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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
[ अन्य. यो. व्य. श्लोक २८
समभिरूढ और एवंभूत ये शब्दके तीन विभाग करनेसे नयोंके आठ भेद होते हैं । ' ( झ ) नैगम, संग्रह आदि सात प्रसिद्ध नयोंमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय मिला देनेसे नयोंकी संख्या नौ हो जाती है । इन नयोंके माननेवाले आचार्योंका खंडन द्रव्यानुयोगतर्कणा में मिलता है । 2 ( ट ) नैगमके नौ भेद करके संग्रह आदि छह नयोंको मिलानेसे नयोंके १५ भेद होते हैं । १ (ठ) निश्चय नयके २८ और व्यवहार नयके ८ भेद मिलाकर नयोंके ३६ भेद होते हैं । (ड) प्रत्येक नयके सौ सौ भेद करनेपर नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पांच नयोंके माननेसे नयोंके पांच सो, और सात नय माननेसे नयोंके सात सौ भेद
इसलिये नयके असंख्यात
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होते हैं । (ढ) जितने प्रकारके वचन होते हैं, उतने ही नय हो सकते हैं,
भेद हैं ।
( ३ ) – (१) (क) सामान्य और विशेष पदार्थोंको ग्रहण करना नैगम नय है । यह लक्षण मल्लिषेण, सिद्धर्षि, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, अभयदेव आदि श्वेताम्बर आचार्योंके ग्रन्थोंमें मिलता है । (ख) दो धर्म, अथवा दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्ममें प्रधान और गौणताकी विवक्षा करनेको नैगम कहते हैं । नैगम नयका यह लक्षण देवसूरि, विद्यानन्दि, यशोविजय आदिके ग्रन्थोंमें पाया जाता है । (ग) जिसके द्वारा लौकिक अर्थका ज्ञान हो, उसे नैगम कहते हैं । यह लक्षण जिनभद्रगणि, सिद्धसेनगणि आदि आचार्योंके ग्रन्थोंमें मिलता है । (घ ) संकल्प मात्र के ग्रहण करनेको नैगम कहते हैं । जैसे किसी पुरुषको प्रस्थ ( पाँच सेरका परिमाण ) बनानेके लिये जंगलमें लकड़ी लेने जाते हुए देखकर किसीने पूछा, तुम कहाँ जा रहे हो ? उस आदमीने उत्तर दिया कि वह प्रस्थ लेने जा रहा है । पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानंदि आदि दिगम्बर आचार्योंको यही लक्षण मान्य है । ( प्रस्थका उदाहरण नैगम नयके वर्णनमें हरिभद्रके आवश्यक टिप्पणमें भी दिया गया है ) । नैगमके नौ भेद हैं । आरंभ में पर्याय नैगम, द्रव्य नैगम, द्रव्य पर्याय नैगम —ये नैगमके तीन भेद हैं। इनमें अर्थ - पर्याय नैगम, व्यंजनपर्याय नैगम और अर्थ व्यंजन- पर्याय नैगम — ये पर्याय नैगमके तीन भेद हैं । शुद्ध द्रव्य नैगम और अशुद्ध द्रव्य नैगम —ये द्रव्य नैगमके दो भेद हैं । तथा शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगम, शुद्ध द्रव्य व्यंजन- पर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यार्थ द्रव्य व्यंजन- पर्याय नैगम- ये चार द्रव्य-पर्याय नैगमके भेद हैं । इन सबको मिलानेसे नैगमके नौ भेद होते हैं । न्याय-वैशेषिकों का नैगमाभासमें अन्तर्भाव होता है । ( २ ) विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तुको सामान्य रूपसे जाननेको संग्रह नय कहते हैं; जैसे जीव कहनेसे त्रस, स्थावर आदि सब प्रकारके जीवोंका ज्ञान होता है । संग्रह नय पर संग्रह और अपर संग्रहके भेदसे दो प्रकारका है । सत्ताद्वैतको मानकर सम्पूर्ण
१. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य १ - ३४, ३५ ।
२. यदि पर्यायद्रव्यार्थनयाँ भिन्नो विलोकितौ ।
अर्पितानपिताभ्यां तु स्युनैकादश तत्कथम् ॥ द्रव्यानुयोगतर्कणा ८-११ ।
३. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १-३३-४८ ।
४. देवसेनसूरि, नयचक्रसंग्रह १८६, १८७, १८८ ।
५. इक्किक्को य सयविहो सत्तनयसया हवंति एमेव ।
अन्नो विय आएसो पंचेव सया नयाणं तु ॥ विशेषावश्यक भाष्य २२६४ ।
६. ये परस्परविशकलितौ सामान्यविशेषाविच्छन्ति तत् समुदायरूपो नैगमः । सिद्धर्षि, न्यायावतार टीका । ७. यद्वा नैकं गमो योऽत्र सततां नैगमो मतः ।
धर्मयोर्धमिणो वापि विवक्षा धर्मधर्मिणोः ॥ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १-३३-२१ ।
८. निगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इति लौकिका अर्थाः तेषु निगमेषु भवो योऽध्यवसायः ज्ञानाख्यः स नैगमः । सिद्धसेनगणि, तत्त्वार्थ टीका ।
९. अर्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः । पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि पृ० ७८ ।