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फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने निर्ग्रन्थशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है। अहो ! सर्वोत्कृष्ट शांतरसमय सन्मार्ग, अहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांतरसप्रधान मार्गके मूल सर्वज्ञदेव, अहो ! उस सर्वोत्कृष्ट शांतरसकी सुप्रतीति करानेवाले परमकृपालु सद्गुरुदेव-इस विश्वमें सर्वकाल तुम जयवंत वर्तो, जयववंत वर्तो।'
दिनोंदिन और क्षण-क्षण उनकी वैराग्यवृत्ति वर्धमान हो चली। चैतन्यपुंज निखर उठा। वीतरागमार्गको अविरल उपासना उनका ध्येय बन गई। वे बढ़ते गये और सहजभावसे कहते गये-"जहाँ-तहाँ से रागद्वेषसे रहित होना ही मेरा धर्म है।" निर्मल सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिमें उनके उद्गार इस प्रकार निकले हैं
ओगणीससें ने सुडतालीसे, समकित शुद्ध प्रकाश्युं रे, श्रुत अनुभव बधती दशा, निज स्वरूप अवभास्युं रे । धन्य रे दिवस आ अहो!
(हा. नों. १।६३ क्र० ३२) सोल्लास उपकार-प्रगटना
___"हे सर्वोत्कृष्ट सुखके हेतुभूत सम्यग्दर्शन ! तुझे अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार हो । इस अनादि अनन्त संसारमें अनन्त अनन्त जीव तेरे आश्रय विना अनन्त अनन्त दुःख अनुभवते हैं । तेरे परमानुग्रहसे स्वस्वरूपमें रुचि हुई। परमवीतराग स्वभावके प्रति परम निश्चय आया । कृतकृत्य होनेका मार्ग ग्रहण हुआ।
हे जिन वीतराग ! तुम्हें अत्यन्त भक्तिसे नमस्कार करता हूँ। तुमने इस पामर पर अनंत अनंत उपकार किया है।
हे कुन्दकुन्दादि आचार्यों ! तुम्हारे वचन भी स्वरूपानुसंधानमें इस पामरको परम उपकारभूत हुए हैं । इसके लिए मैं तुम्हें अतिशय भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। ___हे श्री सोभाग ! तेरे सत्समागमके अनुग्रहसे आत्मदशाका स्मरण हुआ । अतः तुझे नमस्कार करता हूँ।" (हा. नों. २/४५ क्र. २०) परमनिवृत्तिरूप कामना / चितना
उनका अन्तरङ्ग, गृहस्थावास-व्यापारादि कार्यसे छटकर सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्थदशाके लिए छटपटाने लगा। उनका यह अन्तर आशय उनकी 'हाथनोंघ' परसे स्पष्ट प्रगट होता है:
"हे जीव ! असारभूत लगनेवाले ऐसे इस व्यवसायसे अव निवृत्त हो, निवृत्त ! उस व्यवसायके करनेमें चाहे जितना बलवान प्रारब्धोदय दीखता हो तो भी उससे निवृत्त हो, निवृत्त ! जो कि श्रीसर्वज्ञने कहा है कि चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव भी प्रारब्ध भोगे बिना मुक्त नहीं हो सकता, फिर भी तू उस उदयके आश्रयरूप होनेसे अपना दोष जानकर उसका अत्यन्त तीव्ररूपमें विचारकर उससे निवृत्त हो, निवृत्त ! (हा० नो० १११०१ क्र० ४४)
"हे जीव ! अब तू संग-निवृत्तिरूप कालकी प्रतिज्ञा कर, प्रतिज्ञा कर! केवलसंगनिवृत्तिरूप प्रतिज्ञाका विशेष अवकाश दिखाई न दे तो अंशसंगनिवृत्तिरूप इस व्यवसायका त्याग कर ! जिस ज्ञानदशामें त्यागात्याग कुछ
१. 'श्रीमदराजचन्द्र' शिक्षापाठ ९५ ( तत्त्वावबोध १४ ) तथा पत्र क्र० ५९६ २. हाथनोंध ५/५२ क्रम २३ 'श्रीमद्राजचन्द्र' (गुज.) ३. पत्र क्र. ३७ 'श्रीमद्राजचन्द्र