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विचारपोथी
६४० विनाश, विकासका अपरिहार्य अंग है। लेकिन वह प्रयोग हरएक अपने-आपपर ही करे ।
प्रेमयुक्त अपरिचयमें मैं अपनी रक्षा देखता हूं।
'अहिंसादि प्रकृतिके गुण हैं या आत्माके ?' अर्हिसादि प्रकृतिके गुण नहीं हैं और आत्माके भी गुण नहीं हैं। वे अात्माके 'स्वभाव-धर्म' हैं।
अवतार विश्वमान्य होता है। साधुका साथ कुत्ता भी दे तो सौभाग्य कहना चाहिए।
कर्मयोग रजोगुण नहीं है। वह रजोगुणपर नुसखा है।
भौतिक ज्ञान यदि अज्ञान न हो, तो ऐश्वर्य होगा। लेकिन
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एक पक्ष-संसार साधुओं के लिए नहीं है, इसलिए साधु अलग रहें!
दूसरा पक्ष-संसार साधुनोंके लिए ही है, इसलिए साधु धीरज रखें! __(भावार्थ, संसार चाहे साधुओंके लिए हो या न हो, साधुओंको साधुत्व कभी नहीं छोड़ना चाहिए।)
६४७ निर्दोष यज्ञकी यदि अशक्यता न होती, तो भक्तिकी आवश्यकता न होती।
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