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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां प्रकार वर्ण नित्य और व्यापक होकर भी दीर्घ, ह्रस्व आदिके रूपसे भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, उसी तरह काल भी उपाधिके भेदसे भिन्न मालूम देता है। सर्वास्तिवादी बौद्ध भी भूत, भविष्य और वर्तमान कालका अस्तित्व मानते हैं । २) काल संबंधी दूसरी मान्यताको माननेवाले सांख्य, योग, वेदान्त, विज्ञानवाद और शून्यवाद मतके अनुयायो है । इन लोगोंके अनुसार काल कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। सांख्य विद्वान् विज्ञानभिक्षुका कथन है कि नित्यकाल प्रकृतिका गुण है, और खण्डकाल आकाशकी उपाधियोंसे उत्पन्न होता है। योगशास्त्रमें कहा है कि काल कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है, केवल लौकिक व्यवहारके लिये दिन, रात आदिका विभाग किया जाता है। यहां केवल क्षणको काल नामसे कहा गया है। यह क्षण उत्पन्न होते ही नाश हो जाता है, और फिर दूसरा क्षण उत्पन्न होता है। क्षणोंका समुदाय एक कालमें नहीं हो सकता, इस लिये क्षणों के क्रमरूप जो काल माना जाता है, वह केवल कल्पित है। शांकर वेदान्ती केवल ब्रह्मको हो सत्य मानते है इसलिये इनके मतमें काल भी काल्पनिक वस्तु है । शंकरकी तरह रामानुज, निम्बार्क, मध्व और बल्लभ सम्प्रदायवालोंने भी कालको वास्तविक पदार्थ स्वीकार नहीं किया। शांतरक्षित' आदि वौद्ध आचार्य भी काल द्रव्यका पृथक् अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । पाश्चात्य विद्वान् भी उक्त काल संबंधी दोनों सिद्धांतोंको मानते हैं।
जैन ग्रन्थोंमें काल संबंधी उक्त दोनों प्रकारकी मान्यतायें उपलब्ध होती हैं :(१) एक पक्षका कहना है कि काल कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है । जीव और अजीव द्रव्योंकी पर्यायके परिणमनको ही उपचारसे काल कहा जाता है, इसलिये जोव, अजीव द्रव्योंमें ही काल द्रव्य गभित हो जाता है। (२) जैन विद्वानोंका दूसरा मत है कि जीव और अजीवकी तरह काल भी एक स्वतंत्र द्रव्य है । इस पक्षका कहना है कि जिस प्रकार जीव और अजीवमें गति और स्थितिका स्वभाव होनेपर भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायको पृथक् द्रव्य माना जाता है, उसी प्रकार कालको भी स्वतंत्र द्रव्य मानना चाहिये। यह मान्यता श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों ग्रंथोंमें मिलती है।
जैन शास्त्रोंमें काल संबंधी मान्यता सामान्य रूपसे जैन शास्त्रोंमें कालके दो भेद माने हैं-निश्चयकाल (द्रव्य रूप) और व्यवहारकाल ( पर्यायरूप )। जिसके कारण द्रव्योंमें वर्तना होती है, उसे निश्चयकाल कहते हैं। जिस प्रकार धर्म और अधर्म पदार्थोकी गति और स्थिति में सहकारी कारण है, उसी प्रकार काल भी स्वयं प्रवर्तमान द्रव्योंको वर्तनामें सहकारी कारण है। जिसके कारण जीव और पुद्गलमें परिणाम, क्रिया, छोटापन, बड़ापन आदि व्यवहार हों, उसे व्यवहारकाल कहते हैं । समय, आवली, घड़ी, घंटा आदि सब व्यवहारकालका ही रूप है। व्यवहारकाल निश्चयकालकी पर्याय है, और यह जीव और पुद्गलके परिणामसे ही उत्पन्न होता है, इसलिये व्यवहारकालको जीव और पुद्गलके आश्रित माना गया है।
१. तत्त्वसंग्रह पृ. २०९।। २. अत्राहुः केऽपि जीवादिपर्याया वर्तनादयः ।
काल इत्युच्यते तज्ज्ञः पृथग् द्रव्यं तु नास्त्यसौ ॥ लोकप्रकाश २८-५ । दिगम्बर ग्रंथोंमें काल द्रव्यको स्वीकार न करनेका पक्ष कहीं उपलब्ध नहीं होता। परन्तु ध्यान देने योग्य है कि यहां व्यवहार कालको निश्चय कालकी पर्याय स्वीकार करके व्यवहार कालको जीव और पुद्गलका परिणाम माननेका उल्लेख मिलता है-यस्तु निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकालः स जीव
पुद्गलपरिणामेनाभिव्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत इति । अमृतचन्द्र-पंचास्तिकाय टीका गा. २३ । ३. इस पक्षकी चार मान्यताओंका उल्लेख पं० सुखलालजीने 'पुरातत्व' के किसी अंकमें किया है-(क)
काल एक और अणुमात्र है; (ख) काल एक है, लेकिन वह अणुमात्र न होकर मनुष्य क्षेत्र लोकवर्ती है; (ग) काल एक और लोकव्यापी है; (घ) काल असंख्य है, और सब परमाणुमात्र है।