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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
प्लोटिनस ( Plotinus) कहा करता था कि मुझे तो अपनी उत्पत्तिकी रीतिका ध्यान करके लज्जा आती है। इससे प्रतीत होता है या तो ईश्वर सृष्टिको न बनाता, या वह बुद्धिमान नहीं है। ईश्वरको चाहिये था कि कान, नाक, या अंगूठा आदिसे सन्तोत्पत्ति करता। इसी प्रकार मैवटैगर्ट ( McTaggart ), कैनन राशडल ( Canon Rashdall ) आदि विद्वानोंने ईश्वरको अकर्ता और असर्वव्यापक माना है।
न्याय-वैशेषिक साहित्य कणादके वैशेषिक सूत्रोंकी रचना अक्षपादके न्यायसूत्रोंसे पहले मानी जाती है। यूई ( Ui ) वैशेषिक दर्शनकी उत्पत्ति बुद्धके समय, और कमसे कम ईसाकी प्रथम शताब्दीके अन्त में वैशेषिकसूत्रोंकी रचनाका समय मानते हैं । प्रशस्तपाद वैशेषिकसूत्रोंके समर्थ भाष्यकार हो गये है। इनका समय ईसाकी पांचवी-छठी शताब्दी बताया जाता है। वैशेषिकसूत्रोंके ऊपर रावणभाष्य और भारद्वाजवृत्ति नामके भाष्योंका भी उल्लेख मिलता है। ये भाष्य आजकल लुप्त हो गये हैं। प्रशस्तपादभाष्य पर व्योमशेखरने व्योमवती, श्रीधरने न्यायकन्दली, उदयनने किरणावलि और श्रीवत्सने लीलावती, तथा नवद्वीपके जगदीश भट्टाचार्यने भाष्यसूक्ति और शंकरमिश्रने कणादरहस्य टीकायें लिखी हैं। इसके अतिरिक्त शिवादित्यकी सप्तपदार्थी, लौगाक्षिभास्करकी तर्ककौमुदी, विश्वनाथका भाषापरिच्छेद, तर्कसंग्रह, तामृत आदि ग्रंथ वैशेषिकदर्शनका ज्ञान करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
न्यायसूत्रोंकी रचनाके विषयमें विद्वानोंका मतभेद है। प्रो. याकोबीका मत है कि न्यायसूत्र २००-४५० ईसवी सन्में रचे गये हैं। यूई (Ui ) ने इस समयको १५०-२५० ईसवी सन् स्वीकार किया है। प्रो. ध्रुवने उक्त मतोंकी विस्तृत समालोचना करते हुए न्यायसूत्रोंके रचनाके समयको ईसवी सन्के पूर्व दूसरी शताब्दी माना है । वात्स्यायन न्यायसूत्रोंके प्रथम भाष्यकार गिने जाते हैं। इनका समय ईसाकी चौथी शताब्दी माना जाता है। वात्स्यायन पर बौद्ध ताकिक दिङ्नागके आक्षेपोंका परिहार करनेके लिये उद्योतकर ( ६३५ ई. स.) ने वात्स्यायनभाष्य पर न्यायवार्तिककी रचना की। न्यायवार्तिक पर वाचस्पतिमिश्रने (८४० ई. स.) न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीका लिखी। वाचस्पतिको न्यायसूचिनिबंध
और न्यायसूत्रोद्धारका भी कर्ता कहा जाता है। वाचस्पतिमिथने वेदांत, सांख्य, योग और पूर्वमीमांसा दर्शनों पर भी ग्रंथोंकी रचनाकी है । वाचस्पतिके बाद जयंतभट्टका (८८० ई० स० ) नाम बहुत महत्त्वका है। इन्होंने कुछ चुने हुए न्यायसूत्रों पर स्वतंत्र टीका लिखी है। जयन्तने न्यायमंजरो, न्यायकलिका आदि ग्रन्थोंकी रचना की है। मल्लिषेणने स्याद्वादमंजरीमें जयन्तका उल्लेख किया है । उदयन आचार्य दसवीं शताब्दीके विद्वान है। इन्होंने वाचस्पतिकी तात्पर्यटीकापर तात्पर्यटीकापरिशुद्धि नामको टीका, तथा न्यायकुसुमांजलि, आत्मतत्त्वविवेक, लक्षणावलि, किरणावलि, न्यायपरिशिष्ट नामक ग्रंथोंकी रचना की है। उदयनकी रचनाओं पर गंगेश नैयायिकके पुत्र वर्धमान आदिने
१. ये उद्धरण पं. गंगाप्रसाद उपाध्यायकी आस्तिकवाद नामक पुस्तकके १० वें अध्यायमें फ्लिन्ट (Flint)
की Theism के आधारसे दिये गये हैं। २. कहा जाता है कि जिस समय कुसुमांजलिके कर्ता उदयनके नाना युक्तियोंसे ईश्वरका अस्तित्व सिद्ध
करनेपर भी ईश्वरने दयालुताका भाव प्रदर्शन नहीं किया, उस समय उदयनने ईश्वरको ऐश्वर्यके मदसे मत्त हुआ कहकर ईश्वरके अस्तित्वको स्थितिको अपने अधीन बताकर निम्न श्लोककी रचना की
ऐश्वर्यमदमत्तोऽसि मां अवज्ञाय वर्तसे।
पराक्रान्तेषु बौद्धषु मदधीना तव स्थितिः ।। ३. देखिये प्रो. ध्रुवकी स्याद्वादमंजरी भूमिका, पृ. ४१-५४ ।