Book Title: Vichar Pothi
Author(s): Vinoba, Kundar B Diwan
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 67
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्यारपोषी लेकिन मूर्तिपूजाकी मर्यादा सिखानेके लिए हिन्दूधर्मने इस पदार्थपाठका निर्माण किया है। ४४७ 'भीष्म' और 'विभीषण' दोनोंका अर्थ भयंकर है। किसीको भीष्म स्वपक्षनिष्ठ और विभीषण देशद्रोही मालूम होता है, तो किसीको भीष्म सत्यद्रोही और विभीषण सत्यनिष्ठ मालूम होता है । परन्तु मनुष्योंकी योग्यता कूतनेकी पुराणकारोंकी कसौटी कुछ निराली ही जान पड़ती है ; क्योंकि वे दोनोंको 'परम भागवत' कहते हैं। ४४८ नये राजाके साथ नया सिक्का पा ही जाता है । उसी प्रकार नवीन दर्शन आते ही उसके साथ भाषा भी नवीन बनती है। 'मैं ज्ञानी' यह भी अहंकार, और 'मैं मूढ़' यह भी अहंकार । शास्त्रार्थ का लाग-लगाव (अर्थ-लापनिका) कलियुगका बड़ा पाप है। मनुष्य पहले दरिद्री होता है । द्रव्य बादमें आता है। पहले प्राप्ति, बादमें फल । 'मरनेके पहले ही मरकर रहा' (मरणाआधी राहिलों मरूनि) का यही अर्थ है। ४५२ भक्त प्रवाहपतित साधनोंका प्रयोग कर छुट्टी पाता है। योगी साधनाके लिए अनुकूल प्रवाह बनाता है। दोनोंको दोनों बातें यथासंभव करनी पड़ती हैं। कर्मयोगी-जलाया हुअा आकृति-मात्र कंडा। संन्यासी-जलाकर खाक किया हुआ निराकार कंडा। For Private and Personal Use Only

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