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अन्य. यो. व्य. श्लोक २३ ] स्याद्वादमञ्जरी
२१७ द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायाथिकप्राधान्ये तु न गुणानासभेदवृत्तिः सम्भवाद् । समकालमेकत्र नानागुणानामसम्भवात् , सन्भने वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसङ्गात् । नानागुणानां सम्बन्धिन आत्मरूपस्य च भिन्नत्वात, आत्मरूपाभेदे तेषां भेदस्य विरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वाद्, अन्यथा नानागणाश्रयत्वस्य विरोधात्। सम्बन्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेददर्शनाद् नानासम्बन्धिभिरेकत्र सम्भवाघटनात् । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् अनेकैरुपकारिभिः क्रियमाणस्योपकारस्य विरोधात् । गणिदेशस्य प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसङ्गात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिभेदात् तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात्। शब्दस्य प्रतिविषयं नानात्वात् सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दान्तरवैफल्यापत्तेः।
है। भेद विशिष्ट अभेदको संबंध तथा अभेद विशिष्ट भेदको संसर्ग कहते हैं। (८) जो 'अस्ति' शब्द अस्तित्वधमसे युक्त पदार्थका वाचक होता है, वही 'अस्ति' शब्द अनंत धर्मोसे युक्त पदार्थका वाचक होता है। इस प्रकार अस्तित्व धर्मयुक्त पदार्थ तथा शेष अन्य अनंतधर्मोसे युक्त वही पदार्थ, 'अस्ति' शब्दका वाच्य होनेसे, शब्दकी दृष्टिले अभिन्न है । जिन गुणोंमें पर्यायाथिक नयकी दृष्टिसे भेद होता है, उन गुणोंमें पर्यायार्थिक नयकी गौणता और द्रव्याथिक नयकी मुख्यता होनेपर अभेद घटित होता है ।
द्रव्याथिक नयको गौणता और पर्यायाथिक नयकी प्रधानता होनेपर पदार्थाश्रित गुणोंकी अभेद रूपसे स्थिति नहीं होतो : (१) विभिन्न गुण एक काल में एक स्थान पर नहीं रह सकते। यदि विभिन्न गुण एक कालमें, एक वस्तुमें, एक साथ रहें तो गुणोंके आश्रित द्रव्योंमें भी उतने ही भेद मानने चाहिये । (२) विभिन्न गुणोंका अपने-अपने स्वरूप ( आत्मरूप ) वाले स्वभिन्न गुणके स्वरूपसे भेद है; क्योंकि वे एक दूसरेके स्वरूप में नहीं रहते, इसलिये गुणोंमें अभेद नहीं है। यदि गुणोंमें परस्पर भेद न हो, तो गुणोंको भिन्न-भिन्न नहीं मानना चाहिये । ( ३ ) गुणोंके आश्रयभूत पदार्थ ( अर्थ) भी अनेक हैं; यदि गुणोंके आधार अनेक न हों तो वे नाना गुणोंके आश्रित नहीं कहे जा सकते । (४) संबंधियोंके भिन्न-भिन्न होने कारण संबंधका भेद दिखाई देनेसे भी गुणोंमें अभिन्नता संभव नहीं, क्योंकि एक संबंघसे भिन्न-भिन्न संबंधियोंके साथ संबंध नहीं बन सकता । (५) उपकारकी अपेक्षा भी गुण परस्पर अभिन्न नहीं हैं। अनेक उपकारियोंमेंसे प्रत्येक उपकारी द्वारा किये जानेवाले उपकारमें तथा अन्य उपकारी द्वारा किये जानेवाले उपकारमें विरोध है। (६ ) गुणिदेशकी अपेक्षासे भी गुण अभिन्न नहीं हैं। अन्यथा प्रत्येक गुणका आश्रयभूत गुणिरूप देश तथा स्वभिन्न गुणके आश्रयभूत गुणिरूप देशमें भेद न होनेपर, भिन्न पदार्थोंके गुणोंके भी जो गुणिरूप देश हैं, उनका पूर्वोक्त गुणिरूप देशके साथ अभेदका प्रसंग आ जायेगा। (७) संसर्गकी अपेक्षा भी गुण भिन्न हैं । अन्यथा एक पदार्थके साथ जितने संसर्ग करनेवाले होते हैं, उतने ही संसगोंके परस्पर भिन्न होनेपर भी, उन संसोको अभिन्न मानने पर, संसर्ग करनेवालोंमें भेद उपस्थित हो जायेगा। (८) तथा शब्दको अपेक्षासे भी गुण भिन्न नहीं हैं । अन्यथा सभी गुणोंकी एक शब्दके द्वारा वाच्यता होनेपर, उनके आश्रयभूत सभी पदार्थोकी एक शब्द द्वारा वाच्यता होनेकी आपत्ति उपस्थित हो जानेसे उन सभी पदार्थों में से प्रत्येक पदार्थके वाचक शब्दोंकी निष्फलताका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा।।
(स्पष्टीकरण : जब द्रव्याथिक नयकी गौणता और पर्यायाथिक नयकी प्रधानता होती है, तब एक पदार्थका अस्तित्व धर्म और उसी पदार्थके अन्य शेप अनंत धर्मों में काल आदिकी दृष्टिसे अभेदकी संभाव्यता नहीं होती। (१) एक समयमें पदार्थकी एक ही पर्याय होती है-अनेक नहीं। उत्तर पर्यायसे युक्त उसी पदार्थका पूर्व पर्यायसे युक्त पदार्थसे भेद होता है । यदि पूर्व पर्याययुक्त और उत्तर पर्याययुक्त पदार्थमें भेद स्वीकार न किया तो बाल्यावस्था और कुमारावस्थामें भेद नहीं होगा, तथा बालक कभी कुमारावस्थाके रूपमें
१. प्रोफेसर एम० जी० कोठारीके सौजन्यसे ।
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