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विचारपोथी
१७८ जगत्के कारण 'जगत्के', आंखोंके कारण 'रूपका', बुद्धिके कारण 'ज्ञान', अात्माके कारण होता है।'
१७६ 'आत्माका अस्तित्व' ये शब्द पुनरुक्त हैं ; क्योंकि प्रात्माके माने ही अस्तित्व है।
भगवान् ! मुझे न भुक्ति चाहिए और न मुक्ति ; मुझे भक्ति दे ! मुझे न सिद्धि चाहिए, न समाधि ; मुझे सेवा दे !
जबतक अंदर-ही-अंदर धुंधुवा रही हो, तबतक प्रगट नहीं करनी चाहिए। सुलगने पर अपने आप दिखाई देगी।
१८२ विद्युत्स्फुरण साधकके लिए आश्वासन है। उतनेके ही भरोसे नहीं रहना चाहिए। जबतक सूर्य-प्रकाश न मिले, तबतक प्रयत्न जारी रखना चाहिए।
१८३ अमूर्त और मूर्तके बीचका एकमात्र जोड़-शब्द, याने वेद, याने नाम।
१८४ विद्यार्थियोंसे मैंने जितना सीखा, उसकी तुलनामें मैंने उनको कुछ भी नहीं सिखाया।
'नहीं चाहिए' नहीं चाहिए
१८६
भक्तके 'स्वारब्ध नहीं होता है :
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