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धातुः स काञ्चनमयः क्रियया विहीनः कालान्तरादपि न याति सुवर्णभावम् । एवं जगत्यमितभव्यजनश्चिरेण नालं भवाद् व्रजितुमत्र विनोपदेशात् ॥८॥ दीपं विना नयनवानपि संदिदृक्षुर्द्रव्यं यथा घटपटादि न पश्यतीह । जिज्ञासुरुत्तममतिर्गणवांस्तथैव वक्त्रा विना हितपथं निखिलं न वेत्ति ॥९॥ सर्वज्ञभाषितमहान दधौतबुद्धिः स्पष्टेन्द्रियः स्थिरमतिमितवाङमनोज्ञः। मष्टाक्षरो जितसभः प्रगृहीतवाक्यो वक्तु कथां प्रभवति प्रतिभादियुक्तः ॥ १०॥
प्रथमः सर्गः
न्यायालयाच्या
आकाश, काल और जीवके भेदसे द्रव्योंको श्रीजिनेन्द्रदेवने छह प्रकारका कहा है। ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोककी अपेक्षासे प्रधानतया क्षेत्र तीन प्रकारका है। सामान्यरूपसे भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालकी अपेक्षासे काल भी तीन प्रकारका है। श्री १००८ जिनेन्द्र भगवान्के जीवन और एक तीर्थंकरके जन्मकालसे लेकर अगले तीर्थंकरके जन्मतकके अन्तरालको तीर्थ कहते हैं । कथावस्तु या कहानीको प्रकृत कहते हैं । कर्मोके उपशम, क्षय तथा क्षयोपशमसे होनेवाले भाव हैं और तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिका ही नाम महाफल है ॥७॥
सुवर्णमिश्रित मूलधातु ठीक प्रकारसे शुद्ध न किये जानेके ही कारण बहुत समय बीत जानेपर भी स्वर्ण-पाषाण ही रह जाती है, सोना नहीं हो पाती है। इसी प्रकार इस संसारमें अनेकानेक भव्य ( मुक्त होने योग्य ) जीव सद्गुरुका उपदेश न मिलनेके कारण ही चिरकाल तक संसार समुद्रमें ही ठोकरें खाते हैं मोक्ष नहीं जा पाते हैं ॥ ८॥
पदार्थोंको देखनेके लिये उत्सुक पुरुष, आँखोंकी दृष्टि हर तरह ठीक होनेपर भी जैसे केवल दीपक न होनेके कारण ही अंधेरेमें घट, पट, आदि वस्तुओंको नहीं देख पाता है, उसी प्रकार परम बुद्धिमान, सद्गुणी और कल्याणमार्ग जाननेके लिये लालायित पुरुष भी एक सच्चे उपदेष्टाके न मिलनेसे ही संसारसे उद्धारके हितमार्गको पूर्णरूपसे नहीं समझ पाता है ॥ ९ ॥
उपदेष्टा वही प्रतिभाशाली व्यक्ति कथा कहनेका अधिकारी है, जिसकी बुद्धि सर्वज्ञप्रभुके मुखारबिन्दसे निकले शास्त्ररूपी महानदमें गोते लगाकर निर्मल हो गयी हो, जिसकी चक्षु, आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंको पूर्ण तथा विशदरूपसे जानती हों, जिसकी मति स्थिर हो, जिसकी मित बोली हितकारी और मनमोहक हो, जिसके अक्षरों, शब्दों और वाक्योंमें प्रवाह हो, जो सभाको मन्त्रमुग्ध-साकर देता हो तथा जिसकी भाषाको श्रोता सहज ही समझ लेते हों; अर्थात् जिसकी भाषा-भावोंके पीछे-पीछे चलती हो ॥ १० ॥
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1.म महार्णव ।
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