Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 373
________________ स्याद्वादमञ्जरी (परिशिष्ट) ३२३ धारण किया था, अतएव इनका नाम औलुक्य पड़ा। वायुपुराणके अनुसार, औलूक्य द्वारकाके पास प्रभासके रहनेवाले सोमशर्माके शिष्य थे। वैदिक परम्पराका अत्करण करते हुए हेमचन्द्र, राजशेखर, गुणरत्न आदि जैन विद्वानोंका कथन है कि स्वयं ईश्वरने उल्लू ( उलूक ) का रूप धारण करके कणाद ऋषिको द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य, विशेष और समवाय इन छह पदार्थोंका उपदेश किया था। इस उपदेशके ऊपरसे कणाद ऋषिने जीवोंके उपकारके लिये वैशेषिक सूत्रोंकी रचना की, इसीलिए कणाद ऋषि औलूक्य नामसे कहे जाने लगे। "ईसा की छठी शताब्दिके चित्साङ ( Ci-tsan ) नामक एक चीनी बौद्ध वैशेषिक दर्शनके जन्मदाता उलूकका समय बुद्धसे आठ सौ वर्ष पहले बताते हैं। चित्साङ्का कथन है कि उलूक रातको सूत्रोंकी रचना करते थे और दिन में भिक्षावृत्ति करते थे, इसलिये इनका नाम उलूक पडा। चित्साने दूसरी जगह लिखा है कि उलूकके रचे हुए सूत्र सांख्य दर्शनके सूत्रोंसे बढ़े-चढ़े (विशेष ) थे, इसलिये उलुकका दर्शन वैशेषिक दर्शनके नामसे प्रसिद्ध हुआ। सूत्रालंकारके कर्ता अश्वघोषका कहना है कि जैसे रातमें उल्लू शक्तिशाली होता है, वैसे ही संसारमें बुद्धके आनेके पहले यह दर्शन शक्तिशाली था। बुद्ध के प्रादुर्भाव होनेपर इस दर्शनका प्रभाव हीन हो गया, इसलिये इस दर्शनको औलुक्य दर्शन कहते है।" वैशेषिकोंका दूसरा नाम पाशुपत है। वैशेषिक लोग द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय इन छह तत्त्वोंको, और प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणोंको स्वीकार करते हैं। न्याय-वैशेषिकोंके समानतंत्र नैयायिक और वैशेषिक लोग बहुतसी मान्यताओंसे एकमत हैं, इसलिये इन्हें 'समानतंत्र' कहा गया है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायनने वैशेषिक सिद्धांतको न्यायका 'प्रतितंत्र' सिद्धांत कहा है । बौद्ध विद्वान आर्यदेव और हरिवर्मन् भी न्याय और वैशेषिक सिद्धांतोंका भिन्न-भिन्न रूपमें उल्लेख नहीं करते। उद्योतकर अपने न्यायवातिकमें वैशेषिक सिद्धांतोंका ही उपयोग करते हैं। आगे चलकर वरदराज ताकिकरक्षामें, केशवमिश्र तर्कभाषामें, शिवादित्य सप्तपदार्थीमें, लौगाक्षिभास्कर तर्ककौमुदीमें, विश्वनाथ भाषापरिच्छेद और सिद्धांतमुक्तावलिमें, अन्नंभट्ट तर्कसंग्रहमें और जगदीश तर्कामृतमें न्याय-वैशेषिक सिद्धांतोंका समान रूपसे उपयोग करते हैं । विद्वानोंका मत है कि प्रशस्तपादभाष्यकारके समयके वैशेषिक सिद्धांत और उद्योतकरके समयके न्याय सिद्धांतोंमें बहुत कम अन्तर था, परन्तु उत्तरकालीन वैशेषिकोंने आत्मा और अनात्माके १. वैशेषिकः स्यादौलुक्यः । नित्यद्रव्यवृत्तयोऽत्र विशेषाः, ते प्रयोजनमस्य वैशेषिक शास्त्रं तद् वेत्यऽधीते वा वैशेषिकाः । उलूकस्यापत्यमिव । तज्जन्यत्वादोलूक्यं शास्त्र, उलूकवेषधारिणा महेश्वरेण प्रणोतमिति प्रसिद्धिः । अभिधानचिन्तामणि ३-५२६ वृत्ति । २. प्रोफेसर ध्रुव, स्याद्वादमंजरी, नोट्स, पृ. २३-२५ । ३. वैशेषिकोंके द्रव्य, गुण, काल, आत्मा, परमाणु आदिकी मान्यताओंके साथ जैनदर्शनके सिद्धांतोंकी तुलना करनेके लिये देखिये वैशेषिकसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र; तथा प्रोफेसर याकोबी का Jain Sutras भाग २, भूमिका, पृ. ३३ से ३८ । ४. वैशेपिकसूत्र और प्रशस्तपादभाष्यमें द्रव्य, गुण आदि छह पदार्थों का ही उल्लेख पाया जाता है । हरिभद्र, शंकराचार्य आदि विद्वानोंने छह पदार्थोंका उल्लेख किया है। आगे जाकर श्रीधर, उदयन, शिवादित्य आदि विद्वान छह पदार्थों में अभाव नामका सातवां पदार्थ मिलाकर सात पदार्थों को स्वीकार करते हैं। इन विद्वानोंको मान्यता है कि अभाव तुच्छ रूप नहीं है। अन्य पदार्थोंकी तरह अभाव भी अलग पदार्थ है। यह अभाव भावके आश्रयसे रहता है, इसीलिये भाष्यकारने अभावको अलग पदार्थ नहीं कहा ( अभावस्य पृथगनुपदेशः भावपारतन्त्र्यात् न त्वभावात्--न्यायकंदलो पृ. ६)। शिवादित्यने सात पदार्थोके विवेचन करनेके लिये सप्तपदार्थी नामक स्वतंत्र ग्रंथकी रचना की है।

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