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विचारपोथी
५१५ ज्ञानी जिन कर्मोको करता है उन्हें तो करता ही है, पर जिन्हें नहीं करता उन्हें भी करता है, इसलिए वह पूर्ण कर्मयोगी। ज्ञानी जिन कर्मों को नहीं करता, उन्हें तो करता ही नहीं, पर जिन्हें करता है, उन्हें भी नहीं करता, इसलिए वह पूर्ण कर्मसंन्यासी। बुद्धिस्थ विवेक इंद्रियोंमें भरनेका प्रयत्न तितिक्षा है।
५१७ अनेक क्षेत्रोंमेंसे एक हो नदी बहती है। वही दृष्टान्त आत्माके लिए है
५१८
शास्त्र ज्ञापक है, कारक नहीं है। यह शास्त्रकी मर्यादा है, और यही शास्त्रकी महिमा।
५१६
भक्तमें योग सहज होता है, क्योंकि हरिमयतामें निर्विषता आ ही जाती है।
५२० वस्तुमें यदि उसके सारे गुण-दृष्ट, अदृष्ट—निकाल दिये जायं तो क्या शेष रह जाता है ? एक कहता है 'शून्य' । दूसरा कहता है, 'विशेष'। तीसरा कहता है, 'अज्ञ य'। वेद कहता है, 'आत्मतत्त्व'।
५२१ योगका सार(१) यम, (२) नियम, (३) संयम ।।
५२२ व्यक्तिका 'अहम्' समष्टिके 'अहम्' में लीन होनेके बाद ही ईश्वरके अर्पण हो सकता है । पहले शुद्धि, फिर समर्पण ।
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