Book Title: Syadvada Manjari
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 346
________________ २९६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां एतेन योगशास्त्रावान्तरश्लोकेषु – “लोकाकाशप्रेदशस्था भिन्नाः कालाणवस्तु ये 1 शंका-समय रूप ही निश्चयकाल है, इसको छोड़कर कालाणु द्रव्यरूप कोई निश्चय काल नहीं देखा जाता । समाधान - समय कालकी ही पर्याय है, क्योंकि वह उत्पन्न और नाश होनेवाला है । जो पर्याय होता है, वह द्रव्य के विना नहीं होता । जिस प्रकार घट रूप पर्यायका कारण मिट्टी है, उसी तरह समय, मिनिट, घंटा आदि पर्यायोंके कारण कालाणु रूप निश्चय कालको मानना चाहिये ।" शंका-समय, मिनिट आदि पर्यायोंका कारण द्रव्य नहीं है, किन्तु समयकी उत्पत्ति में मन्दगति से जाने वाले पुद्गल - परमाणु ही समय आदिका कारण हैं । जिस प्रकार निमेषरूप काल पर्यायकी उत्पत्ति में आंखों के पलकोंका खुलना और बन्द होना कारण है, इसी तरह दिनरूप पर्यायकी उत्पत्तिमें सूर्य कारण है । समाधान — हमेशा कारणके समान ही कार्य हुआ करता है । यदि आंखों का खुलना और बन्द होना तथा सूर्य आदि निमेष तथा दिन आदिके उपादान कारण होते, तो जिस प्रकार मिट्टी के बने हुए घड़े में मिट्टी रूप, रस आदि गुण आ जाते हैं, उसी तरह आंखोंका खुलना, बन्द होना आदि पुद्गल परमाणुओं के गुण निमेप आदिमें आ जाने चाहिये । परन्तु निमेष आदिमें पुद्गल के गुण नहीं पाये जाते । इसलिये समय आदिका कारण निश्चयकालको मानना चाहिये । शंका- यदि आप कालाणु द्रव्योंको लोकाकाशव्यापी मानकर उन्हें लोकाकाशके बाहर अलोकाकाशमें व्याप्त नहीं मानते, तो आकाश द्रव्यमें किस प्रकार परिवर्तन होता है ? समाधान - लोकाकाश और अलोकाकाश दो अलग अलग द्रव्य नहीं हैं। वास्तवमें आकाश एक अखंड द्रव्य है, केवल उपचारसे लोकाकाश और अलोकाकाशका व्यवहार होता है । अतएव जिस प्रकार एक स्पर्शन इंद्रियको विषयसुखका अनुभव होनेसे वह अनुभव सम्पूर्ण शरीर में होता है, उसी तरह कालाणु द्रव्यके लोकाकाशमें एक स्थानपर रहकर सम्पूर्ण आकाशमें परिणमन होता है, इसलिये काल द्रव्यसे आलोकाकाशमें भी परिणमन सिद्ध होता है । शंका - कालद्रव्य धर्म, अधर्म आदि द्रव्योंकी तरह निरवयव अखंड क्यों नहीं ? कालद्रव्यको अणु रूप क्यों माना है ? समाधान - काल दो प्रकारका है - व्यवहार और मुख्य । मुख्यकाल अनेक हैं, कारण कि आकाशके प्रत्येक प्रदेशों में व्यवहारकाल भिन्न भिन्न रूपसे होता है । यदि व्यवहारकालको आकाशके प्रत्येक भावानां परिवर्ताय मुख्यः कालः स उच्यते ॥ ज्योतिःशास्त्रे यस्य मानमुच्यते समयादिकम् । स व्यावहारिकः कालः कालवेदिभिरामतः ॥ नवजीर्णादिभेदेन यदमी भुवनोदरे । पदार्थाः परिवर्त्तन्ते तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥ वर्तमाना अतीतत्वं भाविनो वर्तमानतां । पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते कालक्रीडाविडम्बिताः ॥" इत्यादिना कालाणवः परस्परं विविक्ताः प्रतिपादितास्ते पर्यायरूपा इत्युक्तं । न तु तेषां द्रव्यरूपत्वं । अनंतसमयस्वरूपत्वेन तद्विशेषणस्य सूत्रणात् । आगमेऽपि अनंतद्रव्यत्वेन कथनाच्च । यद्यनंतसमयाः द्रव्यसमया इत्यर्थः तदा व्याहतिः स्पष्टैव, कालाणूनां द्रव्यत्वे तेषामसंख्यातत्वात् । युक्तिप्रबोध गा. २३ पृ. १९५६ द्रव्यानुयोगतकणा ११-१५ । १. द्रव्यतस्तु लोकाकाशप्रदेशपरिमाणकोऽसंख्येय एव कालो मुनिभिः प्रोक्तो न पुनरेक एवाकाशादिवत् । नाप्यनंतः पुद्गलात्मद्रव्यवत् प्रतिलोकाकाशप्रदेशं वर्तमानानां पदार्थानाम् वृत्तिहेतुत्वसिद्धेः । त. श्लोकवार्तिक ५-४० | तुलनीय न च कालद्रव्यस्य समय इति परिभाषा न युक्ता, समयस्य पर्यायत्वादिति वाच्यं । श्वेताशाम्बरद्वयनयेऽपि सांमत्यात् । यदुक्तं तत्त्वदीपिकायां प्रवचनसारवृत्तौ श्रीअमृतचन्द्र:'अनुत्पन्न विध्वस्तो द्रव्यसमयः, उत्पन्न प्रध्वंसी पर्यायसमय:' । युक्तिप्रबोध गा, २३ पृ. १८९ । २. विशेष के लिये देखिये द्रव्यसंग्रह २१, २२, २५ गाथाको वृत्ति; द्रव्यानुयोगतर्कणा ११-१४ से आगे; युक्तिप्रबोध, कालद्रव्यप्रकरण ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454