Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 383
________________ ३३३ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) सांख्य-योगदर्शन सांख्य और योगदर्शन बुद्ध के समयके पहिले दर्शन माने जाते हैं । पतंजलिके योगसूत्र सांख्यप्रवचनके नामसे कहे जाते हैं, वाचस्पतिमिश्र भी सांख्य-योगके उपदेष्टा वार्षगण्यको 'योगशास्त्रव्युत्पादयिता' कहकर उल्लेख करते है, तथा स्वयं महर्षि पतंजलि सांख्य तत्त्वज्ञान पर ही योग सिद्धांतोंका निर्माण करते हैं। इससे मालूम होता है कि किसी समय सांख्य और योग दर्शनोंमें परस्पर विशेष अन्तर नहीं था। वास्तवमें सांख्य और योग दोनों दर्शनोंको एक दर्शनकी ही दो धारायें कहना चाहिये । इन दोनोंमें इतना ही अन्तर कहा जा सकता है कि सांख्यदर्शन तत्त्वज्ञानपर अधिक भार देता हुआ तत्त्वोंकी खोज करता है और तत्त्वोंके ज्ञानसे ही मोक्षको प्राप्ति स्वीकार करता है, जब कि योगदर्शन यम, नियम आदि योगकी अष्टांगी प्रक्रियाका विस्तृत वर्णन करके योगको सक्रियात्मक प्रक्रियाओंके द्वारा चित्तवृत्तिका निरोध होनेसे मोक्षकी सिद्धि मानता है ।२ सांख्यदर्शनको कापिलसांख्य और योगदर्शनको पातंजलसांख्य कह सकते है। सांख्यदर्शन शुद्ध आत्माके तत्त्वज्ञानको सांख्य कहते हैं । अन्यत्र सम्यग्दर्शनके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको सांख्य कहा है।४ अन्यत्र पच्चीस तत्त्वोंका वर्णन करनेके कारण सांख्यदर्शनको साख्य कहा जाता है।५ गुणरत्नने गया लेख, प्रो. विन्टरनीज़की Some Problems in Indian Literature नामक पुस्तकमें Ascetic Literature ih Ancient India नामक अध्याय; इलियट ( Eliot ) की Hinduism and Buddhism, भाग २, अध्याय ६ और ७. । १. बेबर ( Weber ) आदि विद्वानोंके मतमें सांख्यदर्शन सम्पूर्ण वर्तमान भारतीय दर्शनोंमें प्राचीनतम है। महाभारतमें सांख्य और योगदर्शनका 'सनातन' कहकर उल्लेख किया है। २. सांख्य और योगदर्शनमें भेद प्रदर्शन करनेके लिये सांख्यको निरीश्वर सांख्य और योगको सेश्वर सांख्य भी कहा जाता है। न्यायसूत्रोंके भाष्यकार वात्स्यायनने सांख्य और योग दर्शनोंमें निम्न प्रकारसे भेदका प्रदर्शन किया है-सांख्य लोग असतकी उत्पत्ति और सत्का नाश नहीं मानते। उनके मतमें चेतनत्व आदिकी अपेक्षा सम्पूर्ण आत्मायें समान है, तथा देह, इन्द्रिय, मन और शब्दमें; स्पर्श आदिके विषयों में और देह आदिके कारणोंमें विशेषता होती है। योग मतके अनुयायो सम्पूर्ण सृष्टिको पुरुषके कर्म आदि द्वारा मानते हैं, दोष और प्रवृत्तिको कर्मोंका कारण बताते हैं, आत्माम ज्ञान आदि गुणोको, असत्को उत्पत्तिको, और सत्के नाशको स्वीकार करते हैं-नासतः आत्मलाभः न सत आत्महानम् । निरतिशयाश्चेतनाः । देहेन्द्रियमनस्सु विषयेषु तत्कारणेषु च विशेष इति सांख्यानाम् । पुरुषकर्मादिनिमित्तो भूतसर्गः । कर्महेतवो दोषाः प्रवृत्तिश्च । स्वगुणविशिष्टाश्चेतनाः । असदुत्पद्यते उत्पन्नं निरुध्यते । न्यायभाष्य १-१-२९ । ३. शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते । न्यायकोश पृ० ९०४ टिप्पणी ४. न्यायकोश पृ० ९०४। ५. पंचविंशतेस्तत्त्वानां संख्यानं संख्या। तदधिकृत्य कृतं शास्त्र सांख्यम् । हेमचन्द्र-अभिधानचिन्तामणि-टोका ३-५२६ । यूनानी विद्वान पाइथैगोरस (Pythagoras) संख्या ( Number )के सिद्धांतको मानते थे। प्रो० विन्टरनीज़ ( Winternitz ) आदि विद्वानोंके अनुसार पाइथगोरसपर भारतीय सांख्य सिद्धान्तोंका प्रभाव पड़ा है । ग्रीक और सांख्यदर्शनकी तुलनाके लिये देखिये प्रो० कीथ ( Keith का Sam. khya System अ०६, पृ० ६५ से आगे।

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