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विचारपोयो
'१६४ पादसेवन-भक्ति, याने सभी भूतोंकी सेवा । 'पादोऽस्य विश्वा भूतानि ।'
'निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् !' निमित्त-मात्र होना, याने अहंकार छोड़कर ईश्वरके हाथका हथियार बनना । अर्थात्, यदि दाहिना हाथ थक जाय तो वाएं हाथसे लड़नेकी तैयारो रखना।
भक्त संसार, साधन और सिद्धि-तीनों भगवानपर छोड़ देता है।
१६७ प्राधि, व्याधि, उपाधि, समाधि-यह उपसर्ग-चतुष्टय है।
१६८ शून्यता=एकता=अनन्तता ।
स्वरूप, विश्वरूप, अरूप-ये भगवान्के तीन रूप।
२०० वेद-प्रामाण्य, याने नीतिधर्मकी नित्यता।
२०१ मुझे सन्तोंके वचन पूज्य हैं, मेरी कल्पनाएं प्रिय हैं, सत्य प्रमाण है। मेरी कल्पनाओंके अनुसार बर्ताव करनेके लिए मैं बाध्य हूं; क्योंकि स्वधर्म अबाध्य है। परन्तु सन्तोंका आधार भी मैं छोड़ नहीं सकता। इसलिए मेरी कल्पनाओंका सन्तोंके वचनोंके साथ मेल बैठानेका कर्तव्य मुझे प्राप्त हो जाता है। सत्यधर्मपर दृष्टि स्थिर होनेके कारण ऐसा मेल करना मुझे कठिन नहीं पड़ता । सत्यसूर्यके प्रकाशमें सन्तोंके मार्गपर अपनी कल्पनाओंके पोवोंसे चलनेका मैं प्रयत्न करता हूं।
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