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अन्य.यो. व्य. श्लोक २०] स्याद्वादमञ्जरी
१९५ नियमः । मृतादपि च स्यात् । शोणिताचपाधिः सुप्तादावप्यस्ति । न च सतस्तस्योत्पत्तिः, भूयोभूयः प्रसङ्गात् । अलब्धात्मनश्च प्रसिद्धमर्थक्रियाकारित्वं विरुध्यते । असतः सकलशक्तिविकलस्य कथमुत्पत्तौ कर्तृत्वम् , अन्यस्यापि प्रसङ्गात् ? तन्न भूतकार्यमुपयोगः।।
कुतस्तर्हि सुप्तोत्थितस्य तदुदयः ? असंवेदनेन चैतन्यस्याभावात् । न, जाग्रदवस्थानुभूतस्य स्मरणात् । असंवेदनं तु निद्रोपघातात् । कथं तर्हि कायविकृतौ चैतन्य विकृतिः ? नैकान्तः, श्वित्रादिना कश्मलवपुपोऽपि बुद्धिशुद्धः, अविकारे च भावनाविशेषतः प्रीत्यादिभेददर्शनात् शोकादिना बुद्धिविकृतौ कायविकारादर्शनाच्च । परिणामिनो विना च न कार्योत्पत्तिः । न च भूतान्येव तथा परिणमन्ति विजातीयत्वात् । काठिन्यादेरनुपलम्भात् । अणव एवेन्द्रियग्राह्यत्वरूपां स्थूलतां प्रतिपद्यन्ते तज्जात्यादि चोपलभ्यते । तन्न भूतानां धर्मः फलं वा उपयोगः। तथा भवांश्च यदाक्षिपति तदस्य लक्षणम् । स चात्मा स्वसंविदितः। भूतानां तथाभावे बहिर्मुखं स्याद् । गौरोऽहमित्यादि तु नान्तर्मुखं बाह्यकरणजन्यत्वात् । अनभ्युपगतानुमानप्रामाण्यस्य चात्मनिषेधोऽपि दुर्लभः।
धर्मको अहेतुक माना जाय तो देश और कालका नियम नहीं बन सकता । यदि कहो कि भूतोंके शरीर रूप में परिणमन होनेसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती है, तो मृतक पुरुषमें भी चैतन्य पाया जाना चाहिये, क्योंकि वहाँ भी पृथिवी आदिका कायरूप परिणमन मौजूद है। यदि कहो कि मृतक पुरुषमें रक्तका संचार नहीं होता, अतएव मुर्दे में चेतन शक्तिका अभाव है, तो सोते हुए मनुष्यमें रक्तका संचार होनेपर भी उसे ज्ञान क्यों नहीं होता? तथा, यदि कहो कि चैतन्य धमका सद्भाव होनेपर भी उसकी उत्पत्ति होती है तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि चैतन्य धर्मकी पुनः पुनः उत्पत्ति होनेका प्रसंग आयेगा; तथा, अनुत्पन्न चैतन्यधर्मका अर्थक्रियाकारित्व विरुद्ध पड़ेगा। जिस पदार्थका सर्वथा अभाव है, और जो सर्व शक्तिसे रहित है, वह उत्पत्ति क्रियाका कर्ता कैसे हो सकता है ? यदि सकल शक्तिशून्य असत् पदार्थको भी उत्पत्ति क्रियाका कर्ता माना जाये तो विशिष्ट शक्तिशन्य पदार्थको भी कर्ता माननेका प्रसंग उपस्थित होगा। अतएव उपयोग अर्थात् चैतन्य धर्म पंच महाभूतोत्पन्न कार्य नहीं है।
शंका-यदि पृथिवी आदि पांच भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति नहीं होती, तो सो कर उठनेवाले पुरुषमें चेतन शक्ति कहाँसे आती है, क्योंकि सोनेके समय पूर्व चेतन शक्ति नष्ट हो जाती है । समाधान-सो कर उठनेके पश्चात् हमें जाग्रत अवस्थामें अनुभूत पदार्थोंका ही स्मरण होता है। सोते समय चेतन शक्तिका निद्राके उदयसे आच्छादन हो जाता है। शंका-यदि शरीर और चैतन्यका कोई संबंध नहीं है, तो शरीर में विकार उत्पन्न होनेसे चेतनामें विकार क्यों होता है ? समाधान--यह एकान्त नियम नहीं है । क्योंकि बहुतसे कोढ़ी पुरुष भी बुद्धिमान होते हैं, और शरीरमें किसी प्रकारका विकार न होनेपर भी बुद्धिमें राग, द्वेष आदिका भावनाविशेषके कारण सद्भाव पाया जाता है; इसी तरह शोक आदिसे बुद्धिमें विकार होनेपर भी शरीरमें विकार नहीं देखा जाता । परिणामी अर्थात् परिणमनशील उपादानके अभावमें कार्य अर्थात् परिणामकी उत्पत्ति नहीं होती। तथा, पथिवी आदि पंचभूतोंका चैतन्य रूप परिणमन मानना ठीक नहीं, क्योंकि पृथिवी आदि चैतन्यके विजातीय हैं-पृथिवी आदिकी तरह चैतन्यमें काठिन्य आदि गुण नहीं पाये जाते। परमाणु ही इन्द्रियग्राह्यत्व रूप स्थूल पर्यायको धारण करते हैं, और. स्थूल पर्यायको प्राप्त करनेपर भी परमाणुओंकी जातिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। अतएव चैतन्य पृथिवी आदि पांच भूतोंका धर्म अथवा फल (कार्य) नहीं कहा जा सकता। तथा, आपलोग जिस पर आक्षेप करते हैं, हम उसे ही आत्मा कहते हैं । आत्मा स्वसंवेदनका विषय है। यदि आत्मा भूतोंसे उत्पन्न हो, तो 'मैं गोरा हूं' यह अंतर्मुख ज्ञान न होकर 'यह गोरा है' इस प्रकारका बहिर्मुख ज्ञान होना चाहिये, क्योंकि वह बाह्य कारणसे उत्पन्न होता है । तथा, अनुमान प्रमाणके स्वीकार किये बिना आत्माका निषेध नहीं किया जा सकता।