Book Title: Vichar Pothi
Author(s): Vinoba, Kundar B Diwan
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 31
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारपोथी १७८ जगत्के कारण 'जगत्के', आंखोंके कारण 'रूपका', बुद्धिके कारण 'ज्ञान', अात्माके कारण होता है।' १७६ 'आत्माका अस्तित्व' ये शब्द पुनरुक्त हैं ; क्योंकि प्रात्माके माने ही अस्तित्व है। भगवान् ! मुझे न भुक्ति चाहिए और न मुक्ति ; मुझे भक्ति दे ! मुझे न सिद्धि चाहिए, न समाधि ; मुझे सेवा दे ! जबतक अंदर-ही-अंदर धुंधुवा रही हो, तबतक प्रगट नहीं करनी चाहिए। सुलगने पर अपने आप दिखाई देगी। १८२ विद्युत्स्फुरण साधकके लिए आश्वासन है। उतनेके ही भरोसे नहीं रहना चाहिए। जबतक सूर्य-प्रकाश न मिले, तबतक प्रयत्न जारी रखना चाहिए। १८३ अमूर्त और मूर्तके बीचका एकमात्र जोड़-शब्द, याने वेद, याने नाम। १८४ विद्यार्थियोंसे मैंने जितना सीखा, उसकी तुलनामें मैंने उनको कुछ भी नहीं सिखाया। 'नहीं चाहिए' नहीं चाहिए १८६ भक्तके 'स्वारब्ध नहीं होता है : For Private and Personal Use Only

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