Book Title: Vichar Pothi
Author(s): Vinoba, Kundar B Diwan
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 42
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारपोथी २५६ मैं अनुभव करता हूं कि मेरी ईश्वरके लिए जितनी भक्ति है, उससे ईश्वरकी मुझपर कृपा अधिक है। २५७ अभ्यास और वैराग्य एक ही वस्तुके विधायक तथा निषेधक अंग हैं। पहला दर्शन-नृसिंह भगवान् । दूसरा दर्शन-नृसिंह, प्रह्लाद दोनों---भगवान् । तीसरा दर्शन-नृसिंह, प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु-तीनों भगवान् । चौथा दर्शन-नृसिंह, प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु तीनोंके भी परे भगवान् । २५६ मेरे लिए स्वधर्म ही आचरणीय क्यों ? ममताके कारण नहीं, या इसलिए भी नहीं कि परधर्मसे वह श्रेष्ठ है ; वरन् इस कारण कि मेरा उसीमें विकास है। २६० गुण अथवा दोष 'सकुटुंब सपरिवार पाकर कार्यसिद्धि' करते हैं। बढ़ईको जिस प्रकार भूमितिके सिद्धान्तोंका भय रहता है, उसी प्रकार सेवकको या साधकको अहिंसादि व्रतोंका भय रहना चाहिए। २६२ कम-से-कम परिग्रहसे ज्यादा-से-ज्यादा कस कैसे निकालें, यह अपरिग्रह सिखाता है । For Private and Personal Use Only

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