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विचारपोथी
५७८ .. आरुरुक्षु जीवनमें-(१) उद्योग, (२) प्रयोग । प्रारूढ़ जीवनमें-(१) योग।
५७६
- पहली चिनगारी लगनेके लिए युग बोत गये, लेकिन अब राख होनेके लिए त्रैराशिक लगानेकी ज़रूरत नहीं है।
५८०
चित्तकी एकाग्रता योगकी समाप्ति नहीं है। वहांसे योगका प्रारम्भ है।
५८१ ईश्वर-एकवचन। ईश्वर और भक्त--द्विवचन । ईश्वर, भक्त और सेवा-बहुवचन ।
५८२ जिसे प्रांखके सामने ईश्वर दिखाई देता है, वह ज्ञानी हो गया। लेकिन ईश्वर मेरे पीछे खड़ा है, इतनी श्रद्धा स्थिर हो जावे, तो भी साधकके लिए बस है।
५८३ अग्निके लिए जंगल काटकर रास्ता नहीं बनाना पड़ता। वह खुद ही अपना रास्ता देख लेती है। भक्तके लिए परिस्थिति कभी प्रतिकूल नहीं होती।
५८४ आर्त भक्त ईश्वरका हृदय, जिज्ञासु ईश्वरकी बुद्धि, अर्थार्थी ईश्वरका हाथ और ज्ञानी ईश्वरका आत्मा है।
५८५ ' तत्त्वज्ञान धर्मके लिए बीज-रूप है। बीजमें जो अल्प भेद होता है वह फलमें बड़ा हो जाता है, इसलिए तत्त्वज्ञानमें सूक्ष्मता चाहिए।
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