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विचारपोथी.
अकर्तृत्वके भेद : (१) कर्मत्व, (२) निमित्तत्व, और (३) साक्षित्व ।
५३१ देहमें मोक्षकी शक्यता है, परन्तु संभव नहीं है।
५३२
कर्मयोगका यंत्र सख्त रखना चाहिए। घर्षणके डरसे ढील नहीं करनी चाहिए । घर्षणसे बचनेके लिए भक्तिका तेल देना चाहिए।
अधर्म, परधर्म, उपधर्म-इन तीन अपथोंसे बचकर साधकको स्वधर्मका आचरण करना चाहिए।
५३४ कर्मयोगमें काल-नियमन, कर्म-नियमन और कल्पनानियमन आवश्यक है।
५३५ हेतु, परिणाम और स्वरूप, तीनों देखकर कर्मकी योग्यता ठहरानी होती है।
देहान्धतामें दो दोष हैं : (१) बहिर्मुखता, और (२) संकचितता। बहिर्मखताके कारण भीतरवाला भगवान दुराता है । संकुचितताके कारण दुनिया दूर पड़ती है। .
साधुत्वकी द्विरूप प्रवृत्ति होती है। कभी संग्राहक, कभी संशोधक । संग्राहक साधुत्व पूर्वानुभवोंका समन्वय करता है। संशोधक साधुत्व नवीन आविष्कार करता है।
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