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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
प्रतिपादक होनेसे ज्ञानके साधन हैं, तथा अपौरुषेय होनेके कारण स्वतः प्रमाण हैं। वेदवाक्योंका अनुमान प्रमाणसे खण्डन नहीं हो सकता, क्योंकि अनुमान प्रमाण वेद प्रमाणसे बहत निम्न कोटिका है। वेदके अपौरुषेय होनेपर भी अन्यच्छिन्न अनादि सम्प्रदायसे वेद वाक्योंके अर्थका ज्ञान होता है। वेदवाक्य लौकिक वाक्योंसे भिन्न होते हैं जैसे 'अग्निमीळे पुरोहितम्', 'ईर्षे त्वोर्जे त्वा', 'अग्न आयाहि वीतये' आदि । वेद दो प्रकारका होता है-मंत्र रूप और ब्राह्मण रूप। यह मंत्र और ब्राह्मण रूप वेद विधि, मंत्र, नामधेय, निषेध और अर्थवादके भेदसे पांच प्रकारका है । २ विधिसे धर्म संबंधी नियमोंका ज्ञान होता है जैसे-'स्वर्गके इच्छुकको यज्ञ करना चाहिये' यह विधि है । अपर्व, नियम, परिसंख्या, उत्पत्ति, विनियोग, प्रयोग, अधिकरण आदिके भेदसे विधिके अनेक भेद होते है । मंत्रसे याज्ञिकको यज्ञ सम्बन्धी देवताओं आदिका ज्ञान होता है । नामधेयसे यज्ञसे मिलनेवाले फलका ज्ञान होता है। निषेध विधिका ही दूसरा प्रकार है। निन्दा, प्रशंसा, परकृति और पुराकल्पके भेदसे अर्थवाद चार प्रकारका होता है।
२. शब्दकी नित्यता-मीमांसक वेदको नित्य और अपौरुषेय मानते हैं, इसलिये इनके मतमें शब्दको भी नित्य और सर्वव्यापक स्वीकार किया गया है । मीमांसकोंका कहना है कि हमें एक स्थानपर प्रयुक्त गकार आदि वर्णोंका, सूर्यको तरह, प्रत्यभिज्ञानके द्वारा सब जगह ज्ञान होता है, इसलिये शब्दको नित्य मानना चाहिये। तथा, एक शब्दका एक बार संकेत ग्रहण कर लेनेपर कालान्तरमें भी उस संकेतसे
वेदस्याध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् ।
वेदाध्ययनसामान्यादधुनाध्ययनं यथा । इत्यनुमानं प्रतिसाधनं प्रगल्भत इति चेत् । तदपि न प्रमाणकोटिं प्रवेष्टमीष्टे ।
भारताध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकं ।
भारताध्ययनत्वेन सांप्रताध्ययनं यथा ।। इत्याभाससमानयोगक्षेमत्वात् । ननु तत्र व्यासः कर्तेति स्मर्यते ।
को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत् । इत्यादाविति चेत् । तदप्यसारम् । ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत (तै० आ० ३-१२) इति पुरुषसूक्ते वेदस्य सकर्तृकता प्रतिपादनात् । किं चानित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाद्घटवत् । नन्विदमनुमानं स सवायं गकार इति प्रत्यभिज्ञाप्रमाणप्रतिहतमिति चेत् । तदतिफल्गु । लुनपुनर्जातकेशदलितकुन्दादाविव प्रत्यभिज्ञायाः सामान्यविषयत्वेन बाधकत्वाभावात् । नन्वशरीरस्य परमेश्वरस्य ताल्वादिस्थानाभावेन वर्णोच्चारणासंभवात्कथं तत्प्रणीतत्वं वेदस्य स्यादिति चेत् । न तद्भद्रम् । स्वभावतोऽशरीरस्यापि तस्य भक्तानुग्रहार्थं लीलाविग्रहग्रहणसंभवात् । तस्माद्वेदस्या
पौरुषेयत्ववाचोयुक्तिः न युक्ता । सर्वदर्शनसंग्रह-जैमिनिदर्शन। १. वेदान्तो लोग वेदको अपौरुषेय और आदिमान्, तथा सांख्य लोग वेदको पौरुषेय और आदिमान मानते हैं। २. मन्त्र और ब्राह्मण रूप वेदके चार भेद है-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद । ऋग्वेदकी दस,
यजुर्वेदकी छियास्सी, सामवेदकी एक हजार (ये अनध्यायके दिनोंमें पढ़ी जानेके कारण इन्द्रके वज्रसे नष्ट हो गई मानी जाती है ) और अथर्ववेदको नौ शाखायें हैं। ऋग्वेदका आयुर्वेद, यजुर्वेदका धनुर्वेद, सामवेदका गान्वर्ववेद और अथर्ववेदका अर्थशास्त्र (स्थापत्य ) ये चारों वेदोंके चार उपवेद होते हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष ये छह वेदके अंग, तथा पुराण, न्याय, मीमांसा
और धर्मशास्त्र ये चार उपांग हैं। ऋग्वेदका एतरेयब्राह्मण, यजुर्वेदका तैत्तिरीय और शतपथ ब्राह्मण,
सामवेदका गोपथब्राह्मण तथा अथर्ववेदका ताण्ड्यब्राह्मण ये वेदोंके ब्राह्मण है । ३. शब्दो नित्यः व्योममात्रगुणत्वात् व्योमपरिमाणवत्-प्रभाकर ।
शब्दो नित्यः निस्स्पर्शद्रव्यत्वात् आत्मवत्-भट्ट ।