Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 379
________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट ) ३२९ ईश्वरका शरीर माना जा सकता है। जिस प्रकार हमारी आत्मामें इच्छा होनेके कारण हमारे शरीरमें क्रिया होती है, उसी तरह ईश्वरकी नित्य इच्छासे परमाणुओंमें क्रिया होती है । शंका-ईश्वर प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं होता। किसी पदार्थको प्रत्यक्ष प्रमाणसे जाननेके लिये इन्द्रिय और पदार्थोंका संबंध होना आवश्यक है; परन्तु ईश्वरका इन्द्रियोंसे संबंध नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वरवादी ईश्वरको इन्द्रियोंके विपयके बाह्य मानते हैं, इसलिये प्रत्यक्षसे ईश्वरको नहीं जान सकते । अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही होता है, अतएव ईश्वरका प्रत्यक्ष न होनेसे ईश्वरको अनुमानसे भी नहीं जान सकते । आप्तके उपदेशमें और उपमान प्रमाण में भी प्रत्यक्षको आवश्यकता पड़ती है, इसलिये उपमान और शब्दसे भो ईश्वरकी सिद्धि नहीं होती। ईश्वरवादी-ईश्वर हमारे इन्द्रियप्रत्यक्षका विषय नहीं है, यह ठोक है। परन्तु इससे हम ईश्वरका अभाव सिद्ध नहीं कर सकते। अधिकसे अधिक हम यह कह सकते हैं कि ईश्वर प्रत्यक्षसे सिद्ध नहीं किया जा सकता । परन्तु किसी हालतमें प्रत्यक्षसे ईश्वरका अभाव सिद्ध नही होता। अनुमानसे ईश्वरकी सिद्धि और असिद्धि दोनों नहीं हो सकती। उपमान प्रमाणका ईश्वरसिद्धिसे कोई संबंध नहीं है । तथा शब्द प्रमाणसे ईश्वरकी सिद्धि होती ही है । ईश्वरके विषयमें आधुनिक पाश्चात्य विद्वानोंका मत पश्चिमके आधुनिक दार्शनिक विद्वान प्रायः ईश्वरको सृष्टिका कर्ता नहीं मानते हैं। इन लोगोंका कहना है कि यदि ईश्वर सृष्टिका कर्ता होता और वह प्राणियोंका शुभचिन्तक होता तो गत योरूपीय महायुद्धमें असंख्य नर-नारियोंका रक्त पानीकी तरह कभी नहीं बहाया जाता। अतएव यदि सृष्टिकर्ता ईश्वर कृपालु है, तो उसे नाना प्रकारके दुःख और व्याधियोंसे परिपूर्ण सृष्टिको कभी रचना नहीं करनी चाहिये थी। इस बातको पाश्चात्य विद्वानोंने विभिन्न रूपोंमें प्रगट किया है। एच. जी. वेल्स ( H. G. Wells ) का कथन है कि ईश्वरको सर्व शक्तिमान सृष्टिका सर्जक नहीं कह सकते । यदि ईश्वर सृष्टिके प्राणियोंको युद्ध, मृत्यु आदिसे बचानेमें समर्थ होकर भी केवल अपनी क्रीड़ाके लिये ही सृष्टिका निर्माण करता है तो मैं उसे घृणाकी दृष्टिसे देखता हूँ। विलियम जेम्स ( William James ) के कथनानुसार हमें ऐसे ईश्वरकी आवश्यकता है जो हमारे जैसा ही हो, और हम उसे अपना मित्र, साथी, नायक, सेनापति और राजा मानकर अपनी असहाय और हीन दशामें उससे सहानुभूति प्राप्त कर सकें। इस विश्वमें ईश्वरीय क्रम दिखाई नहीं देता, इसलिये हम अनादि, अनन्त ईश्वरकी कल्पना नहीं कर सकते। प्रो. हेल्महोल्ट्ज़ ( Prof. Helmholtz) का कहना है कि आंखमें वे सब दोष है जो किसीके देखनेके यंत्रमें पाये जा सकते हैं, और कुछ अधिक भी। इसमें कुछ अत्युक्ति नहीं है कि यदि कोई चश्मा बेचनेवाला इन दोषोंवाला चश्मा मुझे देता तो मैं उसकी मूर्खता या असावधानीको बड़े बलपूर्वक दिखाता और उसके चश्मेको लौटा देता। कॉमटे ( Comte ) आदिका कहना है कि सौर्यमण्डल ऐसा नहीं बना जिससे अधिकसे अधिक लाभ हो सकता। आवश्यकता थी कि चांद पृथिवीके चारों ओर उतने ही समयमें घूमता जितनेमें पृथिवी सूर्यके चारों ओर घूमती है। यदि ऐसा होता तो चांद हर रातको पूरा-पूरा चमका करता। लैंग ( Lange) और हक्सले ( Huxley ) आदि विद्वानोंका कथन है, सृष्टिमें उतना ही अपव्यय है जितना खेतमें एक खरगोशको मारनेके लिये करोडों तोपें छोड़नेमें होता है। १. ईश्वरविषयक अन्य शंकाओंके लिये देखिये न्यायमंजरी पृ. १९०-४।। २. कुसुमांजलि स्तबक ३ । तथा देखिये श्रीधरकी न्यायकंदली, पृ.५४-५७; जयन्तकी न्यायमंजरी, पृ. १९४ से आगे। जयन्तने ईश्वरकी सिद्धि में सामान्यतोदृष्ट अनुमान दिया है-सामान्यतोदृष्टं तु लिंगमीश्वरसत्तायामिदं महे । पृथिव्यादिकार्य धमि तदुत्पत्तिप्रकारप्रयोजनाद्यभिज्ञकर्तपूर्वकमिति साध्यो धर्मः कार्यत्वात् घटादिवत् । ४२

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