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स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट)
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माननेका उल्लेख करते हैं।'
मीमांसादर्शनका साहित्य मीमांसासूत्रोंके रचयिता जैमिनी माने जाते हैं । वैदिक परम्पराके अनुसार जैमिनी ऋपि वेदव्यासके शिष्य थे । वेदव्यासने मूल वेदकी चार संहिताओंको रचना की और सामवेदकी संहिताको जैमिनोको पढ़ाया। जैमिनीका समय ईसाके पूर्व २०० वर्प माना जाता है । जैमिनीसूत्रोंके ऊपर भर्तृमित्र, भवदास, हरि और उपवर्प नामके विद्वानोंने टीकायें लिखीं है, जो आजकल उपलब्ध नहीं है । जैमिनीसूत्रोंपर भाष्य लिखनेवाले शबरस्वामीका नाम मुख्य रूपसे उल्लेखनीय है । यह शबरभाष्य उत्तरकालके मीमांसक लेखकोंका खास आधार रहा है । शबरस्वामीके सिद्धांतोंका तत्त्वसंग्रहमें खण्डन है । प्राच्य विद्वान शबरको वात्स्यायनका समकालीन और नागार्जुनका उत्तरकालवर्ती मानते है । दूसरे लोग शबरका समय ईसाकी चौथी शताब्दी मानते हैं । शबरभाष्यके बाद मीमांसकदर्शनके मुख्य विचारक प्रभाकर और कुमारिलभट्ट हो गये है । प्रभाकरने (ई० स० ६५० ) शबरभाष्य पर वृहती नामकी टीका लिखी है । शास्त्रीय परम्पराके अनुसार प्रभाकर कुमारिलके शिष्य कहे जाते हैं। इन दोनोंके विचारों में मतभेद होनेके कारण दोनोंके सिद्धांतोंकी अलग-अलग शाखायें हो गई है। प्रभाकरका मत गुरूमत के नामसे प्रसिद्ध है। बृहती लिखते हुए प्रभाकर कुमारिलके सिद्धांतोंका उल्लेख नहीं करते जब कि कुमारिल बृहतीकारके मतका उल्लेख करते हुए मालूम होते हैं । इससे विद्वानोंका मत है कि प्रभाकर कुमारिलके शिष्य नहीं थे, किन्तु वे कुमारिलके पूर्ववर्ती है। प्रभाकरवी बृहतीके ऊपर प्रभाकरके शिष्य कहे जाने वाले शालिकानाथमिश्रने ऋजुविमला नामको टीका, और प्रभाकरके सिद्धांतोंके विवेचन करने के लिये प्रकरणपंचिका नामक ग्रंथ लिखे हैं। प्रभाकरकी बृहती और शालिकानाथकी ऋजुविमला अभी सम्पूर्ण रूपसे प्रकाशमें नहीं आये, इसलिये प्रकरणपंचिका हो प्रभाकरके सिद्धांतोंको जाननेका एक आधार है । कुमारिलभट्ट, भट्टपाद और वार्तिककारके नामसे भी कहे जाते हैं। तिब्बती ग्रंथोंमें इनको कुमारलील कहा है । कुमारिल (ई०स०७००) ने शबरभाष्यके ऊपर स्वतंत्र रूपसे टीका लिखी है । यह टीका श्लोकवातिक, तन्त्रवार्तिक और तुपटीका नामके तीन खंडोंमें विभक्त है। कुमारिल और उद्योतकर बौद्धदर्शन और न्यायके खंडन करनेके लिये अद्वितीय समझे जाते थे । शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रहमें कुमारिलका खंडन किया है । कुमारिल धर्मकीति और भवभूतिके समकालीन कहे जाते हैं । कुमारिलके पश्चात् कुमारिलके अनुयायी मंडनमिश्रका नाम विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । मंडनमिश्रने विधिविवेक, भावनाविवेक, मीमांसानुक्रमणी और कुमारिलकी तन्त्रवातिकको टोका लिखी है। कहा जाता है कि ये मण्डनमिश्र आगे जाकर वेदान्तमतके अनुयायी हो गये। इसके अतिरिक्त, पार्थसारथिमिश्रने कुमारिलकी श्लोकवातिक पर न्यायरत्नाकर, तथा शास्त्रदीपिका, तन्त्ररत्न और न्यायरलमाला; सुचरितमिश्रने श्लोकवार्तिककी टोका और काशिका; तथा सोमेश्वरभट्टने तन्त्रवातिककी टीका और न्यायसुधा नामके ग्रंथ लिखे। मीमांसादर्शनका ज्ञान करनेके लिये माधवका न्यायमालाविस्तर, आपदेवका मीमांसान्यायप्रकाश, लौगाक्षिभास्करका अर्थसंग्रह और खण्डदेवकी भाट्टदीपिका आदि ग्रंथ उल्लेखनीय है।
१. मीमांसकास्तु स्वयमेव प्रकारान्तरेणकानेकाद्यनेकान्तं प्रतिपद्यमानास्तत्प्रतिपत्तये सर्वथा पर्यनुयोगं नार्हन्ति ।
षड्दर्शनसमुच्चयटीका। कहा जाता है कि कुमारिलभट्ट 'अत्र तुनोक्तम् तत्रापि नोक्तम् इति पौनरुक्तम्' इस वाक्यका अर्थ नहीं समझ सके थे । कुमारिलने इसका अर्थ किया, 'यहाँ भी नहीं कहा गया, वहाँ भी नहीं कहा गया, इसलिये फिर कहा गया' । प्रभाकरने कहा कि इस वाक्यका यह अर्थ ठीक नहीं, इसका अर्थ करना चाहिये-'यहाँ यह 'तु' से सूचित किया गया है, और वहाँ 'अपि' से सूचित किया गया है, इसलिये फिर कहा गया है' । कुमारिल इससे बहुत प्रसन्न हुए और अपने शिष्य प्रभाकरको 'गुरु' कहने लगे।