Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 382
________________ सांख्य-योग परिशिष्ट (घ) ___ ( श्लोक २५ ) सांख्य, योग, जैन और बौद्ध दर्शनोंकी तुलना और उनकी प्राचीनता सांख्य जैन और बौद्धोंकी तरह वेदोंको नहीं मानते, मीमांसकोंके यज्ञ-याग आदिकी निन्दा करते हैं, तत्त्वज्ञान और अहिंसापर अधिक भार देते हैं, सांसारिक जीवनके दुख रूप साक्षात्कार करनेका उपदेश करते हैं, जातिभेद स्वीकार नहीं करते, ईश्वरको नहीं मानते, संन्यासको प्रधानता देते हैं, जैनोंकी तरह आत्मबहुत्ववाद और बौद्धोंके क्षणिकवादकी तरह परिणामवादको मानते हैं, तथा जैन और बौद्धोंके तीर्थकरोंकी तरह कपिलका जन्म क्षत्रिय कुलमें होना स्वीकार करते है। इस परसे अनुमान किया जा सकता है कि सांख्य, योग, 'जैन और बौद्ध इन चारों संस्कृतियोंको जन्म देनेवाली कोई एक प्राचीन संस्कृति होनी चाहिये । ऋग्वेदमें एक जटाधारी मुनिका वर्णन आता है; इस युग में एक सम्प्रदाय वैदिक देवता और इन्द्र आदिमें विश्वास नहीं करता । यह सम्प्रदाय वेदकी ऋचाओंपर भी कटाक्ष किया करता था। यजुर्वेदमें भी वैदिक धर्मके विरुद्ध प्रचार करनेवाले यतियोंका उल्लेख आता है। एतरेय ब्राह्मण आदि वाह्मणोंमें भी वेदको न माननेवाले सम्प्रदायोंकी चर्चा और कर्मकाण्डकी अपेक्षा तपश्चरण, ब्रह्मचर्य, त्याग, इन्द्रियजय आदि भावनाओंकी उत्कृष्टताका उल्लेख किया गया है। उपनिषद् साहित्यमें तो ऐसे अनेक उल्लेख मिलते है जहां ब्राह्मण क्षत्रिय गुरुसे अध्ययन करते हैं, ऋषि ब्रह्मचर्यको ही वास्तविक यज्ञ मानते हैं, वेदको अपराविद्या कहकर यज्ञ, याग आदिका तिरस्कार करते हैं, और भिक्षाचर्याकी प्रधानताका प्रतिपादन कर ब्रह्मविद्याके महत्त्वका प्रसार करते हैं। महाभारतमें भी जातिसे वर्णव्यवस्था न मानकर कर्मसे वर्णव्यवस्था माननेके, अपनी आंख और शरीरका मांस आदि काटकर दान करनेके, तथा अनेक प्रकारको कठोर तपश्चर्याय करनेके अनेक उदाहरण पाये जाते हैं । इस पर से ऋग्वेदमें भी एक ऐसी संस्कृतिके मौजूद रहनेका अनुमान होता है, जो संस्कृति कर्मकाण्डकी अपेक्षा ज्ञानकाण्डको, और गृहस्थधर्मकी अपेक्षा संन्यासधर्मका अधिक महत्व देती थी। इस संस्कृतिको श्रमण अथवा क्षत्रिय संस्कृति कह सकते हैं। उपनिषदोंका साहित्य अधिकतर इसी सांस्कृतिके मास्तिष्ककी उपज कहा जाता है। १. सिन्धमें मोहेन्जोदरो और हरप्पाकी खुदाईमें पायी जानेवाली ध्यानस्थ मूर्तियोंसे भी इस संस्कृतिकी प्राचीनताका अनुमान किया जा सकता है। २. ब्राह्मण और श्रमण इन दोनों वर्गोके इतिहासका मूल बहुत प्राचीन है। जिस तरह ब्राह्मणोंके धर्मशास्त्र, पुराण आदि ग्रन्थों में श्रमणोंका नास्तिक और असुरके रूपमें उल्लेखकर उनका स्पर्श करके सचेल स्नान आदिका विधान किया गया है, उसी तरह जैन, बौद्ध आदिके ग्रन्थों में ब्राह्मणोंका मिथ्यादृष्टि, कुमार्गगामी, अभिमानी आदि शब्दोंसे तिरस्कार किया गया है। जितेन्द्रबुद्धि आदि वैयाकरणोंने ब्राह्मण और श्रमणोंके विरोधको सर्प और नकूलकी तरह जाति-विरोध कहकर उल्लेख किया है। विशेषके लिये देखिये पं० सुखलालजीकी 'पुरातत्त्व' में प्रकाशित 'साम्प्रदायिकता अने तेना पुरावाओनं दिग्दर्शन' नामक लेखमाला। इस लेखमालाका इस पुस्तकके लेखकद्वारा किया हुआ हिन्दी अनुवाद 'जैनजगत' में भी प्रकाशित हुआ है। ३. विशेषके लिये देखिये, सन् १९३४ में बम्बईमें होनेवाली २१ वी इन्डियन साइंस कांग्रेसके अवसरपर रायबहादुर आर. पी. चन्दा ( R. P. Chanda) का श्रमणसंस्कृति ( Shramanism ) पर पढ़ा

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