Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 399
________________ चार्वाक परिशिष्ट (छ) ( श्लोक २० ) चार्वाक मत २ चार्वाक पुण्य पाप आदि परोक्ष वस्तुओंको स्वीकार नहीं करते, इसलिये इन्हें चार्वाक कहते है ।" सुन्दर वाणी होनेके कारण भी ये लोग चार्वाक कहे जाते हैं । चार्वाक सामान्य लोगोंके समान आचरण करनेके कारण लोकायत अथवा लोकायतिक कहे जाते है । 3 पुण्य पापको न स्वीकार करनेके कारण इन्हें नास्तिक कहा गया है । आत्माको न माननेके कारण इन्हें अक्रियावादी कहा गया है। चार्वाक बृहस्पतिके शिष्य थे । बृहस्पतिने देवताओंके शत्रु असुरोंको मोहित करनेके लिये चार्वाक मतकी सृष्टि की थी । धूर्त चार्वाक और सुशिक्षित चार्वाकके भेद चार्वाक दो प्रकारके बताये गये हैं । धूर्त चार्वाक पृथिवी, अप् तेज और वायु इन चार भूतोंको छोड़कर आत्माको अलग पदार्थ नहीं मानते । सुशिक्षित चार्वाक शरीर से भिन्न आत्माका अस्तित्व मानते हैं, परन्तु उनके मत में यह आत्मा शरीरके नाश होने के साथ ही नष्ट हो जाता है । कोई चार्वाक चतुभूत रूप जगतको न मानकर आकाशको पांचवां भूत स्वीकार करके संसारको पंचभूत रूप मानते हैं । “चार्वाक मतके साधु कापालिक होते है । ये शरीरपर भस्म लगाते है, और ब्राह्मणसे लेकर अत्यंज तक किसी भी जाति के हो सकते हैं । ये मय और मांसका भक्षण करते है, व्यभिचार करते हैं, प्रत्येक वर्ष इकट्ठे होकर स्त्रियोंसे क्रीड़ा करते हैं, तथा कामको छोड़कर और कोई धर्म नही मानते ।"" परयोगी आनंदघनजीने चार्वाक मतको उपमा जिनेन्द्रको कोखसे दी है । १. चर्वन्ति, भक्षयन्ति तत्त्वतो न मन्यन्ते पुण्यपापादिकं परोक्षं वस्तुजातमिति चार्वाकाः । गुणरत्नसूरि । २. चारुः लोकसंमतः वाकः वाक्यम् यस्य सः । वाचस्पत्यकोश । ३. लोकाः निर्विचाराः सामान्यलोकास्तद्वदाचरन्ति स्मेति लोकायता लोकायतिका इत्यपि । गुणरत्न । ४. नास्ति पुण्यं पापमिति मतिरस्य नास्तिकः । हेमचन्द्र । यह ध्यान देने योग्य है कि वैदिक पुराणोंमें अद्वैत वेदान्तके प्रतिपादक शंकराचार्यको चार्वाक, जैन और बौद्धोंकी तरह नास्तिक बताकर शंकरके मायावादको असत् शास्त्र कहा हैमायावादी वेदान्ती ( शंकर भारती ) अपि नास्तिक एव पर्यवसाने संपद्यते इति ज्ञेयम् । अत्र प्रमाणानि सांख्यप्रवचनभाष्योदाहृतानि पद्मपुराणवचनानि यथा मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमेव च । मयैव कथितं देवि कलौ ब्राह्मणरूपिणा || अपार्थं श्रुतिवाक्यानां दर्शयंल्लोक राहतम् । कर्मस्वरूपत्याज्यत्वमत्र च प्रतिपाद्यते ॥ सर्वकर्म परिभ्रंशान्नैष्कम्यं तत्र चोच्यते । परमात्मजीवयोरैक्यं मयात्र प्रतिपाद्यते ॥ सांख्यप्रवचन भाष्य १-१ भूमिका । न्यायकोश पृ० ३७२ । ५. गुणरत्न षड्दर्शनसमुच्चय टीका । ६. "लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंश-विचार जो कीजे; तत्त्व-विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे" श्रीनमिनाथजीनुं स्तवन, गा० ४ । पं० बेचनदास - जैनदर्शन पृ० ८० भूमिका |

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