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विचारपोथी
११७ विचार आगे दौड़ रहा है। प्राचार पिछड़ रहा है। परन्तु वह विचारोंकी दिशामें चल रहा है, कम-से-कम इतना बचाव अबतक था। अब वह भी नहीं रहा; क्योंकि विचार इतना आगे बढ़ गया है कि उसकी दिशा भी अदृश्य-सी हो गई है। ऐसी हालतमें बिना भगवानकी दयाके रक्षा नहीं है।
ब्रह्मचर्य और अहिंसाको गीता शारीर-तप क्यों कहती है ?
इसलिए कि गीता न्यूनतम इतनी व्यवस्था चाहती है कि काम-क्रोधों के वेग कम-से-कम शरीरके तो बाहर न निकलें।
चित्रकार जो चित्र बना रहा हो उसकी भी उसे नजदीकसे ठीक-ठीक कल्पना नहीं आती। उसके लिए उसे खास तौरसे दूर जाकर देखना पड़ता है। बिना तटस्थ वृत्तिके सृष्टि-रहस्य खुलना असम्भव है।
. शत्रु पर प्रेम करना सुरक्षित है।
प्राप्त परिस्थिति चाहे जैसी हो, उसका भाग्य बना लेनेकी कला भक्तमें होती है। 'सर्व भाग्ये येती घरा। देव सोयरा झालिया।'-तुकाराम (भगवानसे नाता हो जाय, तो सारे भाग्य घर पधारते हैं।)
१२२ गंगाका पानी लोटेमें रखकर वह लोटा सीलबन्द करके पूजाके लिए पूजा-घरमें रखते हैं। प्रात्मा इस गंगाके लोटेके समान है। परमात्मा गंगानदी-जैसा है। दोनोंकी पाप-निवारक शक्ति समान है। ताप-निवारक शक्तिमें अन्तर है।
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