Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 386
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां शिखको षष्टितंत्रका प्रणेता कहा जाता है, परन्तु यह ठीक नहीं है। पंचशिख चौबीस तत्त्वोंको स्वीकार करते हैं और भूतोंके समूहसे आत्माकी उत्पत्ति मानते हैं। प्रो. दासगुप्तका मत है कि ईश्वरकृष्णकी सांख्यकारिकाका और महाभारतमें वर्णन किये हुए सांख्यसिद्धान्तोंका चरक (७८ ई. स.) में कोई उल्लेख नहीं मिलता, इसलिए महाभारतमें आया हुआ पंचशिखका सांख्य मौलिक सांख्यदर्शन है, तथा सांख्यकारिकाका ईश्वरकृष्णका सांख्य सांख्यदर्शनका अर्वाचीनका रूप है। गार्बे (Garbe ) पंचशिखको ईसाकी प्रथम शताब्दीका विद्वान कहते हैं। वार्षगण्य-वार्षगण्य विन्ध्यवासीके गुरु थे। महाभारतमें वार्षगण्यको सांख्य-योगके प्रणेताओंमें माना गया है । वाचस्पतिने इनका योगशास्त्र-व्युत्पादयिता कहकर उल्लेख किया है। अहिर्बुध्न्यसंहितामें और वाचस्पति आदिने वार्षगण्यको षष्टितंत्रका रचयिता कहा है। इनका समय ईसवी सन् २३०-३०० कहा जाता है। विन्ध्यवासी-विन्ध्यवासीका उल्लेख मीमांसाश्लोकवार्तिक और तत्त्वसंग्रहपंजिका में आता है। इनका असली नाम रुद्रिल था। वसुबंधुके जीवनचरितके लेखक परमार्थके अनुसार, विन्ध्यवासोने वसुबंधुके गुरु बुद्धमित्रको शास्त्रार्थ में पराजित करके अयोध्याके विक्रमादित्य राजासे पारितोषिक प्राप्त किया था। विन्ध्यवासी जय प्राप्त करके विन्ध्याचलको लौट गये और वहीं पर इन्होंने शरीर छोड़ा। इनका समय ई. स. २५०-३२० कहा जाता है।' | ईश्वरकृष्ण-ईश्वरकृष्ण सांख्यकारिकाके कर्ता हैं। सांख्यकारिको सांख्यसप्तति भी कहते हैं। यह ग्रंथ षष्टितंत्रके आधारसे रचा गया है । सांख्यकारिकाके ऊपर माठर और गौड़पादने टीकायें लिखी हैं । बौद्ध साधु परमार्थ छठी शताब्दीमें सांख्यकारिकाको चीनमें ले गये थे, और वहां उन्होंने इसका चीनी अनुवाद करके इसके ऊपर टीका लिखी थी। पहले ईश्वरकृष्ण और विन्ध्यवासीको एक ही व्यक्ति समझा जाता था, परन्तु कमलशील तत्त्वसंग्रहपजिकामें ईश्वरकृष्ण और विन्ध्यवासीका अलग-अलग उल्लेख करते हुए विन्ध्यवासीका रुदिल नामसे उल्लेख करते हैं । गुणरत्न भी विन्ध्यवासी और ईश्वरकृष्णको अलग-अलग नामसे कहते हैं, इसलिये ईश्वरकृष्ण और विन्ध्यवासीको एक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग ईश्वरकृष्णका समय वार्षगण्यके पूर्व मानकर ईश्वरकृष्णका समय दूसरी शताब्दी मानते हैं। कुछका कहना है कि महाभारतके वार्षगण्य ईश्वरकृष्णसे बिलकुल अनभिज्ञ हैं, इसलिये वार्षगण्यको ईश्वरकृष्णके उत्तरकालोन नहीं कहा जा सकता । इन विद्वानोंके मतमें ईश्वरकृष्णका समय ईसवी सन् ३४०-३८० माना जाता है । वाचस्पतिमिश्र-नवमी शताब्दीमें वानस्पतिने न्याय-वैशेषिक दर्शनोंकी तरह सांख्यकारिकापर सांख्यतत्त्वकौमुदो और व्यासभाष्यपर तत्त्ववैशारदी नामक टीकाकी रचनाकी है।। विज्ञानभिक्ष-वाचस्पतिमिश्रके बाद विज्ञानभिक्षु अथवा विज्ञानयति एक प्रतिभाशाली सांख्य विचारक हो गये हैं। इन्होंने सांख्यसूत्रोंपर सांख्यप्रवचनभाष्य तथा सांख्यसार, पातंजलभाष्यवार्तिक, ब्रह्मसूत्रके ऊपर विज्ञानामृतभाष्य आदि ग्रन्थोंकी रचनाको है। बहुतसे सिद्धातोंमें विज्ञानभिक्षुका वाचस्पतिमिश्रसे भिन्न अभिप्राय था। विज्ञानभिक्षुने पंचशिख और ईश्वरकृष्णके समयमें लुप्त हुए ईश्वरवादका सांख्यदर्शनमें फिरसे प्रतिपादन किया है। भावागणेशदीक्षित, प्रसादमाधवयोगी और दिव्यसिंहमिश्र नामके इनके तीन प्रधान शिष्य थे। १. वाचस्पतिमिथ आदि विचारकोंके अनसार षष्टितंत्र वार्षगण्यका बनाया हआ है। षष्टितन्त्रका भगवती ज्ञातृधर्मकथा, नन्दि आदि जैन आगमोंमें उल्लेख आता है। जैन कथाके अनुसार षष्टितंत्र आसुरिका बनाया हुआ कहा जाता है । जैन टीकाकारोंने षष्टितंत्रका अर्थ कापिलीय शास्त्र किया है। २. तत्त्वसंग्रह, अंग्रेजी भूमिका ।

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