Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 393
________________ स्याद्वादमञ्जरी ( परिशिष्ट) ३४३ कुमारिलभट्ट और प्रभाकरके आत्मा संबंधी सिद्धांतोंमें मतभेद पाया जाता है। कुमारिलके मतमें आत्माको कर्ता, भोक्ता, ज्ञानशक्तिवाला, नित्य, विभु और परिणामी मानकर अहंप्रत्ययका विषय माना जाता है। प्रभाकर भी आत्माको कर्ता, भोक्ता और विभु स्वीकार करते हैं, परन्तु वे आत्मामें परिवर्तन नहीं मानते २ । प्रभाकरके सिद्धांत के अनुसार आत्मा ज्ञाता है और पदार्थ ज्ञेय हैं । ज्ञाता और ज्ञेय एक नहीं हो सकते, इसलिये आत्मा कभी स्वसंवेदनका विाय नहीं हो सकता । यदि आत्माको स्वसंवेदक माना जाय तो गाढ़ निद्रामें भी ज्ञान मानना चाहिये। मोक्ष-गौतमधर्मसूत्र आदि धर्मशास्त्रोंमें धर्म, अर्थ और काम केवल इन तीन पुरुषार्थोंको मानकर धर्मको ही मुख्य पुरुषार्थ स्वीकार किया गया है। मीमांसा दर्शनके प्राचीन आचार्य धर्मको सम्पूर्ण सुखोंका कारण मानकर उससे स्वर्गकी प्राप्ति करना ही अपना अन्तिम ध्येय समझते थे। इन लोगोंके सामने मोक्षका प्रश्न इतना बलवान नहीं था। परन्तु उत्तरकालीन मीमांसक आचार्य मोक्ष संबंधी प्रश्नसे अछूते न रह सके। प्रभाकरके मतके अनुसार संसारके कारण भूतकालीन धर्म और अधर्मके नाश होने पर शरीरके आत्यन्तिक रूपसे नाश होनेको मोक्ष कहा है। जिस समय जीवके शम, दम, ब्रह्मचर्य आदिके द्वारा आत्मज्ञान होनेसे देहका अभाव हो जाता है, उस समय मोक्षकी प्राप्ति होती है। मोक्ष अवस्थाको आनन्द रूप नहीं कह सकते, क्योंकि निर्गुण आत्मामें आनन्द नहीं रह सकता। इसलिये सुख और दुख दोनोंके क्षय होनेपर स्वात्मस्फुरण रूप अवस्थाको ही मोक्ष कहते हैं। कुमारिल भट्टके अनुसार परमात्माकी प्राप्तिकी अवस्था मात्रको मोक्ष कहा गया है । कुमारिल भी मोक्षको आनंद रूप नहीं मानते । पार्थसारथिमिश्र आदिने भी सुख-दुख आदि समस्त विशेष गुणोंके नाश होनेको मुक्ति माना है। मीमांसक और जैन मीमांसक याज्ञिक हिंसाको, जातिसे वर्णव्यवस्थाको और वेदके स्वत: प्रमाणको स्वीकार करते हैं। परन्तु जैन सांख्य, बौद्ध, आजीविक आदि श्रमण सम्प्रदायोंकी तरह उक्त बातोंका विरोध करते हैं । जैन लोग हिंसाके उग्र विरोधी है। ये लोग जातिसे वर्ण व्यवस्थाको नहीं मानते । ब्राह्मणोंकी मान्यता है कि सबसे पहले ब्रह्माके मुखसे ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति हुई, उसके बाद ब्रह्माके अन्य अवयवोंसे क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जन्मे, इसलिये ब्राह्मण ही सर्वपूज्य है। परन्तु आदिपुराण आदि जैन पुराणोंमें इससे विरुद्ध कल्पना देखने में आती है । आदिपुराणके अनुसार पहले पहल जब ऋषभदेव भगवानने असि, मसि आदि छह कर्मोंका उपदेश किया, उस समय उन्होंने पहले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंकों सृष्टि की, और बादमें व्रतधारी श्रावकों में से ब्राह्मण १. ज्ञानशक्तिस्वभावोऽतो नित्यः सर्वगतः पुमान् । देहान्तरक्षमः कल्प्यः सोऽगच्छन्नेव योक्ष्यते ॥ मी० श्लोकवार्तिक आत्मवाद ७३ । २. बुद्धीन्द्रियशरीरेभ्यो भिन्न आत्मा विभुवः । नानाभूतः प्रतिक्षेत्रमर्थवित्तिषु भासते ॥ प्रकरणपंचिका पृ० १४१ । ३. अतो नाविद्यास्तमयो मोक्षः । अत्यन्तिकस्तु देहोच्छेदो निःशेषधर्माधर्मपरिक्षयनिबंधनो मोक्ष इति सिद्धम् । प्रकरणपंचिका पृ० १५६ । सुखोपभोगरूपश्च यदि मोक्षः प्रकल्प्यते । स्वर्ग एव भवेदेष पर्यायेण क्षयी च सः ॥ न हि कारणवत्किचिदक्षयित्वेन गम्यते । तस्मात्कर्मक्षयादेव हेत्वभावेन मुच्यते ॥ न ह्यभावात्मकं मुक्त्वा मोक्षनित्यत्वकारणम् । भावरूपं सर्वमुत्पत्तिधर्मकं घटादिक्षयधर्मकमेव । अतो न सुखात्मिका मुक्तिरात्मज्ञानेन क्रियते इति ।.... सिद्धयति चाभावात्मकत्वे मोक्षस्य नित्यता न त्वानन्दात्मकत्वे । श्लोकवातिक संबंधाक्षेपपरिहार श्लोक १०५-१०७ न्यायरत्नाकर टीका ।

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