________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विचारपोथी
माताका बालकके सभी दोषों-सहित बालक प्रिय लगता है । वैसे हो भक्तको ब्रह्मकी सब उपाधियों सहित-जगतसमेतब्रह्म प्रिय लगता है।
१०३
स्वधर्म सहज-प्राप्त होता है । बालकको दूध पिलानेका धर्म माता मनुस्मृतिसे नहीं सीखती।
१०४
आत्माएं सभी हैं, पर आत्मावान् एकाध ही।
१०५ श्रुतिको द्वैतसे इतनी घृणा है कि प्रात्माकी बहुरूपता बतलाते हुए उसने दोका पहाड़ा छोड़ दिया है: “स एकधा भवति, त्रिधा भवति, पंचधा, सप्तधा, नवधा . . . . .
१०६ गाढ़ निद्रामें विचारोंका विकास होनेका मुझे बहुत बार अनुभव होता है । बोया हुअा बीज मिट्टीसे ढंक जानेसे लोप हुासा लगता है, पर विकसित होता रहता है । वैसा ही यह दिखता
१०७ कोषके सभी शब्दोंका 'ईश्वर' ही एकमात्र अर्थ है।
१०८ विभूति, याने ईश्वरके चिन्तनीय भाव । वे सब अनुकरणीय होंगे ही, ऐसी बात नहीं है।
१०६ विरोधी-भक्तिके तीन प्रकार हैं : (१) नैष्ठिक नास्तिकता । (२) नैष्ठिक आसक्तता । (३) नैष्ठिक नीतिहोनता।
For Private and Personal Use Only