Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 394
________________ ३४४ श्रीमद्राजचन्द्रशास्त्रमालायां वर्णका जन्म हुआ। वास्तवमें किसीको जातिसे ऊँच अथवा नीच नहीं कहा जा सकता, इसलिये गुण और कर्मके अनुसार ही वर्णव्यवस्था माननी चाहिये। वैदिक वैदको अपौरुषेय और नित्य होनेके कारण प्रमाण मानते हैं, और वेदविहित याज्ञिक हिंसाको पाप रूप नहीं गिनते । जैनोंका मानना है कि पूर्वकालीन आर्यवेद हिंसाके विधानसे रहित, और पूर्वकालीन यज्ञ दयामय होते थे। वर्तमान हिंसाप्रधान वेद बादमें महाकाल असुरने रचे हैं और हिंसामय यज्ञोंका भी प्रचार हुआ है। जैन प्रथमानुयोग, करणानृयोग, चरणानुयोग, और द्रव्यानुयोग इन चार वेदोंको मानते हैं। सिद्धसेन दिवाकरने वेदोंके ऊपर द्वात्रिंशिकाकी रचना की है। भगवान के निर्वाणोत्सवके बाद स्वयं इन्द्र और देवोंने श्रावक ब्रह्मचारियोंको गार्हपत्य, परमाहवनीयक-और दक्षिणाग्नि नामके तीन कुंड बना उनमें त्रिसंध्य अग्नि स्थापित करके अग्निहोत्रद्वारा जिन भगवानकी पूजा करनेका उपदेश किया था। जैन और मीमांसकोंके सिद्धान्तोंकी तुलना करते समय यह बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है कि कुमारिलभट्ट प्रकारान्तरसे जैनोंके अनेकांतवादके सिद्धांतको स्वीकार करते हैं। कुमारिलका पदार्थों को उत्पाद, व्यय और स्थिति रूप सिद्ध करना अवयवोंको अवयवोसे भिन्नाभिन्न माननां२, वस्तुको स्वरूपपररूपसे सत्-असत् स्वीकार करना, तथा सामान्य और विशेषको सापेक्ष मानना, स्पष्ट रूपसे कुमारिलके अनेकांतवादके समर्थन करनेको सूचित करता है । तत्त्वसंग्रहकारके कथनसे भी यही मालूम होता है कि निग्रंथ जैनोंकी तरह विप्रमीमांसक भी अनेकांतवादके सिद्धांतको मानते थे। गुणरत्न भी मीमांसकोंके प्रकारान्तरसे अनेकांतके १. वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वाथिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। हेमाथिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । श्लोकवार्तिक वनवाद २१-२२ । २. पूर्वोक्तादेव तु न्यायात्सिध्येदत्रावयव्यपि । तस्याप्यत्यन्तभिन्नत्वं न स्यादवयवैः सह ॥ ७५ ।। ३. स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते केश्चिद्रूपं किंचित्कदाचन । सर्व हि वस्तु स्वरूपतः सद्रूपं पररूपतश्चासद्रूपं । यथा घटो घटरूपेण सन् पटरूपेणासन् । पटोऽप्यसद्रूपेण भावान्तरे घटादौ समवेतः तस्मिन् स्वीयाऽसद्रूपाकारां बुद्धि जनयति । योऽयं घटः स पटो न भवतीति । मी० श्लोकवार्तिक अभावपरिच्छेद १२ न्यायरत्नाकर। ४. अन्योन्यापेक्षिता नित्यं स्यात्सामान्यविशेषयोः । विशेषाणां च सामान्ये ते च तस्य भवन्ति हि ।। निविशेषं न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि ॥ एवं च परिहर्तव्या भिन्नाभिन्नत्वकल्पना ।। केनचिद्धयात्मनैकत्वं नानात्वं चास्य केनचित् । गोत्वं हि शाबलेयात्मना बाहुलेयाद्भिद्यते । स्वरूपेण च न भिद्यते । तथा व्यक्तिरपि गुणकर्मजात्यन्तरात्मना गोत्वाद्भिद्यते । स्वरूपेण च न भिद्यते । तथा व्यक्त्यन्तरादपि व्यक्तिः जात्यात्मना न भिद्यते । स्वरूपेण च भिद्यते इति । अपेक्षाभेदादविरोधः । समाविशन्ति हि विरुद्धान्यपि एकत्वापेक्षाभेदात् । एकमपि हि किंचिदपेक्ष्य हस्वं किंचिदपेक्ष्य दीर्घ । तथैकोऽपि चैत्रो द्वित्वापेक्षया भिन्नोऽपि स्वात्मापेक्षया न भिद्यते । अनेन एकानेकत्वमपि परिहर्तव्यं । तदेव हि वस्तु स्वरूपेण सर्वत्र सर्वदा चैकमपि शाबलेयादिरूपेणानेकं भवतीति न विरोधः । मी० श्लोकवातिक आकृतिवाद ९१० तथा ५६ न्यायरत्नाकर । देखा पं० हंसराज शर्मा-दर्शन और अनेकांतवाद । ५. कल्पनारचितस्यैव वैचित्र्यस्योपवर्णने। को नामातिशयः प्रोक्तो विप्रनिर्ग्रन्थकापिलः॥ तत्त्वसंग्रह पृ० ५.१ ।

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