Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 397
________________ स्याद्वादमञ्जरी( परिशिष्ट ) ३४७ टंक 'वाक्यकार' के नामसे प्रसिद्ध हो गये है। टंकको आत्रेय अथवा ब्रह्मनन्दिन नामसे भी कहा जाता है। भर्तृप्रपंच भेदाभेद और ब्रह्मपरिणामवाद के सिद्धांतको मानते थे। शंकर और आनंदतीर्थने भर्तृप्रपंचका बृहदारण्यककी टीकामें उल्लेख किया है । औपनिपदिक ऋषियोंके पश्नात् अद्वैत वेदान्तका सुनिश्चित रूप सर्वप्रथम गौड़पादकी माण्डूक्यकारिव.में देखनेमे आता है। गौड़पादका समय ईसवी सन् ७८० के लगभग माना जाता है। शंकर गौड़पाद आचार्यके शिष्य गोविन्दके शिष्य थे। शंकर केवलाद्वैत के प्रतिष्ठापक महान् आचार्य माने जाते हैं । शंकराचार्यने अनेक शास्त्रोंकी रचना की है। इन शास्त्रोंमें ईप, केन, ठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक इन दस उपनिपदोपर, तथा भगवद्गीता और वेदान्तसूत्रोंके ऊपर टीकाओंका नाम विशेष रूपसे डल्ले उनीय है । शंकरका समय ईसवी सन् ८०० है । मंडन अथवा मंडनमिश्र शंकरके समकालीन माने जाते है। मंडनने ब्रह्मसिद्धि आदि अनेक गहत्त्वपूर्ण ग्रंथोंकी रचना की है। मंडन दृष्टिसृष्टिवादके प्रतिष्ठापक कहे जाते हैं । ब्रह्मसिद्धिके कार वा वस्पति आदि अनेक विद्वानोंने टीकायें लिखी है । सुरेश्वर शंकरके साक्षात् शिष्य थे। सुरेश्वरका समय ईसवी सन् ८२० है । इन्होंने नैष्कर्म्यसिद्धि, वृहदारण्यक उपनिषद्-भाष्यवार्तिक आदि ग्रंथ लिखे हैं । नैष्कर्म्यसिद्धिके ऊपरचित्सुख आदिने टीकायें लिखी हैं। पद्मपाद सुरेश्वरके समकालीन माने जाते हैं। पद्मपाद भी शंकराचार्यके साक्षात शिष्य थे। पद्मपादने पंचपादिका आदि ग्रंथों की रचना की है । पंचपादिकाके ऊपर प्रकाशात्मन् आदिने टीकायें लिखी हैं। वेदान्त दर्शनके प्रतिपादकोंमें मैथिल पंडित वाचस्पतिमिश्रका नाम भी बहुत महत्त्वका है । वाचस्पतिमिश्रने शांकरभाज्यके ऊपर अपनी पत्नी के नामपर भामती, और मण्डनकी ब्रह्मासिद्धिके ऊपर तत्त्वसमीक्षा टीका लिखी है । सर्वज्ञात्ममुनि सुरेश्वराचार्यके शिष्य थे । सर्वज्ञात्ममुनिने शांकर वेदान्तके सिद्धांतोंका प्रतिपादन करनेके लिये संक्षेपशारीरक नामका ग्रंथ लिखा है। इनका समय ईसवी सन् ९०० है। इसके अतिरिक्त, आनन्दबोध ( ११ -१२ शताब्दी ) का न्यायमकरन्द और न्यायदीपावलि, श्रीहर्ष (ई० स० ११५०) का खण्डनखण्डखाद्य, चित्सुखाचार्य ( ई० स० १२५०)की चित्सुखी, विद्यारण्य (ई० स० १३५०) की पंचदशी और जीवन्मुक्तिविवेक, तथा मधुसूदनसरस्वती ( १६ वीं शताब्दी ) की अद्वैतसिद्धि, अप्पयदीक्षित, ( १७ वीं शताब्दी ) का सिद्धांतलेश, और सदानन्दका वेदान्तसार आदि ग्रंथ वेदान्त दर्शनके अभ्यासियोंके लिये महत्त्वपूर्ण हैं।' वेदान्त दर्शनकी शाखायें भतप्रपंच-शंकरके पूर्व होनेवाले वेदान्त दर्शनके प्रतिपादकोंमें भर्तृप्रपंचका नाम बहुत महत्त्वका है। भर्तृप्रपंचका इस समय कोई मूल ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। सुरेश्वरकी वातिकके उल्लेखोंसे मालूम होता है कि भर्तप्रपंच अग्निवैश्वानरके उपासक थे और अग्निवैश्वानरके प्रसादसे इन्हें उच्च कोटिका तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ था। भर्तृप्रपंच अद्वैतमतका प्रतिपादन करते है । ये शंकरकी तरह ब्रह्मके पर और अपर दो भेद करते हैं, परन्तु दोनों प्रकारके ब्रह्मको सत्य मानते हैं । भर्तृप्रपंचका समय ईसाकी सातवीं शताब्दी माना जाता है। शंकर-शंकराचार्य केवलाद्वैत अथवा ब्रह्माद्वैतका स्थापन करनेवाले महान प्रतिभाशाली विचारकोंमें गिने जाते हैं । शंकरके मतमें व्यवहारिक और पारमार्थिकके भेदसे दो प्रकारके सत्य माने गये हैं । परमार्थ सत्यसे संसारके सम्पूर्ण व्यवहार अविद्याके कारण ही होते हैं, इसलिये सब मिथ्या हैं । परमार्थसे एक केवल सत्, चित्, और आनन्द रूप ब्रह्म ही सत्य है । जिस प्रकार प्रकाशमान सूर्यके जलमें प्रतिबिम्बित होनेसे सूर्य नाना रूपमें दिखाई देता है, उसी तरह ब्रह्म भी अध्यास अथवा अविद्याके कारण नाना रूपमें प्रतिभासित होता है । केवलाद्वैतके प्रतिपादक शंकरके पूर्ववर्ती अनेक आचार्य हो गये हैं, परन्तु उपलब्ध साहित्यमें शंकरका अद्वैतवाद हो सर्वप्रधान गिना जाता है। रामानुज-ये विशिष्टाद्वैतके जन्मदाता माने जाते हैं । रामानुजके मतमें परब्रह्मका स्वरूप उसके विशेषणोंसे ही समझमें आ सकता है, निविशेष वस्तुकी सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिये जीव, जगत और १. विशेष जानने के लिये देखिये प्रोफेसर दासगुप्तकी A History of Indian Philosophy vol II स.११।

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