Book Title: Vichar Pothi
Author(s): Vinoba, Kundar B Diwan
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारपोथी मी समर्पणाचे गाणे गातसें। गा गा रे सखया तूं ही गा तसें ।। (शेवाळी-काईमें । ओंगळी—अमंगल । चिळसला-सिहुर गया। निराळा—अलग। कोंडिला-बंदी बनाया । गुंग—अलमस्त । वामन और बलि शब्द श्लिष्ट हैं । ये दोनों रूपक हैं ।) संध्याकी प्रार्थना याने अन्तकालका स्मरण है। मैं जब तुकाराम जैसोंकी भावना देखता हूं तब मुझे लगता है मेरी भावना उनके सामने कुछ भी नहीं है । पर उसको ''मैं" क्या करूं! __ आत्मदर्शनके बिना आनन्द नहीं। मांको लड़केका चेहरा देखकर आनन्द होता है इसका कारण उसे उस लड़केमें अपनी आत्मा दिखाई देती है। अत्युत्तम कल्पनाओंके विपर्यास अत्यन्त हीन होते हैं। यदि ताजे फलोंके समान आरोग्यकारक अन्न दूसरा नहीं है, तो सड़े हुए फलोंके समान आरोग्यनाशक भी नहीं है। गंडकीके पानीमें रहकर शालग्राम गोल चिकना होता है, पर गीला नहीं होता। उसी तरह सत्संगतिमें रहकर हम सदाचारी बनेंगे; पर इतना बस नहीं है। भक्तिसे भीगना चाहिए। ६० स्वार्थ तो जानबूझकर ही नंगा है। मुख्य बात, परार्थसे बचना है। गीता अनासक्ति बताती है। परन्तु ईश्वर में आसक्त होनेको कहती ही है। For Private and Personal Use Only

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