Book Title: Vichar Pothi
Author(s): Vinoba, Kundar B Diwan
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ विचारपोथी ११७ विचार आगे दौड़ रहा है। प्राचार पिछड़ रहा है। परन्तु वह विचारोंकी दिशामें चल रहा है, कम-से-कम इतना बचाव अबतक था। अब वह भी नहीं रहा; क्योंकि विचार इतना आगे बढ़ गया है कि उसकी दिशा भी अदृश्य-सी हो गई है। ऐसी हालतमें बिना भगवानकी दयाके रक्षा नहीं है। ब्रह्मचर्य और अहिंसाको गीता शारीर-तप क्यों कहती है ? इसलिए कि गीता न्यूनतम इतनी व्यवस्था चाहती है कि काम-क्रोधों के वेग कम-से-कम शरीरके तो बाहर न निकलें। चित्रकार जो चित्र बना रहा हो उसकी भी उसे नजदीकसे ठीक-ठीक कल्पना नहीं आती। उसके लिए उसे खास तौरसे दूर जाकर देखना पड़ता है। बिना तटस्थ वृत्तिके सृष्टि-रहस्य खुलना असम्भव है। . शत्रु पर प्रेम करना सुरक्षित है। प्राप्त परिस्थिति चाहे जैसी हो, उसका भाग्य बना लेनेकी कला भक्तमें होती है। 'सर्व भाग्ये येती घरा। देव सोयरा झालिया।'-तुकाराम (भगवानसे नाता हो जाय, तो सारे भाग्य घर पधारते हैं।) १२२ गंगाका पानी लोटेमें रखकर वह लोटा सीलबन्द करके पूजाके लिए पूजा-घरमें रखते हैं। प्रात्मा इस गंगाके लोटेके समान है। परमात्मा गंगानदी-जैसा है। दोनोंकी पाप-निवारक शक्ति समान है। ताप-निवारक शक्तिमें अन्तर है। For Private and Personal Use Only

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