभाला और बालाबाल नीतिबोधका कार्य साध लिया। ये देव और राक्षस हम लोगोंके ही हृदयमें रहते हैं, इतना हमको जान लेना चाहिए।
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