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प्रथमः
वराङ्ग चरितम्
ज्ञानेन येन जिनवक्त्रविनिर्गतेन. त्रैलोक्यभूतगुणपर्ययसत्पदार्थाः। ज्ञाताः पुनर्युगपदेव हि सप्रपञ्चं, जैनं जयत्यनुपमं तदनन्तरं तत् ॥४॥ अर्हन्मुखागतमिदं गणदेवदृष्टं सद्धर्ममार्गचरितं परया विशुद्धया । संशृण्वतः कथयतः स्मरतश्च नित्यमेकान्ततो भवति पुण्यसमग्रलम्भः ॥५॥ द्रव्यं फलं प्रकृतमेव हि सप्रभेदं, क्षेत्रं च तीर्थमथ कालविभागभावी।। अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रबन्धे तैः संयुता भवति युक्तिमती कथा सा ॥ ६ ॥ द्रव्याणि षड् भगवताभिहितानि तानि, क्षेत्र तथा त्रिभुवन विविधश्च कालः। तीर्थ जिनेन्द्रचरितं प्रकृतं हि वस्तु, ज्ञानक्षयोपशमजौ फलभावकल्पौ ॥७॥
सर्गः
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इस रत्नत्रयीके अन्तिम रत्न सम्यक्ज्ञानकी भी जय हो। जिसकी तुलना किसी भी ज्ञानसे नहीं की जा सकती है, जो अर्हन्त केवलीके मुखसे झरी दिव्यध्वनिसे निकला है और जिन धर्ममय है। तथा जिसके द्वारा तीनों लोकोंके समस्त द्रव्य, गुण, पर्याय तथा पदार्थोका अपने त्रिकालवर्ती भेद-प्रभेदोंके साथ एक साथ ही ज्ञान हो जाता है ।। ४ ।।
आदर्श कथा श्रीअर्हन्त केवलीके मुखारबिन्दसे निकले तथा श्रीगणधर भगवान द्वारा विस्तृत शास्त्रोंके रूपमें रचे गये, परम पवित्र जिनधर्मके सम्यक् चारित्रके अनुसार व्यतीत किये गये जीवन चरितको जो व्यक्ति परमशुद्धि और श्रद्धाके साथ सुनता है, कहता है मनन करता है उसे निसन्देह पूर्ण पुण्यका लाभ होता है ।। ५ ॥
प्रत्येक कथा प्रबन्धके जीवादि द्रव्य, भरतादि क्षेत्र, सुषमादि काल, क्षायिक, क्षायोपशामिक-आदि भाव, आधिकारिक . प्रासंगिक भेद और उपभेदसहित प्रकृत (कथानक ), श्रीऋषभादि तीर्थंकरोंका तीर्थकाल और पुण्य पापका फल ये सात अंग होते हैं। ॥ ६॥
इन सातों अंगोंसे युक्त होनेपर ही कोई कथा आदर्श और युक्तिसंगत रचना हो सकती है। पुद्गल, धर्म, अधर्म,
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१. म विभागभागा। २. [ त्रिविधश्च ]। ३. भशमजा""कल्पा । । ४. फलके स्वामीका नाम अधिकारी है, उसकी कथा आधिकारिक-कथा होती है ।
५. आधिकारिक कथाको पूरक कथाको प्रासंगिक-कथा कहते है।
६. महापुराण प्रथम सर्ग इलो० १२१-१२५ । Jain Education international
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