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वराङ्ग
मत्सारिणीमहिषहंसशुकस्वभावा मार्जारकमशकाजजलकसाम्याः । सच्छिद्रकुम्भपशुसपंशिलोपमानास्ते श्रावका भुवि चतुर्दशषा भवन्ति ॥ १५॥ श्रोता न चैहिकफलं प्रतिलिप्समानो निःश्रेयसाय मतिमांश्च मतिं विधाय । यः संशृणोति जिनधर्मकथामुदारां पापं प्रणाशमुपयाति नरस्य तस्य ॥ १६ ॥ प्राज्ञस्य हेतुनयसूक्ष्मतरान्पदार्थान् मूर्खस्य बुद्धिविनयं चे तपःफलानि । दुःखादितस्य जनबन्धुवियोगहेतुं निर्वेदकारणमशौचमशाश्वतस्य ॥ १७ ॥
प्रथमः सर्गः
चरितम्
कुछ श्रोताओं का स्वभाव मिट्टी (सुनते समय ही प्रभावित होनेवाले, बादमें जो सुने उसे समझकर उसपर आचरण नहीं करनेवाले), झाड२ (सार ग्राहक असार छोड़नेवाला), भैंसा (सुना ना सुना दोनों बराबर), हंस ( विवेकशाली), शुक (जितना सुना उतना ही बिना समझे याद रखा), के समान होता है। दूसरे श्रोताओंकी तुलना बिल्ली ( चालाक पाखंडी), बगुला ( अर्थात् सुननेका ढोंग करनेवाले ), मशक ( वक्ता तथा सभाको परेशान करनेमें प्रवीण ), बकरा ( देरमें समझनेवाले पी तथा कामी) और जौंक ( दोष ग्राही ) के साथ की जा सकती है। अन्य कुछ श्रोताओंके उदाहरण सैकड़ों छेदयुक्त घड़े ( इस ! कान सुना उस कान निकाल दिया), पशु ( किसीका जोर पड़ा तो कुछ सुन समझ लिया ), सर्प ( कुटिल ) और शिला (प्रभावहीन ) से दिये जा सकते हैं, इस प्रकार संसारके सब ही श्रावक चौदह प्रकारके होते हैं ॥ १५ ॥
जो विवेकी श्रोता सांसारिक भोग विलासरूपी फलोंकी स्वप्नमें भी इच्छा नहीं करता है तथा मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति करनेका अडिग तथा अकम्प निर्णय करके प्राणिमात्रके लिये कल्याणकारिणी जिनधर्मकी विशाल कथाको सुनता है, उस मनुष्यके सब ही पापोंका निसन्देह समूल नाश हो जाता है' ॥ १६ ।।
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उपदेष्टा का कर्तव्य बुद्धिमान और कुशल कथाकारको श्रोताकी योग्यताके अनुसार उपदेश देना चाहिये । जैसे-विशेषज्ञानी श्रोताके सामने प्रमाण, नय, आदिके भेद प्रभेद ऐसे सूक्ष्मसे सूक्ष्म विषयोंकी चर्चा करे । मूर्ख या अज्ञ पुरुषको साधारण ज्ञान, शिष्टाचार और व्रत नियमादिके लाभोंको समझाये । यदि श्रोताका हृदय इष्ट वियोगसे विह्वल हो रहा हो तो उसे उन कर्मोका मधुर उपदेश दे जिनके कारण स्वजन और बन्धु बान्धवोंका वियोग होता है। जिसकी बुद्धि डांवाडोल रहती हो उसे संसार और शरीरकी अपवित्रताका और अस्थिरता दिग्दर्शन कराये, जो कि वैराग्यके कारण हैं ॥ १७ ।।
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१. म विनयश्च ।
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२. महापुराणमें 'चालिनी' शब्द 'सारिणी' के स्थानपर है। अर्थात् विना विवेकके छोड़ने या बहुत थोड़ा माननेवाले ३. महापुराण, प्रथम अध्याय श्लो० १३८-१४६ ।
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