________________
लब्धस्य शीलमधनस्य फलं व्रतानां दानं क्षमा च धनिनो विषयोन्मुखस्य । सद्दर्शनं व्यसनिनो जिनपूजनं च श्रोतुर्वशेन कथयेत्कथको विधिज्ञः ॥१८॥ संसारसागरतरङ्गनिमग्नजीवान् सज्ज्ञाननावमधिरोप्य सुखेन नीत्वा । सद्धर्मपत्तनमनन्तसुखाकरं यत् तत्प्रापयन्ति गुरवो विदितार्थतत्त्वाः ॥ १९ ॥ जन्माटवीषु कुटिलासु विनष्टमार्गान् येऽत्यन्तनिर्वतिपथं प्रतिबोधयन्ति । तेभ्योऽधिकः प्रियतमो वसुधातलेऽस्मिन्कोऽन्योऽस्ति बन्धुरपरःपरिगण्यमानः॥ २०॥ राज्याधराज्यपृथुचक्रधरोरुभोगान् भौमेन्द्रकल्पपतिनामहमिन्द्रसौख्यम् । क्लेशक्षयोद्धवमनन्तसुखं च मोक्षं संप्राप्नुवन्ति मनुजा गुरुसंश्रयेण ॥ २१ ॥
सांसारिक सम्पत्ति और भोगोंके लोभीको संयमका उपदेश दें, निर्धनको व्रतादि पालन करनेकी प्रतिज्ञा कराये जिसके फलस्वरूप धनादिकी प्राप्ति स्वतः ही हो जाती है। सांसारिक भोगविलासोंमें मस्त धनी पुरुषको दान और क्षमाका माहात्म्य समझाये । इसी प्रकार चोरी, व्यभिचार, आदि व्यसनों या दुखोंमें फँसे व्यक्तिको तत्त्वोंके सच्चे श्रद्धान और जिन पूजनादिकी ओर प्रेरित करें ॥१८॥
जो सद्गुरु तत्त्व और अर्थको भलीभांति जानते हैं वे संसार समुद्रके मोहरूपी तूफानके थपेड़े खाकर लहरोंमें डूबते हुए प्राणियोंको सरलतासे उभार लेते हैं और सम्यक् ज्ञानरूपी नावपर चढ़ाकर अनन्त सुखोंके भण्डार जिनधर्मरूपी नगरमें पहुंचा देते हैं ।। १९ ॥
भाई बन्धु और हितैषियोंका लेखा करनेपर इस संसारमें उनसे बढ़कर हितैषी और प्रेमी बन्धु दूसरा और कौन हो सकता है, जो जन्म मरणरूपी घने जंगलोंकी टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियोंमें रस्ता भूले हुए संसारी प्राणियोंको पूर्णवैराग्य और शान्तिरूपी कल्याणकारी मार्गोंको पूर्णरूपसे दिखा देते हैं । २० ।।
मनुष्य सद्गुरुका सहारा पा जानेपर आधे राज्य, पूर्णराज्य और विशाल राज्योंके अधिपति पदको, चक्रवर्तीके विशाल । भोगोपभोगोंको अथवा चक्रवतियोंके भी पूज्य भौमेन्द्रपद, देवताओंके अधिपति इन्द्र और अहमिन्द्रोके सुखोंको ही प्राप्त नहीं
करता, अपितु दुखके संयोगसे हीन ज्ञानावरणादि क्लेशोंके समूल नाशसे उत्पन्न एकमात्र फल अनन्त सुख, वीर्य, दर्शनादिमय मोक्ष महापदको भी वरण करता है ॥ २१ ॥
१. म क्थकोविदज्ञः ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org