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प्रथमः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
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सत्कारमैच्यवनभैषजसंश्रयादीन्वक्ताऽनपेक्ष्य जगता'त्युपकारहेतम । निष्केवले हितपथं प्रवदन्वदान्यः श्रोतात्मनोरुपचिनोति फलं विशालम् ॥११॥ जन्मार्णवं कथमयं तरतीति योऽत्र संभावयत्यतुलधीर्मनसा दयालुः । संसारघोरभयदुःखमनादिबद्धं तस्य क्षयं व्रजति साध्विति वर्णयन्ति ॥ १२॥ श्रेयोऽथिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेशः । मोक्षार्थिना श्रवणधारणसत्क्रियार्था योज्यास्तु ते मतिमता सततं यथावत् ॥ १३ ॥ शुश्रूषताश्रवणसंग्रहधारणानि
विज्ञानमूहनमपोहनमर्थतत्त्वम् । धर्मश्रवार्थिषु सुखाभिमुखेन' नित्यमष्टौ गुणान्खलु विशिष्टतमा वदन्ति ॥ १४ ॥
जो उदाराशय उपदेशक निजी आदर-सत्कार, परिचय-मित्रता, भरण-पोषण, विरोधियोंसे रक्षा, रोगोंकी चिकित्सा, सहारा, आदि स्वार्थोंकी तनिक भी अपेक्षा न करके, संसारका एकमात्र पूर्ण उपकार करनेकी इच्छासे ही सर्वज्ञप्रभुके मुखारविन्दसे आगत सद्धर्मका ही शुद्ध उपदेश देता है वह अपने श्रोताओंके ही पुण्यको नहीं बढ़ाता है, अपितु स्वयं भी विशाल पुण्यबन्ध। करता है। ११ ।।
इस संसार में जो परमकृपालु और अतुल बुद्धिशाली उपदेशक अपने मनमें सर्वदा यही सोचता है कि 'यह विचारे श्रोता | लोग कैसे संसार समुद्रसे पार होंगे?' उसके अनादिकालसे बंधे भयंकर संसारिक अज्ञानादि दुख और जन्म, रोग, जरा, मरणादि । 1 भय समूल नष्ट हो जाते हैं, ऐसा श्रीगणधरादि महाज्ञानियोंने कहा है ।। १२ ॥
अपने तथा दूसरों के कल्याणके इच्छुक सच्चे जिनधर्म प्रेमीको नियमपूर्वक जिन शासनका उपदेश करना चाहिये तथा 7 मोक्ष लक्ष्मीको वरण करनेके लिए व्याकुल उस बुद्धिमान् उपदेशकका यह भी कर्तव्य है कि वह हर समय प्रमादको छोड़कर सब ही संसारी प्राणियोंको शास्त्र श्रवण, तत्त्वोंके मनन, सम्यक् चारित्रके पालन, आदि उत्तम कार्योंमें लगावे ।। १३ ।।
श्रोता इस भव और परभवमें सुखोंके इच्छुक धर्मशास्त्रके श्रोताओंमें गुरु, आदिको सेवा-परायणता, मन लगाकर सुनना, आगे पीछे पढ़े या सुनेको याद रखना, पठित या श्रुतविषयोंका मनन करना, प्रत्येक तत्त्वका गहन अध्ययन करना, प्रत्येक विषयको तार्किक दृष्टिसे समझना, हेयको छोड़ देना और उपयोगीको तुरन्त ग्रहण करना ये आठ गुण निश्चयसे होना चाहिये। ऐसा गणधरादि लोकोत्तर ऋषियोंने कहा है ।। १४ ॥
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१.[जगपकदत्यारहेतुम् ] । २. क हितपदं ।
३. म सुखादिमुखेन। ४. महापुराण, प्रथम अध्याय, श्लो० १२६-१३७ ।
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